ऋण मुक्ति

कन्नड़ कहानी


अदीब अख्तर


जिंदगी में आने वाले हर दुख से समझौता करना ही पड़ेगा, कोई दूसरा रास्ता नहीं है। इस बात को दिन में कई बार प्रदीप अपने आपसे कहकर खुद को दिलासा देने की कोशिश करता है। आंखों का डॉक्टर है वह। उमर होगी यही सत्तर के आसपास।


अब उसमें जीने की कोई उमंग बाकी नहीं रह गई है। घर-बार, बीवी-बच्चे सब कुछ खोकर तन्हा हो गया है।


 उसके ऐसे बुरे समय में उसके काम आया है उसका दोस्त प्रशांत फिलहाल, प्रदीप, कमला नगर के स्केंड स्टेज में स्थित प्रशांत के घर में ठहरा हुआ है। प्रशांत के दो लड़के अमेरिका में हैं। उसके घर के सभी सदस्य अमेरिका गए हुए हैं।प्रशांत जैसा दोस्त न होता तो यह भी संभव था शायद वह जिंदगी से उकताकर आत्महत्या ही कर लेता। जिंदगी के आखिरी भाग में कितने सारे दुख झेलने पड़ रहे हैं? कितनी सारी जानलेवा घटनाओं से दो चार होना पड़ रहा है जिंदगी दुख झेलने के अलावा कुछ नहीं। वह जिंदगी के आगे हार गया था, पुनर्जन्म लेकर इस दुनिया में दोबारा नहीं आना चाहिए।


वह हमेशा कुछ न कुछ सोचता रहता था, अपनी आदत के अनुसार प्रदीप उस दिन सोचता हुआ, दोस्त के घर के पास स्थित पार्क की जानिब रवाना हुआ, वहां कुछ समय बिताने के बाद वापस घर लौट रहा था, रास्ते में उसने देखा कि एक अंधा जवान रास्ते की एक जानिब से दूसरी जानिब जाने के लिए एक जगह रुका हुआ है। इस आशा में कि कोई उसे रास्ते की दूसरी जानिब पहुंचा दे।


प्रदीप आगे बढ़ते हुए लम्हे भर के लिए रुक गया, और सोचने लगा कि क्या उसे उस अंधे जवान की मदद करनी चाहिए, उसे रास्ते के उस ओर पहुंचा देना चाहिए!


वह खड़ा सोच रहा था कि उसने देखा, एक राहगुजर अंधे जवान का हाथ पकड़कर रास्ते के उस ओर पहुंचा कर आगे बढ़ गया। प्रदीप बुत बने खड़े का खड़ा रह गया, एक मामूली सेवा न करने का उसे दुख होने लगा, वह अपने आपको कोसने लगा।


इधर कुछ दिनों से प्रदीप को यह बात सताए जा रही थी कि वह अपनी जिंदगी में किसी के दुख दर्द में काम नहीं आया, किसी की सेवा नहीं की, सेवा करने की उमर में सेवा नहीं की, अब सेवा करने को जी चाहता था, मगर बदन में शक्ति नहीं थी और हाथ में पैसा नहीं था।


प्रदीप को यूं महसूस होता है जैसे वह बस, अब तक लोगों का खून चूसता रहा है।


खून चूसने की यह आदत उसे विरासत में मिली थी, गांव में उसका बाप लोगों को सूद पर पैसा देता था। वह बेहद कंजूस था एक पाई भी छोड़ता नहीं था, उसी बाप का प्रदीप इकलौता बेटा था, और प्रदीप को भी एक ही लड़का था। आदित्य, आदित्य भी आंखों का डॉक्टर था, आदित्य की पत्नी मृदला भी आंखों की डॉक्टर थीउनके दो बच्चे थे मेघा और पृथ्वी।


प्रदीप, आदित्य, मृदला तीनों आंखों के डाक्टर थे, एक दृष्टि कोण से देखा जाय तो उन्हें दृष्टिहीनों को दृष्टिदान करना था, इसी प्रकार की विद्या प्राप्त की थी, मगर वह तीनों पैसों के पीछे पड़कर खुद अंधे हो गये थे।


अब से कुछ अरसे पहले यहां बेंगलूर में उनका एक आंखों का अस्पताल था, वहां तो सिर्फ अमीर लोग ही आते थे। अगर कोई गरीब भूलकर उनके अस्पताल आ जाता था तो उसे सरकारी अस्पताल का रास्ता दिखा दिया जाता था। सेवा करने के कितने ही अवसर थे जो उसने खो दिए, प्रदीप सोचने लगा अगर उसके शरीर में सेवा करने के गन होते तो वह सेवा करके कछ पण्य कमा लेता. उसके पण्य के फल से इस बात की भी संभावना थी उसके बेटा, बह और उनके दो बच्चे सभी आत्महत्या न करते।


दो साल पहल आदित्य और मृदला ने आंखों का हाइटेक अस्पताल निर्माण करने का मनसूबा बनाने के बाद कमर्शियल इलाके में एक निवशन खरीदा थाबहुत बड़ा अस्पताल निर्माण किया था, आंखों की जांच करने की मशीनों को विदेशों मंगवाया था, इस सिलसिले में उन्होंने आरंभ में बैंकों से कर्ज लिया था, फिर जहां कहीं से भी कर्ज मिल सकता था वहां से लिया था। प्रदीप को इसकी जानकारी नहीं दी गई थी।


आहिस्ता-आहिस्ता कर्ज का बोझ बढ़ता गया, उनकी सारी जायदाद जितने दाम पर बिक्री हो सकती थी उससे बढ़कर उन्होंने कर्ज लिया था।


__ आमदनी से बढ़कर सूद बढ़ने लगा।


बैंक से नोटिस आने लगे, दूसरे भी तकाजा करने लगे, उनके सारे मनसूबों पर पानी फिर गया, थक हारकर आदित्य और मृदला ने अपने बच्चों को जहर देकर और खुद जहर खाकर आत्महत्या कर ली, यूं प्रदीप अकेला रह गया।


इधर कुछ दिनों से प्रदीप अपनी यशोदा को याद करता रहता है, जो तीन बरस पहले इस दुनिया से चल बसी थी बेचारी अच्छे नसीब वाली थी, जो इन सारे दु:खों को देखने के लिए जिंदा नहीं रही, वरना उसे भी कितने सारे दुःख देखने पड़ते। न जाने किस जन्म का पुण्य था कि इन सारी दुर्घटनाओं के बाद भी वह बीमार होकर बिस्तर पर नहीं पड़ा, अगर वह बीमार हो जाए तो उसकी देख भाल कौन करेगा?


__घर लौटते हुए प्रदीप ने गणपति मंदिर के आगे खड़े होकर यह प्रार्थना की कि उसे जितनी जल्दी हो सके मौत आ जाए।


__यह तो भगवान की कृपा से उसकी दृष्टि ठीक है। वरना और किन किन परेशानियों का सामना करना पड़ता?


___ दिल ही दिल में यह सब कुछ सोचते हुए प्रदीप मंदिर के आगे खड़ा था कि उसकी नजर अचानक ही मंदिर से बाहर बातें करते हुए अपनी ही उमर के एक व्यक्ति पर गई जो देखने में बिलकुल अपने एक पुराने सहपाठी शेखर जैसा था, उस व्यक्ति के पास जाकर उसके कंधे पर हाथ रख दिया।


वह मुड़ा तो उसने उस व्यक्ति को ध्यान से देखा, मगर वह तो कोई और था।


"तुम देखने में बिल्कुल मेरे एक सहपाठी जैसे लगते हो, इसलिए रोका क्षमा करना"


इतना कहकर प्रदीप आगे बढ़ने लगा तो उस व्यक्ति ने कहा 'मुझे देखकर तुमको अपने सहपाठी की याद आ गई यह तो बहुत खुशी की बात हुई, मेरे साथ चाय पीकर जाइये।


अजनबी उसे करीब के रेस्टोरेंट लेकर गया था, वहां उसने प्रदीप को जलपान, कराया था। रेस्टोरेंट से बाहर आते हुए उसने प्रदीप से कहा था, लगता है जैसे तुमने बहुत दुख झेले हैं, हिम्मत न हारिए कोई भी समस्या सदा के लिए नहीं रहती" इतना कहकर वह जाने लगा तो प्रदीप उसे देखता ही रह गया, उसकी आंखें भर आई।


दोस्त के घर लौटते हुए प्रदीप को शेखर की याद आ गई, पचास बरस पहले वह और शेखर सहपाठी थे, एक बार छटी के दिनों में शेखर उसे अपने गांव चामलापुर ले गया था, दो दिन तक चामलापुर में रहा था, शेखर समाज सेवक था। चामलापुर तक ट्रेन है, पैसेंजर गाड़ी में दाम कम लगते हैं, एक बार जरूर जाना चाहिए, यही सोचते हुए वह घर लौटा था, और प्रशांत के आगे चामलापुर जाने का इरादा व्यक्त किया तो प्रशांत ने पैसे देने का वादा किया था, वह प्रशांत के यहां दो माह से था। अगले दिन वह सुबह सबेरे चामलापुर रवाना हुआ था, पहले ही बनाए मनसूबे के तहत उसने पैसेंजर पकड़ी थी।


रेलवे स्टेशन चामलापुर गांव से दो किलीमीटर की दूरी पर था, रास्ते में नदी बहती थी किसी जमाने में जमाने पर पुल नहीं था, इधर से उधर जाने वाले पानी ज्यादा न हो तो चलकर जाते थे, पानी ज्यादा हो तो नाव में बैठकर सफर करते थे।


__ अब पुल बन गया था, पुल पर से गुजरते हुए उसने कुछ लम्हे नदी के पास बिताने का फैसला कर लिया था और पुल के नीचे उतरकर नदी के किनारे पहुंचा, नदी में पानी कम था, उसने देखा नदी के किनारे अस्थियों से भरी छोटी-छोटी मटकियां पड़ी हुई हैं।


हमेशा-हमेशा जिंदा रहने की तमन्ना करने वाले मनुष्य का अंत क्या यही है? अस्थियों से भरी मटकियां उसे टूटे हुए किलों की तरह लगने लगी। एक ही जगह पड़ी कई सारी मटकियां उसे एक ही कुनबे की अस्थियां जैसी लगी। मगर यह तो एक ही कुनबे की हरगिज नहीं थी।


मेरी चिता को अग्नि कौन देगा?


यह सोचकर वह दुखी हो गया।


वह गांव की जानिब रवाना हुआ, रास्ते में उसने कुछ लोगों को देखा जो अस्थियों से भरी मटकी लिए जा रहे थे।


___ गांव पहुंचा तो उसने देख। चामलापुर बिलकुल बदल गया है, उसने लोगों से दोस्त के घर का पता पूछ कर दोस्त के घर पहुंचा, शेखर उसे भूला न था। दोस्त के घर में शेखर और उसकी पत्नी रह गये थे, उनके लड़के आसपास के शहरों में बस गये थे।


पढ़ाई के जमाने ही से शेखर को समाज सेवा करने की आदत थी, अब भी उसने यह काम जारी रखा था, मगर अब घुटनों के दर्द से दो चार था।


___ दोपहर के भोजन के बाद आंसू बहाते हुए प्रदीप ने अपनी सारी कहानी कह सुनाई थी और यह भी बता दिया था कि कई बार समाज सेवा करने के अवसर मिलने के बावजद उसने समाज सेवा नहीं की. मगर इस समय समाज सेवा करने को जी चाहता है जबकि उमर ढल गई है।


शेखर ने उसे तसल्ली देते हए कहा था। वहां से करीब दस किलोमीटर के फासले पर एक अमीर पिछले दस सालों से एक अनाथ आश्रम चला रहा था, समाज सेवा के लिए उसने सारी जिंदगी लगा दी है और ब्याह भी नहीं किया है मगर अब उस की सेहत ठीक नहीं है, अब तक वह जिस आश्रम की देखभाल कर रहा था उसकी देखभाल के लिए कोई मुनासिब आदमी तलाश रहा है मगर तुम चाहो तो उस जिम्मेवारी को अपने सर ले सकते हो।


***


अगली सुबह प्रदीप दोस्त के साथ आश्रम पहुंचकर वहां के अनाथ बच्चों को अपने गले लगाकर रो पड़ा, आंसू बहाते हुए वह इन बच्चों में अपने परिवार को ढूंढ़ने लगा।