आनंद की अनुभूति

समूचे विश्व में आनंद की खोज हो रही है। कितना आश्चर्यजनक है कि जो मनुष्य के अंदर है उसके लिए संसाधन खोजे जा रहे हैं और बनाए जा रहे हैं। शायद यह समयचक्र के साथ-साथ तेजी से परिवर्तित हो रही परिस्थिति की देन है क्योंकि मनुष्य की जीवनशैली बदली है, मूल्य बदले हैं, संयुक्त परिवार का विघटन होकर एकल परिवार और न्यूकिलियर परिवार का समय आता चला जा रहा है। पूर्व में सामान्य ढंग से बच्चे उसी परिवेश में अपने को ढाल लेते थे जो जीवनपर्यंत उन्हें हर प्रकार की समस्या से बचने और जूझने की प्रेरणा देता था क्योंकि वही सब तो वे बचपन से देखते आ रहे होते थे पर समय परिवर्तनशील है वो जो आज घट रहा है उससे मनुष्य दुविधाग्रस्त और बेचैन हो रहा है जिससे वो आनंद की अनुभूति को महसूस ही नहीं कर पा रहा है। आर्थिक उदारीकरण, भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने सभी मूल्य बदल दिये हैं, मनुष्य तनावग्रस्त हो रहा है, कोई समस्या न भी हो तो तनाव में रहने की आदत हो रही है जिसका प्रभाव उसके परिवार और आसपास के वातावरण को प्रभावित कर रहा है। ऐसे में आनंद महसूस करना दुष्कर होता जा रहा है क्योंकि संवेदनाएं समाप्त होती जा रहीं हैं, मनुष्य व्यवहारिक होता जा रहा है इसलिये रिश्ते भी मार्केटिंग के आधार पर बनाए जाने लगे हैं।


 जहां तक आनंद की बात है, वह महसूस किया जा सकता है, न बेचा जा सकता है, न क्रय किया जा सकता है, और न जबरदस्ती महसूस कराया जा सकता हैइसके लिए आवश्यकता है कि मनुष्य की मानसिकता वैसी हो जिसमें सकारात्मकता हो, स्वार्थ एक सीमा से अधिक न हो, एक-दूसरे के प्रति समर्पण की भावना हो और ये सब सत्त प्रयत्न करने पर ही हो सकेगा क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के आनंद महसूसने के अलग-अलग टूल्स और साधन हैं इसलिये यक्ष प्रश्न यहां उत्पन्न हो जाता है कि क्या इसमें एकरूपता लाई जा सकेगी? इस पर काफी कार्य हो रहा है, इसको मापने के लिए भी हेप्पीनेस इंडेक्स बनाए जा रहे हैं पर क्या यह संभव हो पायेगा क्योंकि एक व्यक्ति को जिस चीज से आनंद प्राप्त होता हो, उससे दूसरा तीसरा व्यक्ति भी आनंदित हो, आवश्यक नहीं। इसके लिए तो समाज के मूल्य ऐसे निर्धारित करना होंगे जो सर्वग्राम हों।


वैसे दिल्ली राज्य ने एक अच्छी पहल की है कि बचपन से ही अर्थात् नर्सरी से ऐसा पाठ्यक्रम तैयार कराया गया है जिससे बच्चे खेल-खेल में वो सब सीख रहे हैं जो हम सिखाना चाहते हैं और उन्हें उपदेश देते हैं, उससे कहीं अधिक वो उस पाठ्यक्रम से सीख रहे हैं जो उन्हें पढ़ाया जा रहा है। इससे परिणाम भी काफी आशाजनक आए हैं और उसका प्रभाव बच्चों पर ही नहीं. शिक्षकों व अभिभावकों पर भी हुआ है। अभिभावकों को जहां बच्चों को अध्ययन के लिए दबाव बनाना पड़ता था, बच्चों को मोबाइल, टेब, लेपटाप से दूर करने का प्रयास करते थे पर पूरी तरह सफल नहीं हो पाते थे बच्चों की अवज्ञा से लगातार चिंतित रहते थे, वे सब आज पूरी तरह संतोष महसूस कर रहे हैं क्योंकि आनंद पाठ्यक्रम से वे इन बुराइयों से मुक्त होकर आपस में खेल रहे हैं, अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे रहे हैं। परिवार के साथ बैठकर समय व्यतीत कर रहे हैं उनमें आये इस परिवर्तन से अभिभावक तनावमुक्त हो रहे हैं पारिवारिक जीवन आनंददायक हो रहा है जिसका प्रभाव उनके आसपास के परिवेश में भी दिखने लगा है और निश्चित ही व्यक्ति जब तनावमुक्त होता है, प्रफुल्लता महसूस करने लगता है। एक प्रयास ने सुखद बदलाव का आरंभ कर दिया है। इसके लिए आनंद पाठ्यक्रम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली 'इंटेलीजेली' पत्रिका की टीम बधाई की पात्र है। ऐसे समय बच्चन जी की ये पंक्तियां अनायास ही महत्वपूर्ण हो जाती हैं है अंधेरी रात पर, दीपक जलाना कहां मना है' । एक अच्छा प्रयास अभियान बन जाता है।


बाल साहित्य ने जो कर दिखाया है, अभूतपूर्व है। व्यक्ति अपने लिए सुख के कितने भी साधन जुटा ले पर क्या वह इससे आनंद महसूस कर पाता है, विलासिता के संसाधन भी उसे बेचैनी से बचाने में सहायक नहीं हो पाते क्योंकि ये सब उसे सुखी होने का अहसास तो करा सकते हैं कि उसके पास वह सब कुछ है जिसकी उसे चाहत थी और ये सब तृष्णा ही बढ़ाता है पर आनंद की अनुभूति नहीं करा पाता।


आजकल साहित्य में भी कुछ कहानियां, कविताएं भी कटु यथार्थ प्रस्तुत कर रही हैं पर इस यथार्थ से क्या समाज में सकारात्मक हो रहा है या और वितृष्णा में वृद्धि हो रही है, इसका आशय यह नहीं कि साहित्य काल्पनिक हो या यथार्थ से विमुख हो बल्कि उसका स्वरूप कुछ इस प्रकार का हो कि यथार्थ तो हो पर उसके साथ सकारात्मकता भी हो जिसको पढ़कर पाठक सोचने पर विवश होकर उन स्थितियों को बदलने का प्रयास करे जो उसे आनंद से विमुख कर रही हैं। किसी को तो आगे आना ही होगा। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के शब्दों में 'एक गेहूं का दाना फसल नहीं होता पर इससे क्या इकाई की महत्ता को नकार सकेगा।


आजकल कुछ फिल्में इस तरह की बन रही हैं और दर्शकों द्वारा सराही भी जा रही है, जिनको दर्शक अपने आसपास पाता है और आनंदित होता है पर बेव सीरीज पर कुछ इस तरह भी दिखाया जा रहा है जो वीभत्सता उत्पन्न कर रहा है और सफल भी हो रहा है। व्यक्ति की दमित इच्छाएं जाग्रत हो रही हैं। हालांकि कुछ अच्छा भी दिखाया जा रहा सकता क्योंकि जिस तरह फिल्मों में बदलाव आयेगा ऐसी आशा की जाना चाहिए।


जहां तक आनंद पाठ्यक्रम की बात है यदि इसको पूरे देश की राज्य सरकारें और केंद्र सरकार अपने पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लें तो शायद धीरे-धीरे समाज में सकारात्मकता आएगी और जब व्यक्ति सकारात्मक होगा, आनंद महसूस करेगा। उसका धैर्य जो अभी धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है और बात-बात में हिंसक तक हो रहा है उसमें कमी आएगी और एक सुखद वातावरण बनेगा जो आनंद की अनुभूति अपने आपकराएगा और उसके लिए हैप्पीनेस इंडेक्स की इस तरह आवश्यकता नहीं पड़ेगी, समाज में आपाधापी भी नहीं रहेगी। कितनी सुखद कल्पना है पर साकार होना असंभव भी नहीं है।