सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक मूल्यों का विकास

संदर्भ-साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य


राधेलाल बिजघावने


साहित्यिक पत्रकारिता करना आसान नहीं। इसमें जितनी नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों के विकास की जिम्मेदारी है, उससे कहीं अधिक खतरे भी हैं। पत्रकारिता चाहे साहित्यिक हो अथवा अखबारी इसका कार्य मानवीय चेतना को विकसित करते हुए समय के खतरों से अगाह करना है और एक दूसरे को नयी नयी सूचनाओं और जानकारी से अवगत कराना है। पत्रकारिता मानवीय मूल्यों को विकसित करती हुई मनुष्य को मनुष्य से जोड़ती है और नैतिक मूल्यों को संवारती है। पत्रकारिता की जिम्मेदारी है कि विश्व की तमाम घटनाओं और दुर्घटनाओं और महत्वपूर्ण खबरों से मनुष्य को दिमागी स्तर पर अपटूडेट करे और उसमें ईमानदार वैचारिकता के गुणात्मक संबंधों को सचेतन रूप देते हुए उनकी अनुभवशीलता को विकसित करे इसलिए पत्रकारिता मानवीय दैनिक जीवन की जरूरत है क्योंकि प्रतिदिन के घटनाक्रमों का न केवल लेखा-जोखा होता है बल्कि उनमें सुधारात्मक एवं गुणात्मक उपायों की खोज भी होती है। पत्रकारिता मूल्य विभेद को समाप्त करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संरक्षित करने का कार्य करती है। पत्रकारिता का कार्य जनोन्मुख होता है जिसमें समय की चिंता और चेतना की चिंगारी होती है। पत्रकारिता चाहे अखबारों, इलेक्ट्रिक मीडिया की हो अथवा साहित्यिक, बहुत तेजी से आदमी की सोच समझ और वैचारिकता को कन्सट्रक्ट करती हुई जनमानस में अवेयरनेस लाती है और सही गलत का अहसास कराती है। समाचार पत्रों के पत्रकारों की खासियत है कि वे अपने पत्र की प्रसारण संख्या बढ़ाने के लिए सनसनीखेज खबरें छापते हैंकई बार पीत पत्रकारिता का भी सहारा लेते हैं। परंतु साहित्य समझ समाचार पत्रों के पत्रकारों में कम ही होती है। इसलिए ये कई बार साहित्य की उपेक्षा भी कर देते हैंलेकिन साहित्यिक पत्रकारिता आधुनिक समाज, संस्कृति का निर्माण करती हैं और सहयोगी भावना से निरपेक्ष रूप से आदमी के विकास और भविष्य के उत्कर्ष के अपेक्षा करती है।


साहित्य किसी भी देश की अपनी मौलिक पहचान है। साहित्य संस्कृति के अभाव में देश एवं समाज के विकास की अपेक्षा संभव नहीं।


 आज देश में साहित्यिक पत्रकारिता पर केंद्रित पुस्तकों का अभाव है। इस अभाव को समाप्त करने की दृष्टि से ही अरुण तिवारी-संपादक-प्रेरणा पत्रिका ने 'साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य' पुस्तक का संपादन प्रकाशन किया है। जिसकी सहृदय सहभागिता को नकारा नहीं जा सकता। साहित्यिक पत्रकारिता पर पुस्तकों की अभी तक बहुत कमी महसूस की जाती रही है। परंतु 'साहित्यिक पत्रकारिता की इस पुस्तक के प्रकाशन से इसकी कमी इसलिए महसूस नहीं होगी, क्योंकि इसमें जिनाइन अनुभवी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के संपादकों एवं लेखकों के लेख एवं आलेख संग्रहित हैं। जो पत्रकारों को पत्रकारिता, विद्यालयों और विद्यार्थियों के लिए शोध विषय और गाइड लाइन के रूप में उपयोगी होंगे।


अरुण तिवारी द्वारा संपादित पुस्तक 'साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य' पुस्तक में जिन साहित्यिक पत्रकारों एवं साहित्यकारों के अनुभव संपन्न आलेख उनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैं। स्वयं अरुण तिवारी के अतिरिक्त मनमोहन सरल, प्रदीप पंत, रमेश दवे, केवल गोस्वामी, बलराम, सेवाराम त्रिपाठी, प्रांजलधर, शशिभूषण द्विवेदी, हेतु भारद्वाज, सुरेश पंडित, सुरेश उजाला, मुकेश वर्मा, राणा प्रताप, रामनाथ शिवेन्द्र, दामोदरदत्त दीक्षित, विजय शंकर निकुंज, प्रमोद भार्गव, रामनिहाल गुंजन, राजेन्द्र परदेसी, शराफतअली खान, नरेन्द्र गौड़, दिनेश पाठक, राधेलाल विजधावने, सिद्धेश्वर, राजेन्द्र जोशी, डॉ जीवनसिंह, डॉ अभिज्ञात, अवधेश प्रीत, शैलेन्द्र, विष्णुनागर, सुधीर विद्यार्थी, महेश भारद्वाज, ओमप्रकाश पांडेय, डॉ गंगाप्रसाद बरसैंया, सूर्यकांत नागर। अरुण तिवारी, ने संपादकीय में लिखा है कि “अब तो पत्रकारिता शब्द के आगे ही प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं एक ऐसा माध्यम जो जनता की दशा को बयान करता हो, उसे दिशा देता हो जब वो ही अपनी विश्वसनीयता खोने लगे तो उससे क्या अपेक्षा की जा सकती है।"यह पत्रकारिता के वर्तमान चरित्र पर गहन चिंता का विषय है जिस पर सामूहिक रूप से विचार करने और पत्रकारिता की गुणात्मकता के सुधार की अपेक्षा करते हैं। क्योंकि वर्तमान पत्रकारिता के चरित्र पर हर पाठक कहीं न कहीं दुखी और चिंतित दिखाई देता है। इसलिए पत्रकारों के नैतिक मूल्यों में ईमानदार गुणात्मकता के सुधार की जरूरत हर पाठक द्वारा गहराई से समझी जा रही है और आपसी समन्वय की भी आवश्यकता महसूसी जा रही हैमनमोहन सरल के अनुसार सुप्रभात, सनीचर, कलरव, नया संसार, रंगारंग, कलश जैसे पत्रों की पत्रकारिता एक मिशाल के तौर पर रही है। कल्पना, लहर, अजंता, मानव किरण, युगप्रभात, कोशिकोड, नवचेतन, धर्मयुग, जनकल्याण, भारतवाणी पत्रिका में हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। ज्ञानपीठ का ज्ञानोदय, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका पत्रिकाओं ने भी हिंदी साहित्य को समृद्धि की ओर बढ़ाया है। बाल पत्रिका में पराग की अपनी रचनात्मक भूमिका रही है। प्रदीप पंत मानते हैं कि साहित्यिक पत्रकारिता की भूमिका अहम रही है। अत्यंत संपन्न परंपरा थी। प्रेमचंद की हंस, इंदूमती, चांद, माधुरी, सरस्वती, इन्दु आदि इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। इन पत्रिकाओं ने लेखकों का निर्माण किया है। कथा साहित्य में भैरवप्रसाद गुप्त कहानी पत्रिका के संपादक थे। भीष्म साहनी, अमरकांत, मार्कण्डेय, कमलेश्वर, मोहन राकेश, शेखर जोशी, निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, उषा प्रियवंदा, कृष्णा सोवती जैसे कथाकारों की रचना शीलता को रेखांकित किया है। दिनमान जैसी पत्रिका को प्रतिष्ठा की जगमगाहट दी।


शशिभूषण द्विवेदी का कथन है। 'यूरोप के साहित्य के परिदृश्य को समझने का उन्हें मौका मिला' वहां दैनिक अखबारों में रविवारीय पृष्ठ अब भी होते हैं। जबकि भारत में दैनिक अखबारों के रविवारीय पृष्ठ से साहित्य को अनुपस्थित कर दिया गया हैयह चिंताजनक स्थिति है। मुकेश वर्मा का कथन है-“बाजार मीडिया की रोशनी की जगमगाहट इतनी तेज है कि इस बेमुरव्वत और बेगैरत हुए चकाचौंध में इंसान लगभग अंधा हो चुका है। लघुपत्रिकाओं के हाथों में थरथराती कंदील की लौ है। विजय शंकर विकुंज ने अपने आलेख में उल्लेख किया है कि-"पत्रकारिता का लक्ष्य समाज को विकृतियों की सच्चाई से परिचित कराना है और आदमी के जीवन की सकारात्मक तथा सार्थक पथ पर जाना है लेकिन इसके व्यवहार में आज अपने ऊपर उंगली उठाने को मजबूर कर दिया है और अब पत्रकारिता के साथ दृश्य मीडिया ताल मिला रहा है। यहां साहित्यक पत्रकारिता में आज भी शुद्धता नजर आती है और इसका लक्ष्य मनुष्य के दिल में असर है। विष्णु नागर ने अपने आलेख में इस सच्चाई को उद्घाटित किया है कि 'व्यवसायिक पत्रिका इस अपेक्षा पर पूरी तरह खरी नहीं उतरती 'हिंदी अंग्रेजी के कुछ अखबार हैं जो एक हद तक ही सही काम करते हैं और लोकप्रिय हैं।'


सुधीर विद्यार्थी ने अपने आलेख में लिखा है-'लघुपत्रिकाओं के माध्यम से भी विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच पुल बनाने की दिशा में जरूरी काम किया जा सकता है जैसा कि एक समय हिंदी पंडित सुंदरलाल ने किया था।'


राणा प्रताप ने अपने आलेख में यह उल्लेख किया है कि-'साहित्यिक पत्रकारिता व्यक्ति को समाज ही नहीं बल्कि सरकार की भी आंख खोलने का काम करती है भले ही सरकार अपनी आंखों को कानून की पट्टी चढ़ाये रखे और आनन-फानन में नादिरशाही हुक्म जारी करे। साहित्यिक पत्रकारिता इस बात से डरती नहीं, वह जरूरी बातों की सूचनाएं देती रहती हैं। मैं तो कहता हूं साहित्यिक पत्रकारिता संपादक की बुद्धि और विवेक की आंख होती है। वह अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों को देख सकती है और भविष्य के आसन्न खतरों की सूचना भी देती है।


डॉ. सुरेश उजाला ने अपने आलेख में लिखा है 'पत्रकारिता एक बहुआयामी विषय है। पत्रकारिता के मुख्य चार उद्देश्य हैं जैसे-विश्लेषण करना, मार्ग निर्देशन करना, मनोरंजन करना आदमियत की चिंता और आदमी और उसकी असलियत को बताना।'


अरुण तिवारी द्वारा संपादित पुस्तक-'साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य में पत्रकारिता में संलग्न पत्रकारों की सही जांच की आंखों को खोलने और सामाजिक साहित्यिक और राष्ट्रीय, हित चिंताओं को जागृत करने का कार्य किया है। यह अहसास दिलाया है कि पत्रकारों का दायित्व क्या है वो इस दायित्व को कहां तक निर्वहन कर रहे हैं। यह निर्विवाद सच है कि अखबारी पत्रकारिता से कहीं अधिक साहित्यिक पत्रकारिता में ईमानदारी है देश समाज से स्मृति की सुरक्षा और समृद्धि का अहसास है।


अरुण तिवारी द्वारा संपादित पुस्तक साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य 'पत्रकारों, शोधकर्ता और पत्रकारिता' विद्यालयों, विश्वविद्यालयों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसी पुस्तकों की कमी की पूर्ति इस पुस्तक से स्वतः हो जाती है। साहित्यिक पत्रकारिता से बौद्धिक, नैतिक सामाजिक और सृजनात्मक चेतना जागृत होती है। क्योंकि साहित्यिक पत्रकारिता की उज्जवल छवि कवि एवं परंपरा रही है।