अपनी बात.......


 


अरुण तिवारी


आजकल बड़े शहरों में लिटरेचर फेस्ट आयोजित हो रहे हैं जिसमें फिल्म जगत से जुड़े साहित्यकार कुछ चुनिंदा बहुचर्चित साहित्यकार व फिल्म जगत से संबंधित हस्तियां प्रमुख भूमिका


निभाते हैं। एक प्रकार से यह अभिजात्य प्रकार का समागम ही होते हैं जिसमें श्रोता भी अधिकांशतः अभिजात्य ही होते हैं। कहीं-कहीं इसी वर्ग के लिए एक अलग सत्र आयोजित होता है जिसमें वे अपनी रचनाएं सुनाते हैं। एक प्रकार से उत्सव का माहौल होता है। इन आयोजनों से किसी-किसी शहर में स्थापित साहित्यकार दूरी बना लेते हैं या उनको आमंत्रित ही नहीं किया जाता क्योंकि कई शहरों में आयोजक भी बड़े अधिकारी या बड़े व्यवसायी होते हैं जो साहित्य जगत से पूरी तरह परिचित नहीं होते। बहरहाल कोई भी आयोजन हो तो आलोचना होती है, कमी निकल जाती है या निकाल दी जाती है। बहरहाल इनआयोजनों के बारे में जो भी टीका-टिप्पणी हो पर एक फायदा तो निश्चित रूप से हो रहा है कि अभिजात्य वर्ग में भी साहित्य की पहुंच बन रही है, उनमें लिखने, पढ़ने की प्रवृत्ति में रुचि जागृत ही नहीं हो रही है बल्कि वे भी इन आयोजनों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए सृजन कर रहे हैं। और समय के साथ-साथ साहित्य भी ग्लेमरस होता जा रहा है। वैसे सोशल मीडिया के द्वारा भी बहुत से नये लोग सृजन कर रहे हैं, यह कितना स्तरीय होता है, एक अलग बात है पर साहित्य के प्रति अनुराग तो बढ़ता दिखाई दे रहा है। वैसे एक बात तो तय है कि चाहे लिटरेचर फेस्ट के रचनाकार हों या सोशल मीडिया के, उन्हें रचना प्रकाशन हेतु प्रिंट मीडिया अर्थात पत्रिकाओं की आवश्यकता तो पड़ेगी ही, अच्छी पत्रिकाओं में स्तरीय रचनाएं ही स्थान पा सकेंगी। बहरहाल अभी से किसी निर्णय पर पहुंच जाना शीघ्रता होगी, धीरे-धीरे स्थितियां स्पष्ट होती जाएंगी।


दूसरा निराला होना असंभव- माह फरवरी में दिनांक 10 को बसंत पंचमी है तथा 21 को निराला जी का जन्मदिन है पर चूंकि उनका जन्म बसंत पंचमी के दिन हुआ था अतः बसंत पंचमी पर ही उनके जन्मदिन मनाने की परंपरा वर्ष 1930 से आरंभ हुई थी तब से बसंत पंचमी पर ही उनका जन्मदिन मनाया जाता है।


निराला जी का व्यक्तित्व चर्चित रहा है। उनके स्वभाव और व्यवहार के कारण विभिन्न विशेषणों की संज्ञा दी जाती रही, उनके अंर्तविरोधों पर भी चर्चाएं हुईं परंतु निराला जी किसी की परवाह न करते हुए अपनी धुन में आगे बढ़ते रहे। उनकी इन्हीं विविधताओं एवं विचित्रताओं के कारण वे विरोधाभास के रूपक भी बने परंतु कुछ भी उनके आत्मसम्मान एवं स्वाभिमान को डिगा नहीं सका। उनकी ये विशेषताएं उनकी रचनाओं में भी परिलक्षित होती हैं।


उनका स्वभाव और व्यवहार इस तरह बनने के कारणों में उनके अतीत की पृष्ठभूमि का प्रभाव दृष्टिगत होता है। तीन वर्ष की आयु में उनकी मां के निधन के फलस्वरूप पिता ने ही उनका लालनपोषण किया। बचपन से ही उन्हें आर्थिक अभावों एवं अस्तित्व का संघर्ष करना पड़ा। चौदह वर्ष की आयु में पिता ने उनका विवाह करा दिया। युवा अवस्था में आते-आते पिता और उनकी पत्नी मनोहरा देवी का निधन हो गया। एक के बाद एक आघातों से निराला जी टूट से चुके थे परंतु वे अपने दायित्वों से कभी विमुख नहीं हुए। पुत्र रामकृष्ण त्रिपाठी एवं पुत्री सरोज के लालनपोषण के साथसाथ पूरे संयुक्त परिवार को सम्हालते रहे, अपना दायित्व बखूबी निभाया। उनके परिवारवालों एवं मित्रों के आग्रह के बावजूद भी उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया। पुत्री के विवाह के कुछ समय उपरांत उसका भी निधन हो गया जिसे वे बहुत प्यार करते थे। यह सरोज स्मृति से स्पष्ट होता है। आघातों पर आघात, स्वयं के और संयुक्त परिवार का निर्वहन, बचपन से आर्थिक अभाव और अस्तित्व का संकट, बचपन में मां का न होना शायद यही सब कारण उनके इस तरह होने के पीछे हो सकते हैं जिससे उनके स्वभाव में विसंगति सी आ गई थी और एक कठोरता भी और अतिरिक्त संवेदनशीलता भी इसलिए उनकी सहानुभूति शोषितों, वंचितों, श्रमजीवियों, भिक्षुकों के प्रति दिखाई देती है जो उनकी रचनाओं में भी प्रकट हुई जैसे 'वह तोड़ती पत्थर' में 'वह तोड़ती पत्थर/देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर/कोई न छायादार पेड़/ वह किसके तले बैठी स्वीकार/श्याम तन भर बंधा यौवन/ नत नयन, प्रिय कर्मरत मन/ गरु हथौडा हाथ/करती बार-बार प्रहार उनकी मानवीय चेतना उपरोक्त पंक्तियों में स्पष्ट दिखाई देती है। 'भिक्षुक' कविता में सामाजिक दुर्गति का दारुण चित्रण है जो सीधे दिल को झकझोर देता है। वह आता/ दो टूक कलेजे के करता पछताता/पथ पर आता/पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक/ चल रहा लकुटिया टेक/ मुट्ठीभर दाने को भूख मिटाने को, मुंह फटी पुरानी झोली को फैलाता/दो टूक कलेजे के करता पछताता/ पथ पर आता।' कृषकों की व्यथा भी उनसे देखी नहीं गई, उनकी सहायता करने हेतु व्याकुल हो उठते हैं। कविता 'बादल राग' में कहते हैं। 'जीर्ण बाहु है शीर्ण शरीर/तुझे बुलाता कृषक अधीर/ए विप्लव के वीर/चूस लिया है उनका सार/ हाइ मात्र ही है आधार/ऐ जीवन के पारावर। प्रकृति का चित्रण भी उनकी कविता 'बादल' में उल्लासमय ढंग से किया गया है। ऐसा कोई विषय नहीं है जिस पर निराला जी ने कविताएं न लिखीं होंउनकी कविताओं को पढ़ पढ़कर विभिन्न विचारधारा के साहित्यकार अपनी विचारधारा से जुड़े बताते रहे परंतु वे किसी एक विचारधारा या एक विधा के साहित्यकार नहीं थे। उन्होंने सभी विचारधारा और समस्त विधाओं में रचनाएं लिखीं चाहे वे छांदस कविता हो, मुक्त छंद की कविता हो, गीत हो, नवगीत हो। उनकी कविताओं में छायावाद भी मिलेगा, रहस्यवाद भी मिलेगा, यथार्थ भी मिलेगा, राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी रचनाएं भी मिलेंगी, सामाजिक सरोकार भी तीब्रता से रहेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि निराला जी को समझना मुश्किल है।


निराला जी के जीवटता की सभी प्रशंसा करते थे कि कैसे विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने धैर्य नहीं खोया और वे अपने पारिवारिक दायित्व निर्वहन करने के साथ निरंतर लेखन करते रहे। अद्भुत जिजीविषा के धनी थे। मृत्यु के बारे में भी उनकी कविता, 'ध्वनि' बहुत कुछ कहती है। अभी न होगा मेरा अंत/ मेरे ही अविकसित राग से /विकसित होगा बंधु दिवंगत/अभी न होगा मेरा अंत! परंतु शनैः शनैः वे थकने लगे और अकेलापन महसूस करने लगे, शायद वे जीवन की सांध्य बेला को आते देख रहे थे फिर वे बीमार हो गये। उनकी पीड़ा बढ़ती गई जो 'अकेला' में दृष्टिगत होती है। मैं अकेला/देखता हूं। आ रही मेरे दिवस की सांध्यबेला/ पके आधे बाल मेरे/ हुए निष्प्रभ गाल मेरे/ चाल मेरी मंद होती आ रही/हट रहा मेला/ जानता हूँ/नदी झरने जो मुझे थे पार करने/ कर चुका हूं। हंस रहा यह देख/ कोई नहीं भेला/ मैं अकेला/मैं अकेला। ये पंक्तियां उनके एकाकीपन और हताशा की ओर इंगित करती हैं परंतु जो जीवन उन्होंने जिया, उससे तो यही लगता है कि दूसरा निराला होना असंभव|