पत्रकारिता बनाम साहित्यिक पत्रकारिता

संदर्भ-साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य


डॉ गंगाप्रसाद बरसैंया


मैंने अपनी सम्मति आपको प्रेषित कर यह कहने में कोई पुनरुक्ति न होगी कि अधिकांश लेखक पत्रकारिता से जडे रहे हैं। उन्होंने अपने अनभवों के साथ ही पत्रकारिता जगत में व्याप्त गुण-दोषों का सप्रमाण तटस्थ बेबाक विवेचन किया है। उन लेखों से पत्रकारिता के इतिहास पर ही प्रकाश नहीं पड़ता अपितु विशिष्ट पत्र और पत्रकार भी विशेष रूप से उल्लेख है। यह तो सभी मानते हैं कि देश और समाज को जागृत करने तथा कुरीतियों, कुनीतियों और विद्रूपताओं एवं शोषण और अनाचारों के साथ अनैतिक कार्य कलापों को उजागर करने, उनके प्रति जनता को सजग और जागरूक करने में पत्रकारिता का योगदान ऐतिहासिक और उल्लेखनीय है। अपने स्वार्थ और लाभ के लिए धन्नासेठों और सत्ताधीशों ने अपने-अपने प्रचारप्रसार के लिए अपने स्वयं के अखबार और पत्रिकायें भले निकाली हैं, पर लघुपत्रिकाओं ने उनकी परवाह किये बिना जनहित में जो अभियान छेड़ रखा और साहित्य तथा पत्रकारिता के आदर्शों के परिपालन में संपादकों ने त्याग और संघर्ष किया, वह क्रम कभी समाप्त नहीं हुआ। धनी निर्धन का यह संघर्ष सदैव से रहा है। आज भी हैआदर्श चरित्र के आदरणीय पत्रकार और संपादक तब भी थे और आज भी हैं। भले ही उनकी संख्या नगण्य हो। अच्छी बात यह है कि प्रायः सभी लेखों में उन्हें आदर के साथ स्मरण किया गया है। पत्रकारिता के इतिहास. पत्र पत्रिकाओं के प्रदेय, लघ पत्रिकाओं की जुझारू भूमिका का उल्लेख के साथ इन लेखों में आज की पत्रकारितामें आये अनैतिक पतन, लाभ लोभ भरी दौड़, अधिक से अधिक कमाने, सम्मानित होने की लालसा तथा चाटुकारिता पर भी प्रकाश डाला है। यही नहीं, पत्रकारिता के क्षेत्र में हो रही उठा-पटक, छल-छंद और दांव पेंचों का उल्लेख भी इन लेखों में देखा जा सकता है। कई लेखकों ने स्वयं अपने अनुभवों को विस्तार से अंकित किया है। आपने अपने संपादकीय में भी उन तमाम बिंदुओं को इंगित किया है। मनमोहन सरल का यह कथन कि 'सनसनी फैलाने वाले विषयों के मुकाबले विशुद्ध और गंभीर साहित्य देनेवाली पत्रिकाओं को हमेशा आर्थिक कठिनाइयों से जूझना पड़ेगाक्योंकि विज्ञापन तंत्र समर्थों के हाथ में है। प्रदीप पंत, रमेश दवे, बलराम, हेतु भारद्वाज, सुरेश पंडित, सेवाराम त्रिपाठी, रामनाथ शिवेन्द्र, प्रमोद भार्गव, राजेन्द्र परदेसी, दिनेश पाठक, ओमप्रकाश पांडेय, आदि के लेख विशेष उल्लेखनीय हैं। दिनेश पाठक ने जैसे अपने अनुभवों को विस्तार से अंकित किया है, वहीं ओमप्रकाश पांडेय ने मीडिया के भ्रष्ट और विद्रूपरूप का जो रूप सामने रखा है वह आंख खोलने वाला है। उन्होंने बड़े साहस से तथ्यों को सामने रखा है। मैं यहां उनके लेख का एक अंश प्रस्तुत करना चाहता हूं। वे लिखते हैं 'वैश्विक बाजारीकरण के मकड़जाल में फंसे मीडिया ने देश की 70 प्रतिशत जनता को खबर मानने से इंकार कर दिया है। ...मीडिया के पास हलवे जैसा गर्म-गर्म, नर्म-नर्म, मीठा-मीठा आध्यात्म है, योगासन है, ज्योतिष है, प्रकृति है, वन्य जीवन है, पूरब से पश्चिम तक तरह-तरह का संगीत है, स्वास्थ्य, दुनिया की सैर है, संस्कृति की झांकियां हैं, उच्च तथा उच्चतम मध्यवर्ग की सुनहरी झलकियां हैं, बीच-बीच में थिरकती नाचती तारिकाएं तथा मेनकायें हैं, सब कुछ अच्छा-अच्छा, सुंदर-सुंदर लेकिन मजदूर, किसान-मेहनतकश महिलाएं अन्याय, शोषण... ऐसा कुछ भी जो इस मधुर कोमलता को बदमजा कर दें कठिन-कठिन, आवश्यक राजनैतिक, आर्थिक बहसें, जो दिमाग पर जोर डालने को मजबूर कर दें, इन्हें हटा दिया गया है।...चौथा स्तंभ जनता के लिए नहीं, शासकों, पूंजीपतियों तथा अपने स्वार्थलाभ के लिए हैं। इस कथन में आक्रोश अधिक है, पर सत्यांश से अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इस प्रकार इन लेखों के माध्यम से पूरे पत्रकारिता के संसार पर दृष्टि डाली जा सकती है। जहां त्याग कम, स्वार्थ प्रमुख हो रहा है।