वरिष्ठजन आज के परिप्रेक्ष्य में - पहली किश्त

 


 


प्रकृति अपने नियमों से संचालित होती है जिसके अनुसार नियति का चक्र अपनी गति से चलता उत्पत्ति होती है, एक सीमा तक उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है फिर धीरे-धीरे ह्रास होने लगता है और नियम सभी प्राण प्राणियों, पशु पक्षियों, पेड़ पौधों और मनुष्य पर लागू होता है, कारण भले ही अलग अलग बॉटनीकल, एग्रीकल्चर या अन्य कोई और भी हो सकते हैं पर जिसका आरंभ है, उसका अंत अवश्यम्भावी होता है तो अस्त भी होता है, दोपहर तक अपने प्रबल वेग और तीव्रता से आता है, उसके पश्चात तीब्रता अवस्था में आकर विलुप्त हो जाता है। शायद यहीं प्रकृति को चुनौती नहीं दी जा सकी है।


इसीलिए पूर्व में मनुष्य जीवन को चार चरणों में विभक्त किया गया था, जिन्हें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम से जाना जाता था। ये शायद मानव शरीर की संरचना को ध्यान में रखकर ही बनाये गये होंगे और शायद उस समय इसका पालन भी होता हो। परंतु यह व्यवस्था समयकाल और परिस्थियों के अनुसार समाप्त हो गई। मनुष्य के जीवन और संरचना को लेकर विभिन्न प्रकार के शोध और प्रयोग होते रहे हैं, उनसे कुछ उपलब्धियां भी प्राप्त हुई हैं, जागरूकता में भी वृद्धि हुई है। शारीरिक स्वास्थय और आयु में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है हालांकि साठा सो पाठा, यह कहावत बहुत समय से प्रचलित है।


पीढ़ी अंतराल सदा से ही रहा है, इसका स्वरूप समय के अनुसार परिवर्तित होता रहा है। विभिन्न प्रकार के दबावों ने सामाजिक परिवेश और जीवन शैली तथा मूल्यों को प्रभावित किया है जो अस्वाभाविक नहीं है परंतु पिछले कुछ समय से अपने देश में जब से भूमंडलीकरण, उदारवाद और बाजारवाद का प्रभाव बढ़ा है। परिवर्तन गुणात्मक रूप से देखने को मिले हैं, आवश्यकताओं, महत्वाकांक्षाओं का अंतहीन सिलसिला धीरे-धीरे मनुष्य के जीवन में प्रवेश कर हावी हो गया है जिससे उसकी लालसा भतपर्व वद्धि के साथ-साथ जीवन शैली और सदियों से चल रहे जीवन दर्शन और परंपराओं को सुविधा अनुसार तोड़मरोड़कर अपनाने पर विवश किया है, यह अनायास नहीं है, हर विकासशील देश में अच्छाइयों और प्रगति, उन्नति के साथ-साथ उसके दुष्परिणाम भी साथ-साथ आते हैं, जिसको प्रभावरहित करने में वहां का जनमानस जितना सक्ष्म होता है, वहां की मान्यताएं परंपराएं और संस्कृति उसी अनुसार प्रभावित होती हैं।


भारतीय परिवारों में पहले संयुक्त परिवार का प्रचलन था और यह उस समय की आवश्यकताओं के अनुरूप था। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि ही एक मात्र जीवन यापन का साधन था जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाया जाता था। परिवार में वृद्धि होती रहती थी और सभी उसी में समायोजित होते रहते थे। व्यवसाय में भी इसी तरह परिवार के समस्त सदस्य परंपरागत व्यवसाय में सम्मिलित होकर जीवन यापन करते थे। नौकरीपेशा वर्ग अवश्य इससे प्रभावित होता था पर उनका भी प्रय अगली पीढ़ी भी वहीं नौकरी करे और साथ-साथ रहे। हालांकि युवा पीढ़ी में वरिष्ठ पीढ़ी के प्रति अवज्ञा या अवहेलना नहीं थी। उनके जीवन आदर्श मानने के लिए बाध्य करने पर एक कसमसाहट अवश्य ही थी परंतु यह सोचकर कि यह तो अपनाना ही है, मानना है, न चाहते हुए भी एक स्वीकार्यता थी जो धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। यहीं से आरंभ होता है दूरियों के बढ़ने का और फिर धीरे-धीरे यही मोहभंग करा देता है और कर्तव्यों के प्रति भी उदासीनता बरतने का कारण बनता है । वरिष्ठ पीढ़ी जहां अपने अनुभवों के आधार पर वर्तमान जीवन के लिए भी अपना वही दृष्टिकोण अपनाने पर जोर देती है वहीं नई पीढ़ी उसे अपने ढंग से जीना चाहती है, कहीं-कहीं टकराहट का प्रमुख कारण यह भी होता है और यह किन्हीं-किन्हीं में तो कडुवाहट में परिवर्तन हो जाता है। इसका विकल्प यह भी हो सकता है कि वरिष्ठ पीढ़ी संक्षेप में किसी भी समस्या पर अपने अनुभव के आधार पर अपना दृष्टिकोण, प्रस्तुत करें व नई पीढ़ी अपने अनुसार अपना दृष्टिकोण, दोनों पर संवाद करने से निश्चित ही सर्वमान्य हल निकल सकता है बशर्ते दोनो अपने-अपने दृष्टिकोण पर अडिग न रहे व उसमें लचीला रुख अपनाकर समन्वय स्थापित करेंबल्कि कई मामलों में तो वरिष्ठ पीढ़ी को किसी भी कार्य के लिए नई पीढ़ी को रोकने के बजाय उसके समस्त पक्ष बताकर उसे करने को प्रेरित करना चाहिए। नई पीढ़ी स्वयं जब वह कार्य करेगी तो उसके समस्त पक्ष उसके सामने आ जाएंगे और उस समय यदि वह सोचेगी कि वरिष्ठ पीढ़ी का पक्ष अधिक सटीक था तो वह प्रभावित होने के साथ-साथ उचित सम्मान भी प्रदर्शित करेगी। नई पीढ़ी भी वरिष्ठ पीढ़ी के दृष्टिकोण को एकदम नकारे नहीं, उस पर विचार करने का आश्वासन ही न दे वरन उस पर विचार करे और यदि वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार वह उपयोगी है तो माने अन्यथा विनम्र शब्दों में उसकी अनुपयोगिता के बारे में वरिष्ठ पीढ़ी को सहमत करा दे।


जागरूकता बढ़ने के साथ-साथ शिक्षा का प्रसार भी तीव्र गति से हुआ। हर अभिभावक अपने बच्चों को उच्च से उच्चतम शिक्षा दिलाने पर जोर देने लगा। शासन की शिक्षा ऋण प्रणाली भी इसमें अत्यधिक मददगार साबित हुई। शिक्षा के साथ-साथ युवा पीढ़ी में महत्वाकांक्षा का स्वरूप भी परिवर्तितत हुआ और वे उसे पूरा करने के लिए कहीं भी देश में या विदेश में अच्छे कॅरियर की तलाश में अच्छी नौकरी पर जाने के लिए तत्पर हो गये। संयुक्त परिवार के विघटन का एक कारण यह भी बना। कई बा युवापीढी की शिक्षा के अन थी अत: बाहर जाना उनकी विवशता थी। ग्रामीण क्षेत्रों और व्यवसायियों की युवापीढ़ी भी इससे अछूती नहीं रही। परंतु इन परिस्थितिजन्य स्थितियों के कारण किसी भी पीढ़ी को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि समय के अनुरूप चलना भी आवश्यक है। एकल परिवार और अब न्यूकिलियर परिवार प्रचलन में आने का एक प्रमुख कारण यह भी कहा जा सकता है।


संयुक्त परिवार के विघटन के फलस्वरूप वरिष्ठ नागरिकों में अकेलेपन की समस्या प्रमुखता से उबर रही है, यहां पर उनका युवा पीढ़ी से टकराव भी नहीं है, पर्याप्त समन्वय है परंतु वे अपना पैतृक स्थान छोड़कर उनके साथ जाना नहीं चाहते और युवा पीढ़ी अपनी नौकरी के कारण वहां रह नहीं सकती। ऐसे में वरिष्ठ नागरिक अकेले रहते हैं और यही अकेलापन उन पर धीरे-धीरे हावी होने लगता है जो डिप्रेशन का कारण बनता है। परंतु कुछ चुनौती मानकर इसका जीवटता से सामना करते हैं। यहां पर उनकी मन: स्थिति सुदृढ़ होना आवश्यक है, यही नहीं सोचें कि यह तो जिंदगी के पड़ाव का चौथापन एवं अंतिम समय है। यदि ये सोच होने लगता तो ऊबने लगते हैं। नैराश्यभाव और चिड़चिड़ापन बढ़ने लगता है। 'सुबह होती है, शाम होती है, उम्र यों ही तमाम होती है।' यह सोचकर वे असाध्य बीमारियों से ग्रसित हो जाते हैं । यही पर उनको टूटना नहीं बल्कि अपना जीवन नये सिरे से जीने की आवश्यकता है। एक लक्ष्य निर्धारित कर उसे पाने में जुट जाना है, देखें फिर पूर्ववर्ती जीवन से अधिक ऊर्जा प्राप्त होती है क्योंकि एक बार फिर प्रतिपादिता सिद्ध करने की उमंग होती है, उत्साह का संचार होता है और मन, मस्तिष्क और शरीर प्रफुल्लित होकर व्याधियों से जूझने को प्रेरित करते हुए स्वस्थ रखता है। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां 80 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्तियों ने भी अपने आप को सिद्ध किया है और अपने लक्ष्य प्राप्ति में जुटे रहे। न्यूटन से जब अंतिम सम आपकी आखिरी इच्छा क्या है तो उनका उत्तर था कि कछ वर्ष और जीता तो कछ और सीख पाता। यह उनकी जिजीविषा ही थी जो उन्हें और अधिक सार्थक जीवन जीने को प्रेरित कर रही थी। आजकल तो 63 वर्ष के व्यक्ति भी देश के शीर्षस्थ पद पर सफलतापूर्वक कार्य करते हुए युवा कहलाते हैं तो कुछ ने तो 75-80 वर्ष तक सफलतापूर्वक कार्य किया। कुछ रचनाकार, कलाकार तो 90 वर्ष या अधिकतम सृजनरत रहे हैं या हैं अतः कितना सही है कि 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत' तो बस अब सब वरिष्ठ जन प्रण करें कि वे नकारात्मकता से बचेंगें और सकारात्मक सोच लेकर स्वयं, परिवार और समाज को कुछ देंगें। हालांकि उनको आर्थिक एवं भावनात्मक सम्बल मिलना भी बहुत आवश्यक है।


कुछ वरिष्ठ नागरिकों के समक्ष अवश्य यह समस्या है कि किन्हीं न किन्हीं कारणों से अपने बच्चों पर आश्रित हैं व उनके साथ रहने को विवश हैं और यहीं पर दोनों पीढियों ने धैर्य, सहनशीलता और समझदारी से परिसि कलह के कारण बनते हैं। पुरानी पीढ़ी को जहां अपनी उपेक्षा का बोध होता है वहीं नयी पीढ़ी को हस्तक्षेप, और चाहे, अनचाहे प्रतिबंधों का। स्थितियां वहां और असमान्य हो जाती हैं जहां मां या पिता में से एक का निधन हो गया हो और एक अकेला ही हो, ऐसे में वे अकेलेपन, कुंठा से ग्रसित होने लगते हैं और कुछ परिवार तो सामाजिक या रिश्तेदारों के भय से ऐसे ही जीते रहते हैं और जहां से भय समाप्त हो जाते हैं या नहीं होते हैं, पुरानी पीढ़ी को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है या वृद्धाश्रम में छोड़ दिया जाता है। ये उनके साथ अधिक होता है जिनके पास अपनी कोई संपत्ति नहीं है अथवा जीने का साधन नहीं है पर क्या यही अंतिम परिणिती है, विकल्प है। सरकार ने इसके लिए वृद्धावस्था कानून बनाया है जिसके समस्तपहलुओं पर आगामी अंक की 'अपनी बात' में चर्चा होगी।


कहीं कहीं एक और समस्या वरिष्ठ नागरिकों में देखने में आती है जहां पति पत्नी के आपसी अहं टकराव के कारण विसंगतियां उत्पन्न हो जाती हैं। जहां एक पक्ष समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाता है तथा समझदारी दिखाता है वहां स्थितियां सुधर जाती हैं अन्यथा अनचाही शारीरिक, मानसिक, बीमारियां, शारीरिक विकार जिनका कभी-कभी या चरम पर जाकर आत्महत्या में पटाक्षेप होता है। जीवन कितना सहज है यदि सरलता से जिया जाय और कितना कठिन है यदि जरा सी असावधानी हो जाये। सब कुछ स्वयं ही तय करना होता है।


ज्ञात हो कि अंग्रेजों ने दिल्ली में पार्लियामेंट हाऊस (स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व असेम्बली हाल) के निर्माण उपरांत प्रवेश द्वार पर अंदर की छत पर एक श्लोक लिखवाया था जिसकी कुछ पंक्तियां 'न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः/ वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम...? अर्थात युवाओं में यदि ऊर्जा का समन्दर लहरा रहा तो वृद्धों के पास अनुभवों का हिमालय है। दोनों की अपनी-अपनी उपयोगिता है। प्राचीन ग्रंथ 'ऋग्वेद' में धरती को माता और आकाश को पिता बताया है। 'महाभारत' में भी यक्ष के एक प्रश्न 'पृथ्वी से भारी और आकाश से ऊँचा क्या है' के उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा था कि 'माता पृथ्वी से बड़ी है और पिता आकाश से ऊँचा है।''भगवान बुद्ध ने भी वैशाली गणराज्य की उन्नत व्यवस्था की प्रासंगकिता देखते हुए उनके सात सूत्रों को अपने धर्म संघ की समुचित व्यवस्था के लिए अपनाया था जिनमें एक था 'वृद्धों का सम्मान-सत्कार करना तथा उनकी बातों पर ध्यान देना।' हिंदी साहित्य में तो प्रायः सभी रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में बुजुर्ग समस्याओं दाम्पत्य जीवन आदि को किसी न किसी रूप में उठाया है, कहानियों में प्रेमचंद, विश्वंभरनाथ कौशिक, यशपाल, अमृतलाल नागर, नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेण, अमरकांत, शिवप्रसाद सिंह, मार्कण्डेय, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, भीष्म साहनी, भैरवप्रसाद गुप्त, मोहन राकेश, शानी, निर्मल वर्मा, हृदयेश, से.रा. यात्री, मधुकरसिंह, शेखर जोशी, जवाहरसिंह, ज्ञानरंजन, काशीनाथसिंह, सतीश जमाली, मिथिलेश्वर, मन्नूभंडारी, उषा प्रियंवदा, शैलेश मटियानी, मार्कण्डेय, धर्मवीर भारती, कृष्णा सोबती, श्रीलाल, शुक्ल, राजीसेठ, गोविंद मिश्र, गिरिराज किशोर, चित्रा मुदगल, सूर्यबाला, उदयप्रकाश, मुकेश वर्मा, संतोष चौबे, ए. असफल, दिनेशचंद झा, शिवनारायाण, सिद्धेश, रंजना श्रीवास्तव,राजेन्द्र परदेसी, जयंत, कुमार शर्मा अनिल, सुशांत सुप्रिय, मदनमोहन, उपेन्द्र, प्रद्युम्न भल्ला, राकेश भ्रमर, विजय कुमार सपत्ति, शरदसिंह, निरूपमाराय, रीता सिन्हा, राजनारायण, राधेश्याम तिवारी, कलानाथ मिश्र, भगवतीशरण मिश्र, जगदीश नारायण चौबे आदि।


 कविताओं में कबीर, जायसी, तुलसीदास, सुमित्रानंदन पंत, बच्चन, दिनकर, नागार्जुन, मुक्ति बोध, भवानीप्रसाद मिश्ररघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, केदारनाथ अग्रवाल, लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, अरूण कमलविष्णुनागर, विनोद भारद्वाज अष्टभुजा शुक्ल, मंगलेश डबराल, ज्ञानेन्द्रपति, शिवनारायण, शरद कोकास, राधेश्याम तिवारीनिविड़ शिवपुत्र, मदनकश्यप, इति माधवी, विनोद कुमार श्रीवास्तव, रमेश प्रजापति, ब्रजकिशोर वर्मा, सूरजप्रसाद राठोरमहावीर राजी, सुरेश सेन, निशांत, वर्षासिंह, राधेश्याम बंधु, परेश सिन्हा, कृष्णेश्वर डींगर, षण्मुखन, अर्पण कुमार, भवनाथ मिश्र, बलराम गुमास्ता, उद्धांत, प्रेमशंकर रघुवंशी राजेन्द्र उपाध्याय, शरदसिंह, अभिज्ञात, भरत प्रसाद, शैलेन्द्र, महेन्द्रगगन, अरविंद अवस्थी, कुशेश्वर, चंद्रसेन विराट, ओमप्रकाश मिश्र, सुवंश ठाकुर, शिवसिंह पतंग, रमेश कुमार त्रिपाठी, परशुराम विरही, राकेश भ्रमर, रासबिहारी पाण्डेय, शकुत, पंकज पटेरिया, विवेक सत्यांशु, उषा प्रारब्ध, आशा शैली, मोतीलाल जैनमाया दुबे, सुषमा भंडारी, बालकृष्ण काबरा, रजत कृष्ण, भास्कर चौधरी, कमलेश्वर साहू, घनश्याम त्रिपाठी, बसंत त्रिपाठी, विजय राठौर, राधेलाल बिजघावने, सुनील कुमार पारीट आदि। इसके अतिरिक्त लघुकथा एवं आलेख भी कई महत्वूर्ण हस्ताक्षरों द्वारा लिखे गये हैं। ऊपर समस्त रचनाकारों का उल्लेख नहीं हो सका है, अन्यथा न लें, अन्य रचनाकारों के बारे में भी जानकारी दे सकें सुविधा होगी


__इतने सारे रचनाकरों द्वारा कई महत्वपूर्ण रचनाएं लिखे जाने के पश्चात भी समाज में वरिष्ठजन की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। सरकार द्वारा भी कानून बनाकर प्रयास किया गया है इससे थोड़ी जागरूकता तो आई है परंतु इससे समस्या का हल नहीं हो पायेगा जब तक कि सामाजिक चेतना न लाइ जायेजिस तरह 'स्त्री विमर्श' के रूप में विमर्श, बहस, चर्चाएं आदि की जा रही हैं, उसी तरह 'वरिष्ठ जन विमर्श' को भी मुख्यधारा में लाया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त शिक्षा के क्षेत्र में भी बिल्कुल प्रारंभिक स्तर से पाठ्यक्रम में भारतीय परंपराओं, मान्यताओं, संस्कृति को वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में सम्मिलित किया जाना चाहिए जिससे हमारे समाज में घट रही सहिष्णुता जो इस देश की पहचान है सुदृढ़ हो सके तथा सामाजिक बुराइयों, कुरीतियों, विकृतियों पर अंकुश लग सके और पाश्चत्य देश भी जिन विकृतियों आदि से निजात पाना चाह रहे हैं वे अपने देश में फैल न सकें। हालांकि संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 1999 को 'वृद्धावस्था वर्ष', एक अक्टूबर को 'वृद्ध दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय लिया था। इससे अवश्य ही वरिष्ठजनों की समस्याओं के बारे में जागरूकता तो बढ़ी है। सरकार द्वारा भी 1999 में एक राष्ट्रीय नीति की घोषणा की गई थी तथा 2007 में कानून भी बना। कानून में प्रत्येक शहर में वृद्धाश्रम खोलने का प्रावधान किया गया है। 2007 से अभी तक, कितने खुले हैं और उनकी स्थिति क्या है, केंद्र सरकार अथवा राज्य सरकार के आंकड़े प्राप्त नहीं हुए हैं। वृद्धाश्रम के अतिरिक्त सरकार को प्रत्येक शहर में वरिष्ठजन कालोनी के प्रावधान की दिशा में भी कदम उठाना चाहिए जहां पर हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध हों, भले ही वे भुगतान आधार पर हों, इस कॉलोनी में सभी वरिष्ठन जन साथ रहकर अपने अनुभव, दुख-सुख साझा कर सकेंगे तथा नई-नई गतिविधियों से नि:संकोच परिचित हो सकेंगे एवं आत्मविश्वास बनाये रख सकेंगे।


जागरूकता की दिशा में रचनाकारों, कलाकारों, पत्रकारों, समाजसेवियों, बुद्धिजीवियों, समाजसेवी संस्थाओं को महती भूमिका निभाना होगी, युवाओं को भी आगे आना होगा क्योंकि उम्र तो सभी की बढ़ना है जो वापस नहीं होती क्योंकि 'जाके न आए वो जवानी देखी, आके न जाये वो बुढ़ापा देखा' और बुढ़ापा आने के बाद ही व्यक्ति जब अपने विगत की ओर देखता है तो उसे अपने जीवन में की गई जानी अनजानी गल्तियों का आभास होता है परंतु अब क्या हो सकता है ? अतः युवावस्था में ही यदि गल्तियां न होने का ध्यान रखा जाय तो स्थितियां काफी सीमा तक बिगड़ने से बच सकती हैं। विषय इतना गंभीर है और झाकझोरने वाला है कि जितना भी मंथन किया जाय, कम है अतः फिलहाल यहीं विराम । अन्य पहलुओं पर चर्चा अगले अंक में भी।


प्रेरणा को सहयोग करने वाले सभी रचनाकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए यही अपेक्षा है कि वे अपना सहयोग बनाए रखेंगे और जिनसे सहयोग नहीं मिला है, वे भी सहयोग करेंगे। कुछ प्राप्त और आमंत्रित रचनाएं इस अंक में नहीं जा सकीं, उनसे क्षमायाचना।


पिछले अंकों को लेकर विभिन्न क्षेत्रों से पत्र प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं। उन सभी का प्रेरणा आभार प्रकट करती है जिन्होंने अपने महत्वपूर्ण समय में से समय निकालकर प्रेरणा को मनोयोग से पढ़ा तथा उस पर टिप्पणी लिखकर पत्र भेजे । भविष्य में भी पत्र, प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा है। पत्रों से प्रेरणा को सम्बल तो प्राप्त होता ही है, नये विचार,ठोस मुद्दे भी सामने आते हैं जिनका स्वागत है।