अज्ञेय-काव्य में सत्यान्वेषण, वेदनानुभूति, मृत्यु-पूजा, युयुत्सा-भाव, अहं और आत्माभिव्यक्ति

आलेख


डॉ.कृष्ण भावुक


अज्ञेय का नाम प्रयोगवादी कविता की सर्जना और अत्याधुनिक कविता से एकदम घुला-मिला दिया गया है। हमारी दृष्टि में इसके चार कारण संभव हो सकते हैं-1.कवि ने इधर-उधर बिखरे हुए अनेक नवीन और अपने सम-सामयिक कवियों के काव्य-प्रयत्नों को 'तार-सप्तक', 'दूसरा सप्तक' 'तीसरा सप्तक' और 'प्रतीक' के प्रकाशनों द्वारा एक संगठित स्वरूप प्रदान किया। 2. उन्होंने सन 1940 से लेकर अब तक सर्वथा अछूते आयामों का निर्धारण किया जिन्होंने आधुनिक नवीन कविता को शिल्प-क्षेत्र में प्रायः समग्रतः और वस्तु क्षेत्र में अंशतः प्रभावित किया। 3. इस कविता के मूल सूत्रों के निर्धारण से ले कर उसके प्रति हुए आक्षेप-प्रत्याक्षेपों को उत्तर-प्रत्युत्तर दिया और अंत में 4.उन्होंने 'Contempporary India Literature' में स्वयं इस बात की घोषणा की कि 'मुझे द्वितीय महायुद्धोत्तर साहित्य की धाराओं से ही संबद्ध माना जाए।


वावरा अहेरी' संकलन में सर्वाधिक संख्या आंतरिक अनुभूतिपरक और आत्मतत्व-प्रधान रचनाओं की है। इसके पश्चात प्रकृतिपरक और प्रेमपरक रचनाएं आती हैं। इस संग्रह में भाव और कला की स्पष्टता और सुनिश्चितता के सुनियोजित आयाम उपलब्ध होते हैं। भाषा में भी प्रौढ़ता है और अभिव्यक्ति में सामर्थ्य है। इससंग्रह को प्रतीकों की नई संयोजना की दृष्टि से महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। बावरा अहेरी' को 'सूर्य' को एक प्रतीक के रूप में अपना कर कहा गया है- 'भोर का बावरा अहेरी/पहले बिछाता है आलोक की/लाल-लाल कनियां/पर जब खींचता है जाल को/बांध लेता है सभी को साथ।' अब हम अज्ञेय के काव्य के संदर्भ में सत्यान्वेषण, वेदनानुभूति/, युयुत्सा-भाव, अहं और आत्माभिव्यक्ति के भागवत और वस्तुगत दृष्टिबिंदुओं का शोधपरक अध्ययन करने का प्रयास करेंगे :


1. सत्यान्वेषण-आत्मान्वेषण : अज्ञेय की कविता की एक प्रमुख प्रवृत्ति सत्यान्वेषण अर्थात 'जीवन-सत्य' को पाने की आकांक्षा है, एक जीवनोपयोगी अर्थ पाने का आयाम है जो कि आत्मान्वेषण की भूमिका पर स्थित है। 'आंगन के पार द्वार' संग्रह में कवि मानता है कि कोई भी सत्य नहीं है, कोई भी उपलब्धि आखिरी नहीं है। सब निरंतर अन्वेषण के आयाम हैं। सत्यान्वेषण कभी न समाप्त होने वाली प्रक्रिया है। इस संग्रह की 'असाध्य वीणा' में कवि आत्मान्वेषण करके सत्य को पाने का अर्थ दे रहा है- 'मौन प्रियंवद साज रहा था वीणा/नहीं स्वयं को शोध रहा था..।'


परवर्ती काव्य-कितनी कृतियों 'कितनी नांवों में कितनी बार' और 'सागरमुद्रा' में भी आत्मान्वेषण से होती हुई कवि की भावधारा सत्यान्वेषण के लिए व्यग्र है।'अंधकार' शीर्षक कविता में कवि का यह कहना 'अंधकार में सहज जाग कर कि जो मेरा है वहीं ममेतर है' सत्यान्वेषण को ही स्पष्ट करता है। 'पहले मैं सन्नाटा बनता हूं' संग्रह में ऐसी अनेक कविताएं देखने को मिलती हैं। इसी शीर्षक की कविता में कवि अपने को मरण से बंधा भी पाता है किंतु फिर भी स्वर तारों के माध्यम से अपने को काल के बाहर पाता है- मैं तो मरण से बंधा हूं/ पर किसी के और इसी तार के सहारे/ काल से पार जाता हूं.../यों बुन जाता है जाल सन्नाटे का/और मुझ में कुछ है कि उससे घिर जाता हूं/सच मानिए, मैं नहीं हूं वह/क्योंकि मैं जब पहचानता हूं तब/अपने को उस जाल के बाहर पाता हूं। ('पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं')


'महावृक्ष के नीचे' कविता-संग्रह की 'नाच' शीर्षक कविता में भी अज्ञेय तनाव से मुक्ति पा कर अपने अंतस का विश्लेषण करके सत्यान्वेषण करते हुए भी प्रतीत होते हैं-असल में मैं नाचता नहीं हूं मैं केवल इस खंभे से उस खंभे तक दौड़ता हूं/ कि इस या उस खंभे से रस्सी खोल दूं/कि तनाव चुके और ढील में मुझे छुट्टी हो जाए। पर तनाव ढीलता नहीं...।


2. वंदनानुभूति : अज्ञेय का काव्य प्रणय, वेदना, सौंदर्य और मानवास्था का काव्य है। वे प्रणय के धरातल से वेदना की ओर आये हैं । वेदना में अज्ञेय बड़ी शक्ति मानते हैं । अज्ञेय की अनेक कविताओं में हमें वेदना की झलक देखने को मिलती है। 'हरी घास पर क्षण भर' संग्रह की एक कविता में कवि की वेदना इन शब्दों में व्यक्त हुई है-दुःख सबको मांजता है और चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने किंतु जिन को मांजता है/उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।-(संग्रह, 'हरी घास पर क्षण भर', पृष्ठ 55)


एक अन्य स्थल पर कवि ने 'दर्द की दीप्ति' की भी चर्चा की है। कवि की मान्यता है कि दर्द पाप नहीं है, यदि वह वैसा होता तो स्वीकार से धुल जाता। इसके विपरीत दर्द की अपनी दीप्ति है-दर्द स्वीकार से मिटता नहीं है/ स्वीकार से पाप मिटते हैं/पर दर्द पाप नहीं है/ दर्द कुछ मैल नहीं/कुछ असुन्दर अनिष्ट नहीं/ दर्द की अपनी एक दीप्ति है। ('अरी ओ करुणा प्रभामय' पृष्ठ 137)


दर्द की महत्ता को रेखांकित करता हआ कवि कहता है कि आज मानव दर्द की शराब पी रहा है- कौन या कब अकेले बैठ कर शराब पीता है/ खोना जब अपने को अच्छा नहीं लगता/अपने को सहन नहीं करता-क्योंकि मैं उसे जानता हूं..-(पृष्ठ 60)। इसी प्रकार अज्ञेय काव्य में वेदना के आलंबन कहीं लौकिक और कहीं महादेवी वर्मा की भांति अलौकिक भी देखे जाते हैं। वे आंगन के इस पार भी रहते हैं और कभी-कभी आंगन के उस पार भी जाने में अपनी आध्यात्मिक और रहस्यवादी रुचि का साक्ष्य प्रस्तुत करते रहते हैं।


3. मृत्यु-पूजा : गीतकार श्री शंभुनाथ सिंह ने छायावादी कवियों की वेदनाविवृत्तियों पर विचार करते हुए लिखा है, 'वेदना का बोझ इतना भारी हो गया कि कवि जीवन से ही निराश हो चले। वे अपने को मुर्दा समझने लगे और चिता पर भस्म होने की कामना करने लगे। मृत्यु की छाया उन्हें चारों ओर दिखाई पड़ने लगी। 'Gerard Manley Hopkins ने जीवन की क्षणभंगुरता से उत्पन्न 'निराशा' को कारण तथा वेदना (Pang) को 'कार्य' मानते हुए इसी मृत्यु-कामना को यों प्रकट किया - "The ash tree growing in the corner of the graden was felled. It was lopped first :I heard the sound and looking out and and seeing it maimed there came at that moment a great pang and' I wish to die' and not to see the inscapes of the word destroyed any more..." अपनी पुस्तक 'The poetic Image' में आधुनिक कवियों का अध्यन करते हुए मिस्टर सी.डे. ल्युइस लिखते हैं, "पुनश्च, यह भी सत्य है कि वेब्स्टर की तरह हम 'मृत्यु' से अधिक आक्रांत है और यह भी सत्य और महत्वपूर्ण है हमारे कवि इस मृत्यु को वैयक्तिक और धार्मिक ढंग से 'भय के छिपे हए तुफान' को नहीं देखते हैं, बल्कि सामान्य मनोवैज्ञानिक शब्दावली में 'मृत्य-कामना' (death-will)ही मानते हैं, जो कि आधुनिक सभ्यता के फल में एक कीडा है और इस मृत्य-कामना से बाधित होकर उनके काव्य में कुछ विशेष प्रकार के बिंबों का प्राधान्य हो चला है, ठीक वैसे ही जैसे पिछली दशाब्दी में युद्ध के व्यापक भय ने उसी काव्य में गुप्तचरों, सीमांतों, देश-निर्वासन की घटनाओं और खून-खराबों की बहुतायत कर दी थी'-(पृष्ठ 103)


ल्युइस ने मृत्यु पूजा के विरोध में ही लिखा है। कदाचित यह दृष्टिकोण उन्हें ग्राह्य नहीं जान पडा. परंत आजकल नये कवियों ने इसी दष्टिकोण के प्रति जिज्ञासा और रुचि बढ़ती जा रही है। महाकवि गेटे ने 'फाउस्ट' में एक स्थल पर घोषणा की है, “सौभाग्यशाली है वह पुरुष, जिसके मस्तक पर मृत्यु विजय प्राप्ति के क्षण में रक्त-रंजिश सेहरा बांधती है और वह भी जिसको 'मृत्यु' तीव्र उच्छृखल नृत्य के उपरांत किसी बाला के बाहु-पाश में आबद्ध पाती है..। ('फाउस्ट', अनु. भोलानाथ तिवारी, पृ.189) यतेन्द्र कुमार ने अंग्रेजी कवि बर्डसवर्थ की कविता 'मेरा हृदय उमंगता है' (My heart leaps up ) की कुछ पंक्तियों का अनुवाद किया है। उनमें भी इसी भावना को स्वीकार किया गया है-मेरा हृदय उमंगता है जब करता हूं मैं अवलोकन/सुरधनु का आकाश पर,/जब आरंभ हुआ जीवन तब भी ऐसा ही/ ऐसा ही हो, तब भी जब हो बूढ़ा यह तन/या मुझ को जाने दो मर!


यदि जीवित रहते हुए अज्ञेयजी भी ये पंक्तियां पढ़ते तो न जाने उन पर क्या प्रतिक्रिया होती, परंतु फिर भी उनका मंतव्य (जहां तक अनुमेय हो सकता है) बहुत कुछ वही होता, जो 'जय दोल' कहानी-संग्रह की कहानी 'वे दूसरे' में शब्दों में व्यक्त हुआ है-"यह तो निरी मृत्यु पूजा है। अंत इसलिए महान है कि हम उसके आगे अशक्त हैं ? नहीं, हमारी स्वीकृति का संयम और साहस उसे महत्ता देता है।" (पृष्ठ 74) छायावादी कवियों के परवर्ती कवियों में श्री हरिवंश राय बच्चन ने ही सर्वप्रथम इस पूजा का आह्वान किया। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि वह स्वयं और उनके सब साथी-संगी कब से गृह सुख के लिए लालायित हैं, इसलिए स्वप्न लोक से निर्वासित हैं। तभी उन्होंने 'निशा-नियंत्रण' में लिखा, "आओ, निद्रा-पत्र से छिप कर हम अपने घर जाएं। और 'नॉस्टेलजिया' (Nostalgia) की इसी प्रवृत्ति का पर्यवसान मृत्यु के अंक में सो जाने की कामना में हो जाता है...। आओ, सो जायें, मर जायें'। कदाचित यह प्रेरणा उन्हें उस मुर्दे से मिली थी, जिसे उन्होंने घाट के कुछ फासले पर अपनी चिता पर बैठकर 'सित कफन' की चादर ओढ़े जलते देखा था। 


श्री नरेन्द्र शर्मा ने भी एक कविता में निष्कर्ष दिया है मृत्यु ही जीवन का सकल आकांक्षाओं को 'नि:शेष' है, इसी का नाम अवसान है और यहीं जीवनयान आ कर रुकता है। भगवतीचरण वर्मा ने भी 'काल' के विकराल रूप का प्रदर्शन करते हुए 'मधु-कण' शीर्षक कविता में यह लिख दिया-यहां निशा के अंधकार में ही उलूक दल/भरता है चीत्कार युक्त जीवन की हलचल/यहां काल विकराल, गरल के स्रोत अनर्गल/जीवन में ही मृत्यु प्रदर्शित करते प्रतिफल!


श्री शिवमंगल सिंह 'सुमन' के 'हिल्लोल' नामक कविता-संग्रह में असमंजस' नामक एक कविता है, जिसमें इसी निराशावादी दृष्टि को प्रकाशित किया गया हैकवि का कथन है कि जीवन में मिलन कभी संभव नहीं होता, एक मृत्यु हीमहामिलन है-बन-बन कर मिटना ही होगा, जब कण-कण में परिवर्तन है/संभव है यहां मिलन कैसे, जीवन तो आत्मविसर्जन है/सत्वर समाधि की शय्या पर अपना चिर मिलन मना लूंगा!


अज्ञेय ने भी छायावादी और प्रयोगवादी कवियों के ढर्रे पर इसी भाव को नए रंगों में पिरोया है। कुछ अन्य नये कवियों ने भी इस ओर अपना विशेष झुकाव प्रदर्शित किया है। श्री सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की 'यह सांझ' नामक कविता में एक पंक्ति आती है-'यह मौत का क्षण जिन्दगी-भर से सुन्दर...। अज्ञेय के 'चिन्ता' नामक आरंभिक कविता-संग्रह में तो अनेक स्थलों पर निर्वेद की भावना के साथ-साथ इस मृत्यु-कालना का भी निर्देश हुआ है। कुछ अवतरण इस प्रकार हैं। 


1. रो रहे हैं लोग जग की चोट को हम सह न पाते ___


'मौत चारों ओर है' सब ओर स्वर हैं बिलबिलाते (पृ.41)


___ चाहे आज मृत्यु ही बन कर (पृ. 60)


3. पथ स्वयं ही काल है, गुरू और शासक भी वही है


उस तरुण के वृद्ध हाथों में खिलौना-सही मही है। (पृ.75)


4. विस्मृति-विषाक्त हाला भी पिला दो


प्राण-वीणा मृत्यु-राग में हिला दो। (पृ.150)


4. युयुत्सा-भाव : डॉ. नामवरसिंह ने अपने निबंध प्रयोगवाद' में लिखा है'सभी पलायनवादी प्रवृत्तियों का विरोध करके आरंभिक व्यक्तिवादी प्रयोगवाद ने 'प्रतिरोध' और 'युयुत्सा'-भाव का नारा दिया, लेकिन उसके प्रतिरोध और युयुत्सा भाव की सीमा थी। उसकी युयुत्सा संघर्ष अथवा विद्रोही नहीं बल्कि केवल पीड़ा बोध में थी इस तरह वह 'अचेतनता' और 'मृत्युपासना' के विपरीत पीड़ा-बोध और 'जीवन-सम्पन्न जागरूकता' का हिमायती है।' यहां डॉ. नामवरसिंह ने एक दृष्टिभ्रम का परिचय दिया है। जहां तक मृत्यूपासना का प्रश्न है उर्ध्वलिखित कवितापंक्तियां उनकी इस धारणा का अनुमोदन नहीं करती और जहां तक युयुत्सा-भाव की समस्या है, उसके विषय में रंचमात्र भी अस्पष्टता नहीं है क्योंकि नये कवियों का 'युयुत्सा-संबंधी दृष्टिबिन्दु संघर्ष और विद्रोह से ही उत्पन्न हुआ है। उसका पीड़ाबोध से किसी प्रकार का अपरिहार्य संबंध नहीं है। यह भाव ऐसा है जो अचेतनता और मृत्यूपासना का पूरक बन कर ही आया है, प्रतिस्पर्धी बन कर नहीं।'


मिस्टर हैनरी ई.गैरेट ने मनोविज्ञान की अपनी पुस्तक में इसी भाव के उद्गमस्रोत का विश्लेषण करते हुए लिखा है-आत्म गौरव अभिप्रेरक की अभिव्यक्ति के कुंठित हो जाने पर, इच्छाओं को अवरुद्ध करने वाले मनुष्य अथवा परिस्थिति के प्रति अभ्याक्रामक क्रिया पैदा होती है। रोना, चीखना और संघर्ष, उसकी गतियों पर लगाए हुए प्रतिबंधों के विरूद्ध 'लड़ते हुए' बच्चे के विरोध-प्रदर्शन के चिह्न हैं। किशोरावस्था में होने वाले क्रोधपूर्ण मिजाज, निषेध-वृत्ति तथा तीव्र विद्रोह 'आत्मगौरव' की प्रेरणा-शक्ति को प्रकट करते हैं। ज्यों-ज्यों बालक बड़ा होता है. त्यों-त्यों वह प्रायः प्रतिबंध की आशंका में पहले आक्रमण करना, अग्रिम संघर्ष करना सीख जाता है। आक्रमणात्मक आचरण एक स्थायी आदत भी बन सकती है, जैसे कोई लड़का जरा-सा धक्का लगने पर लड़ने लगे।'


युयुत्सा की नैसर्गिक प्रवृत्ति का आरंभ संभवतया संघर्ष की अनुक्रियाओं से उत्पन्न होने वाले आक्रमण की आदत के साथ होता है। फिर जब मनुष्य पहले से ही उन लोगों, वस्तुओं या संस्थाओं को हटाने का प्रयत्न करता है, तो शायद उसके कार्य-कलापों पर शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक अथवा राजनीतिक रूप में किसी प्रकार का प्रतिबिम्ब लगाएं तो युयुत्सा अथवा अभ्याक्रामकता का विकास होता है। इस तरह की हालत में यह संभव है कि दंड अनुचित आचरण को रोकने के स्थान पर प्रत्याक्रमण को उत्तेजित करें।'


____ यही युयुत्सा-भाव अज्ञेय के इस अहंपूर्ण व्यक्तित्व में उद्घाटित हो रहा है, 'मेरे ही हृदय में कुछ ऐसा कठोर, ऐसा अस्पृश्य, ऐसा प्रतारणापूर्ण विकर्षण था... वह कठोर था, किन्तु सूक्ष्म, निराकार था, किन्तु अभेद्य... मेरे समीप आ कर भी कोई मुझसे अभिन्न नहीं हो सकता था। उस अज्ञेय तत्व पर किसी का कुछ प्रभाव नहीं पड़ता था... वह था क्या अहंकार? नहीं, वह था अपने बल का अदम्य अभिमान....कि मैं केवल पुरुष ही नहीं, केवल मानव नहीं, एक स्वतंत्र और सक्रिय शक्ति हूं।' ('चिन्ता', 'विश्वप्रिया-खंड' पृ. 69)। कवि की अग्रलिखित पंक्तियों में युयुत्सा-भाव की अनुगूंज वर्तमान है-लड़ना ही मेरा गौरव/मैं रण में विजयासक्त नहीं('चिन्ता' पृ. 52)


5. अहं और आत्माभिव्यक्ति : संपूर्ण छायावादी काव्य प्राचीन जीर्ण-शीर्ण मान्यताओं के विरुद्ध व्यक्ति का समष्टि निरपेक्ष हो कर किया गया उद्घोष हैउनकी इसी आत्मोन्मुखी प्रवृत्ति के ही परिणामस्वरूप उसमें निराशा, कुंठा, मृत्यु पूजा और युयुत्सा इत्यादि भावों का संदर्शन किया गया। अपने को पूर्ण रूप अभिव्यक्ति कर देने की छटपटाहट और कसमसाहट ही प्रत्येक छायावादी कवि की श्रृंगार-सामग्री रही है।


अज्ञेय ने 'चिन्ता' कविता-संग्रह में सनातन पुरुष की सर्वग्राही दृष्टि से अपना तादात्म्य कर लिया है और उसी के माध्यम से अपने विचारों को ज्ञापित किया है'मैं हजार बार अभिव्यक्ति का प्रयत्न करता हूं, किन्तु उसका फल मेरे भाव नहीं होते, उनमें 'मैं' नहीं होता। वे होते हैं केवल एक छाया मात्र, मेरे मन के भावों की प्रतिक्रिया मात्र.... मेरे भावों की तत्समता उनमें नहीं होती.... मैं कवि हूं, किन्तु मेरी प्रतिभा अभिशप्त है। संसार का चित्रण करने का सामर्थ्य रखते हुए भी मैं अपने को नहीं व्यक्त कर सकता ...।' (पृ. 25) आत्माभिव्यक्ति तो प्रथम सोपान है, जिसको पार करके स्वसीमित अणु 'अहम्मन्यता' के अस्पष्ट शिखरों की ओर आरोहण करते चले जाते हैं। उसी सरणी पर 'निराशा' की एकान्त कुटिया है और वहीं से युयुत्सा और मृत्यूपासना की ओर जाने की पगडंडियां है। मानव जो भी है, जहां भी है, उसे 'अप्राप्ति' की पीड़ा चैन नहीं लेने देती। वे अपने अभावों की पूर्ति के लिए सब कुछ कर गुजरने को कटिबद्ध हो जाते हैं। अज्ञेय ने इसे यों भी स्वीकार किया है, 'इतने काल से मैं जीवन की उस मधुर पूर्ति की खोज करता रहा हूं-जीवन का सौंदर्य, कविता, प्रेम... और अब मैंने पा लिया है... वह एक मृदुल, मधुर, स्निग्ध शीतलता की तरह मुझसे व्याप्त हो गई है किन्तु इस व्यापक शान्तिपूर्ण एकरूपता में मुझे उसे वस्तु की कमी का अनुभव हो रहा है, जिसने मेरी खोज को दिव्य बना दिया था-एक ही वस्तु, अप्राप्ति की पीड़ा...।' (चिंता पृ. 34-35)


अभाव की अभिचेतना दैन्य-भाव की जननी है। संसार के जिस प्राणी में यह भाव घर कर लेता है, उसे अहर्निश यही बात कचोटती रहती है कि अन्य प्राणी उसके सुख, दुख, हानि, लाभ की किंचितमात्र भी परवाह नहीं करते और वह भी केवल इसलिए कि वह स्वयं साधन-सम्पन्न नहीं है। ठीक ऐसी ही मनोदशा में अज्ञेय ने ये पंक्तियाँ लिखी होंगी - कहो कौन है जिसको है मेरी भी कुछ परवाह जिसके डर में मेरी कृतियाँ जगा सकें उत्साह ?


__अज्ञेय ने कहीं लिखा है, 'मैं ही हूं वह पदाक्रान्त रिरियाता कुत्ता' और इन शब्दों में भी उसका यही आत्मदैन्य और नैराश्य घुमड़ रहा है-विश्व-नगर की गलियों में खोए कुत्ते-सा/झंझा की प्रपत गति में उलझे पत्ते-सा/हटो आज इस घृणा-पात्र को जाने भी दो टूट/भव-बंधन से साभिमान ही पा लेने दो छूट! ('चिंता' पृ. 55)


उड़िया के कवि ज्ञानीन्द्र वर्मा ने भी अपनी कविता 'मूर्ति ओ मंदिर' में यही भाव भरा है - 'इस अंधकारमय नारकीय और हेय जीवन को विनष्ट होने दो' उनकी इस पंक्ति में भी नैराश्य दुबका बैठा है। चूड़ान्त चिन्ता-पुरुष श्री जैनेंद्र के 'सुनीता' उपन्यास में हरिप्रसन्न नामक पात्र स्वाभिमान का पुतला माना जाता है। उसी में कई बार एक दुर्दमनीय और अनिष्टकारी अहम का विस्फोट होता है। एक समय तो वह भी घोषणा कर देता है- 'मैं सब कुछ चाहता हूं... सब कुछ, मुझे चाहिए महोत्सर्ग।'


यहां अज्ञेय के काव्य के कुछ चुनिंदा पक्षों का अध्ययन करते हुए हमने देखा है कि उन पर जैनेन्द्र के विचारों का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है और उनका उपनाम 'अज्ञेय' रखने के अतिरिक्त वही उनके प्रमुख प्रेरणा-स्रोत भी रहे हैं। आत्म-दैन्य के गलियारे से ही अज्ञेय चिरन्तन पुरुष को सर्वग्रासी अहंता की ओर ले जाते हैं, जहां पहुंच कर वह रौद्ररस-मूर्ति फूट पड़ती है, 'मेरी तनी हुई शिराएं इससे कहीं अधिक मादक अनुभूति की इच्छुक हैं, मेरी चेतना को इससे कहीं अधिक अशान्तिमय उपद्रव की आवश्यकता है। बद्धि कहती है कि जीवन से उतना ही माँगना चाहिए जितना देने का उसमें सामर्थ्य हो। बुद्धि को कहने दो, मेरा विद्रोही मन इस क्षुद्र विचार को ठुकरा देता है, 'नहीं, यह पर्याप्त नहीं है.... इससे अधिक.... कहीं अधिक... सब।' श्री राजेश रेड्डी के इस शेर से अज्ञेय का भाव तुलनीय है, 'कभी तो लगता है जितना है, काफी है/और कभी लगता है और जरा-सा और।'


_ 'आत्मनेपद' नामक संस्मरणमूलक और जीवनीपरक पुस्तक में अज्ञेय ने अपने जीवन की कुछ झलकियां दे कर हमारा पथप्रदर्शन किया ही है। इसी प्रकार आपने अपने संस्मरणपरक ग्रन्थ 'एक बूंद सहसा उछली' में एक स्थान पर यह वक्तव्य दिया है, 'मैं दार्शनिक नहीं हूं।' दर्शन का विधिवत् अध्ययन भी मैंने नहीं किया है। मैं केवल लेखक हूं और मेरी दार्शनिक जिज्ञासाएं भी लेखक की ही जिज्ञासाएं हैं। मैं उस दुनिया को समझना चाहता हूं, जिसमें मैं रहता हूं और लिखता हूंजिससे कहानी-उपन्यास के पात्र पाता हूं, जिसमें उनके चरित्र बनते हैं, उनकी कर्मपद्धति प्रकट होती है और उनको प्रेरित करने वाली चिन्तन और भाव-प्रवृत्तियां रूप लेती हैं। जो सच है, वह मैं जानूं, इस शुद्ध दार्शनिक जिज्ञासा से मेरी जिज्ञासा भिन्न है, कि मैं जो लिखं वह सच हो। मैं मान लेता हैं कि वह जिज्ञासा शद्ध दार्शनिक जिज्ञासा से कुछ घटिया दर्जे की है।' (पुस्तक, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 5वां संस्करण सन् 2005, पृ. 55)।


___वास्तव में जिस प्रकार कहानीकार प्रेमचन्द (कहानियां कफन, पूस की रात, शतरंज के खिलाडी इत्यादि) और कवि नागार्जन ने (कविताएं और गीत 'आए दिन बहार के', 'गांधी जी के तीन बंदर', 'स्वदेशी शासक' और 'बस अंधकार हैसंकलन 'अपने खेत में' की अनेक कविताएं और 'अन्नपचीसी' के दोहे) में प्रायः एक 'विदूषक' अपनी सवारी बड़ी शान से गांठे हुए नजर आया करता है, ठीक उसी प्रकार अज्ञेय के कथा-साहित्य और काव्य में प्रायः उनके एक गंभीर 'दार्शनिक' का ही चिन्तनरत चेहरा रह-रह कर उझक जाया करता है। यही कारण है कि उनकी वैयक्तिकता और चिन्तनधारा की सर्वथा मौलिकता का लोहा तो उनके कट्टर आलोचक और निन्दक तक मानते रहे हैं। यही उनके सर्वातिशायी और दूसरों पर प्रभावी-हावी हो जाने वाले लेखकीय व्यक्तित्व और कृतित्व की ऐसी पार्थक्याश्रयी विशेषता ठहराई जा सकती है, जिसे देख-देखकर उनके समकालीन और पारवर्ती लेखकों को अधिकतर एक वटवृक्ष-कॉम्प्लेक्स' का ही शिकार होना पड़ता रहा है। स्वर्णजयन्ती के इस वर्ष के शुभ अवसर पर समूचे विश्व के लोगों की ओर से ऐसे अद्वितीय और कालजीवी रचनाकार को शत-शत नमन।