वरिष्ठजन आज के परिप्रेक्ष्य में - दूसरी किश्त

वरिष्ठ नागरिकों को लेकर पिछले अंक में चर्चा हुई। उसमें उनसे जुड़ी समस्याओं के कुछ पक्षों पर समग्रता से विचार विमर्श किया गया। यह यक्ष प्रश्न अभी भी बरकरार है कि किसी भी विकसित देश की यही नियति है कि जो अपने जीवन में पूर्ण निष्ठा से इस दिशा में अग्रसर रहे, अब वे उम्र बढ़ने के साथ-साथ अप्रासंगिक हो गये हैं या यह उस दृष्टिकोण का प्रतिफल है जो पूर्व से विकसित पश्चिमी देश हैं जहां कि सभ्यता, संस्कृति व पारंपरिक जीवन शैली हमारे यहां भिन्न हैं परन्तु विकास के साथ-साथ उनकी नीतियां ही नहीं बल्कि उनका समग्र परिवेश धीरे-धीरे विकासशील देशों को जकड़ रहा है, बहरहाल हमारे देश की एक विशेषता अवश्य है कि हमारी जड़ें अभी भी आत्यधिक सुदृढ़ हैं जो हमें किसी आंधी-तूफान से क्षणिक रूप से या कुछ समय के लिए हिला तो देती हैं परन्तु उखाड़ नहीं फेंक पातीं और फिर हम पुनः पूर्वास्था में आ जाते हैं पर साथ ही यह सोचकर निश्चिन्त नहीं हुआ जा सकता बल्कि समय-समय पर ठोस प्रयास अवश्य निरंतर करते रहना होंगे जिससे कोई भी दुष्प्रभाव बढ़े नहीं अपितु कम ही हों।


 वरिष्ठ नागरिकों की ओर सरकार, गैरसरकारी संगठन और कुछ व्यक्ति समूहों ने भी ध्यान केन्द्रित किया है और इस ओर प्रयासरत हैं कि वरिष्ठ नागरिक, बुजुर्ग और वृद्धों के लिए उचित सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक वातावरण मिले। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में बुजुर्गों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है और अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक यह कुल आबादी का बीस प्रतिशत तक हो सकती हैऔसत आयु में वृद्धि होने के साथ-साथ यदि बुजुर्गो की आयु के अनुसार उनकी क्रियाशीलता को आधार माना जावे तो 60 वर्ष के पश्चात् अवश्य व्यक्ति वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में आ जाता है परन्तु आज भी ऐसे कई रचनाकार वराजनैतिक हैं जो सजगता से कार्य कर रहे हैं, वे 75 वर्ष से भी अधिक हैं और अपना अमृत महोत्सव धूमधाम से मनाते हैं और कार्यरत हैं। कुछ इसे दूसरी पारी भी परिभाषित कर रहे हैं। 'प्रेरणा' भी एक अंक 'पचहत्तर पार, सुजनरत रचनाकारपर केन्द्रित कर निकालने का प्रयास कर रही है। यह उनके प्रति प्रेरणा' का छोटा सा सम्मान और उनसे 'प्रेरणा' लेने का प्रयास होगा। परिभाषित करने हेतु 60 वर्ष 80 वर्ष तक आयु वर्ग को वरिष्ठ नागरिक और उसके अधिक उम्र वालों को बुजुर्ग की श्रेणी में रखा जा सकता है। पर यह भी उतना ही सत्य है कि इस तरह क्रियाशील नागरिकों का प्रतिशत बहुत अधिक नहीं है, क्योंकि आयु के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तन तो आते ही हैं जिनसे बचाव लिए समग्र प्रयत्न आवश्यक हैं जिस ओर सरकारों को विशेष ध्यान देना होगा क्योंकि मात्र कानून का प्रावधान करने से ही स्थितियां नहीं बदलतीं, उनके लिए सामाजिक चेतना और जागृति भी उतनी ही अनिवार्य है जिससे मूल कारणों का समाधान होता रहे।


केन्द्र सरकार ने बुजुर्गों के संरक्षण के लिए एक कानून 'वरिष्ठ नागरिक अधिनियम 2007' का प्रावधान किया है परन्तु उसकी नियति यही है कि वह अभी तक पूर्णता से प्रभावशील नहीं हो सका है और अधिकांश नागरिकों को उसकी जानकारी भी नहीं है पर उसका बिल्कुल भी प्रभाव न पड़ा हो, ऐसा नहीं है। यदा कदा उससे संबंधित छिटपुट प्रकरण सुनाई दे जाते हैं जिससे वातावरण तो निर्मित होता ही है। वरिष्ठ नागरिक अधिनियम केन्द्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की ओर से लागू किया गया है जिसमें माता-पिता के रखरखाव का प्रमुख दायित्व उनके बच्चों, पोते-पोतियों उनके रिश्तेदारों का देता है जो संभवतः वरिष्ठ नागरिकों की सम्पत्ति का अधिग्रहण करेंगे। कानून के अन्तर्गत माता-पिता की सही देखभाल न करने या फिर उन्हें बेसहारा छोड़ देने के फलस्वरूप बच्चों को 3 माह की कैद या 5000/- का जुर्माना अथवा दोनों का दण्ड दिया जा सकता है। साथ ही उन्हें सम्पत्ति से भी वंचित किया जा सकता है। इस प्रकार के प्रकरणों में वरिष्ठ नागरिकों को बच्चों की ओर से प्रति माह अधिकतम 10,000/- राशि का मासिक रखरखाव भत्ता देने का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त इस कानून में संतान पर मातापिता की देखभाल की वैधानिक जिम्मेदारी डाली गई तथा बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रमों की स्थापना का प्रावधान किया गया है।


 बुजुर्गों की समस्याओं को लेकर 'हेल्प एज इंडिया' समय-समय पर सर्वेक्षण करता है। ताजा सर्वेक्षण के अनुसार 31 प्रतिशत सताए जा रहे बुजुर्गों में 75 प्रतिशतपरिवार के साथ रहते हैं। 80 प्रतिशत बुजुर्गों का मानना है कि मुश्किलों की वजह दोनों पीढ़ियों में एडजस्टमेंट न होना है। 55 प्रतिशत बुजुर्ग अपने साथ होने वाले अत्याचार की शिकायत किसी से नहीं करते। 80 प्रतिशत मामलों में ऐसा परिवार की इज्जत बचाए रखने के लिए किया जाता है। 62 प्रतिशत का मानना है कि बच्चों को अवेयर कर सेंसिटिव बनाया जाय तो मुश्किलें आसान हो जाती हैं। बुजुर्गों पर अत्याचार के लिहाज से देश के 24 शहरों में तमिलनाड़ के मदुराई में सबसे अधिक 63 प्रतिशत तथा इसके बाद उत्तरप्रदेश के कानपुर में 60 प्रतिशत अत्याचार का शिकार होते हैं। इसमें सबसे चौकाने वाली बात यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों से अधिक शहरी क्षेत्रों में माँ-बाप पर अत्याचार करने वाले पाये गये।


यू.एन.पी.एफ. के एक आकलन के अनुसार देश के ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में लगभग 20 प्रतिशत बुजुर्ग अकेले या सिर्फ अपने जीवन साथी के साथ रहते पाये गये।


उपरोक्त सर्वेक्षण परिणाम चौंकाने वाले हैं पर वास्तविकता को नकारा भी नहीं जा सकता। देश में वृद्धश्रमों की संख्या बढ़ती ही जा रही है जिसमें निराश्रित व बेसहारा बुजुर्गों की संख्या अधिक है। यह भौतिक दृष्टि से अच्छा उपाय है कि निराश्रित. बेसहारा बजर्गों को रहने का ठिकाना मिल जाता है. उनकी न्यनतम आवश्यकताओं की पूर्ति कमोबेश हो जाती होगी पर भावनात्मक दृष्टि से जितना वे टूट चुके होते हैं, ऐसी स्थिति में बस जीवन ढोने जैसा ही रह जाता है, जिये जाते हैं कुछ इस आशा के सहारे भी कि सांस है तो आस है और आस यही रहती है कि अपनों के बीच शायद हो पायें, एक सपना पलता रहता है जागी आँखों का सपना।


यदि सामाजिक जागरूकता व संतुलन फिर से पूर्व के वर्षों की तरह होगा तो ये समस्याएं उत्पन्न होंगी ही नहीं। हाँ, जहां बच्चों की विवशता है कि वे अपनी नौकरी के चलते अपने माँ-बाप के साथ नहीं रह सकते या माँ-बॉप सालों साल बिताए गये निवास को छोड़ना नहीं चाहते तो उनके लिए वरिष्ठ नागरिक कॉलोनी बनाई जाए जहां बुजुर्गों से संबंधित मूलभूत व प्राथमिक आवश्यकताएं पूर्ति के साधन हों और बच्चे जितना शीघ्र हो सके, माँ-बाप के पास आते रहें व माँ-बाप को भी कुछ समय के लिए उनकी इच्छानुसार बुलाते रहें।


वर्तमान में भारत में आबादी का लगभग दस प्रतिशत वरिष्ठ नागरिकों की आबादी है जो अगले दस वर्षों में 17 करोड़ से भी अधिक होने का अनुमान हैअमूमन माना जाता है कि प्रतिदिन लगभग 17 हजार लोग 60 वर्ष के हो जाते हैंइंदिरागांधी राष्ट्रीय वृद्धाश्रम पेंशन योजना के अर्न्तगत बुजुर्गों को 200/- अब शायद 400/- मिलते हैं जिसमें राज्यों की जिम्मेवारी भी सम्मिलित है क्या इसमें जीवनयापन, रहना, खाना, दैनंदिन की आवश्यकताएं बीमारी आदि का व्यय उठाया जा सकता है। यह पेंशन भी अपवाद स्वरूप नागरिको को कई औपचारिकताएं पूर्ण करने पर मिल पाती है। बुजुर्गों पर होने वाला व्यय एक आकलन के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी) का मात्र 0.032% है। जब हमारा संविधान समान नागरिक अधिकार का पक्षधर है, ऐसे में यह वरिष्ठ नागरिकों के साथ अन्याय कहा जा सकता है। अतः इस पर विचार करना आवश्यक है कि इस राशि में पर्याप्त वृद्धि की जाये जिसमें वरिष्ठ नागरिकों की सुरक्षा व उचित देखभाल का प्रावधान हो जो जी डी पी का न्यूनतम एक प्रतिशत से अधिक हो। इसके साथ ही सरकार को यह भी ध्यान देना होगा कि यह बीमारी हो जाने के बाद के उपचार की तरह है अतः क्यों न जिस तरह किसी भी महामारी का संक्रमण फैलने से पहले उसके बचाव की तैयारी युद्धस्तर पर करते हैं, विभिन्न साधनों से जागरूकता बढ़ाते हैं, इसको भी बढ़ने से रोकें कि वरिष्ठ नागरिकों की समस्याएं उत्पन्न ही न हों और वे सम्मान के साथ जी सके, उन्हें आवश्यक सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक वातावरण मिले। इसके लिए हमारी शिक्षा पद्धति में भी आवश्यक पहल की जाय, पारिवारिक वातावरण में संतुलन बनाने हेतु जागरूकता बढ़ाई जावे क्योंकि अभी स्थिति इतनी विकराल नहीं है कि नियंत्रण से बाहर हो पर आरंभ तो है कि और कई नागरिकों के साथ अति भी है पर हमारी जड़ें मतबूत हैं यदि उन्हें वही ढंग से पोषित किया जाय तो इस तरह की समस्याएं उत्पन्न ही नहीं होगी।


हालांकि विषय और उसके समाधान अंतहीन से लगते हैं।


प्रेरणा को सहयोग करने वाले सभी रचनाकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए यही अपेक्षा है कि वे अपना सहयोग बनाए रखेंगे और जिनसे सहयोग नहीं मिला है, वे भी सहयोग करेंगे। कुछ प्राप्त और आमंत्रित रचनाएं इस अंक में नहीं जा सकीं, उनसे क्षमायाचना।