अनुपस्थिति में उपस्थिति का अहसास

राधेलाल बिजघावने


रचनाकार अनुपस्थिति में भी घर परिवार, समाज संस्कृति में उपस्थित होता है। रचनाकार की अनुपस्थिति में उपस्थिति उसकी रचनाएं दर्ज करती हैं। उसकी रचनाएं अनुपस्थिति में समाज संस्कृति के सुधार की और विकास की भाषा बोलती हैं। और मनुष्य के आर्थिक सुधार के लिए पहल भी करती हैं। इसलिए लेखक की रचनाएं लेखक की अनुपस्थिति का कभी अहसास ही नहीं होने देती। अहसास नहीं होने देती उसके अनुपस्थिति होने का आत्मदर्द!


लेखक का स्मृति बिम्ब उसकी अनुपस्थिति में ज्यादा गहरे रंग का हो जाता और रंगीन दृश्य बिम्ब पाठकों के साथ स्वयं संवाद करता है तो लगता है लेखक निश्चित ही उसकी मौत पर अपनी विजय हासिल कर मुस्कुराता रहता है। और वक्त को अपनी भाषाशिल्प संवेदना के साथ बदलता है।


अकेलेपन में लेखक का स्मृति बिम्ब बार-बार अपनी प्रतिछवि के साथ लौटना और फिर वक्त की रबर के साथ मिटता बनता है तो लगता है लेखक बारबार अपनी उपस्थिति दर्ज कर अतीत के पन्नों में लौटता है। सही अर्थ में उसकी रचनात्मक छवि की ताकत अथवा शक्ति होती है। यही ताकत रचनाकार के रचनात्मक छाया बिम्ब को यथार्थ रूप प्रदान करती है। क्योंकि उसका चेहरा बार-बार मन मस्तिष्क में छाया रहता है


प्रेमशंकर रघुवंशी की लेखकीय गुरुत्वाकर्षण शक्ति मानवीय चेतना में एक शक्ति बिम्ब के साथ उभरकर जब आती है तो लगता है लेखक समाज संस्कृति में अपनी गौरवशाली उपस्थिति दर्ज करता है और समाज संस्कृति के स्वरूप को पूरी तरह बदल देता है।


प्रेमशंकर रघुवंशी का संवादित चेहरा मेरे मन में अलग तरह की जीवटता और स्फूर्ति डाल देता है कि उसकी काव्य संवेदनाएं मेरी अंतरंग दुनिया में समुद्री लहरों की तरह आलोड़ित होती ही रहती है और जीवन का ताजा अहसास कराती रहती है।


प्रेम शंकर रघुवंशी पूरी तरह ग्रामीण संवेदना के रचनाकार रहे हैं। भाषा परिवेश वैचारिक सोच के स्तर पर क्योंकि वे गांव के स्थायी निवासी थे या फिर पूरा का पूरा गांव अपनी मौलिक संवेदना के साथ उनके भीतर बसा है। और गांव की भाषा बोलता, गांव के परिवेश में रहता और गांव की समस्याओं से जूझता है।


___ मैं भी जब गांव की तरफ जाता हूं तो लगता है मैं भी प्रेमशंकर रघुवंशी की ही तरह पूरी तरह गंवार लगता हूँ परंतु जब मेरे भीतर का साहित्यकार अपनी साहित्यिक ताकत और उसकी आकर्षक प्रति छवि का बोध करता है तो लगता है मेरे भीतर का रचनाकार देश समाज संस्कृति का सबसे बड़ा समाज सुधारक है जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर पाता।


प्रेमशंकर रघुवंशी को जब अपना कविता संग्रह तैयार करना होता था तो वे अपनी रचनाओं की फाइल मेरे सामने रख देते थे। और रचनाएंछांटते और क्रमबद्धता के साथ संजोने का निवेदन करते थे।


जब मैं इनकी रचनाएं पढ़ता तो लगता था कि गांव का पूरा परिदृश्य जीवन्त होकर मेरे मन में छा जाता। यद्यपि गांव मेरे जीवन का महत्वपूर्ण अंग है और गांव की संवेदनाओं को जितने यथार्थ के साथ जीता हूँ उससे कहीं ज्यादा संवेदनशील यथार्थ के साथ वे जीते थे। गांव की भाषा उनकी रचनाओं में मौलिक स्वरूप के साथ उपस्थित होती थी।


प्रेमशंकर रघुवंशी की अपनी लेखकीय छवि थी। वे अच्छे नवगीतकार के साथ ही नई कविता के जबरदस्त कवि भी थे। इन्होंने नाटक, कहानियां और बालकों के लिए भी पूरे मन से रचनाएं लिखीं।


सबसे बड़ी बात तो यह थी प्रेमशंकर रघुवंशी जब रचनाएं लिखते तो वे साहित्य के भाषा शिल्प पर कतई ध्यान नहीं देते थे क्योंकि उनकी रचनाएं ही परिवेश, कन्टेंट और स्थिति के अनुसार ग्रहण कर लेती और उत्कृष्ट भाषा शिल्प स्वयंमेव उसमें बिना प्रयत्न ही उपस्थित हो जाता। यह उनकी अपनी एक खासियत ही थी।


प्रेमशंकर रघुवंशी वाचिक रचनाकार थे। जब वे रचनाएं पढ़ते तो पूरा माहौल उनकी रचना की प्रभावशीलता का संवैधानिक अहसास करा देता और वे अपना वाचिक प्रभाव हर श्रोता के दिल दिमाग में डाल देते थे।


एक कॉलेज के प्रोफेसर होने की वजह से उनकी स्टेज पर बोलने की कला प्रभावी थी। वे निरंतर किसी भी विषय पर धारा प्रवाह बोलते रहते थे और श्रोताओं को प्रभावित कर देते थे।


__ कई प्रोग्रामों में मैंने प्रेमशंकर रघुवंशी के साथ शिरकत की। हम लोग त्रिलोचन शास्त्रीजी के साथ विभिन्न विषयों पर चर्चा करते रहते थे। त्रिलोचनजी का ज्ञान और अनुभव इतना विराट था कि उसकी थाह पाना मुश्किल था। वे विद्वान होते हुए बहुत सहज सरल स्वभाव के थे।


मुझे जब वागीश्वरी पुरस्कार देने की घोषणा हुई उस समय मैं अपने गांव पर ही था और पुरस्कार ग्वालियर के चेंबर ऑफ कॉमर्स हाल में आयोजित विशाल कार्यक्रम में दिया जाना था। इसकी कोई जानकारी मुझे नहीं थी।


__ प्रेमशंकर रघुवंशी ने मुझे गांव से बुलाया पुरस्कार की बधाई दी तो मैं आश्चर्य चकित हो गया। वे मुझे अपने साथ ग्वालियर ले गए। हमें रहने के लिए जो रूम एलाट थे, वहां हम नहीं रहे जनरल पब्लिक आम श्रोताओं के साथ रहे। ढेर सारी बातें की। यह उनका मेरे प्रति अगाध प्रेम का द्योतक है।


हरिशंकर परसाई की मान्यता थी कि रचनाकार को हर तरह का साहित्य पढ़ने से परहेज नहीं करना चाहिए। इससे ज्ञान समृद्ध होता है, मेकेनिकल, वैज्ञानिक, साहित्य पढ़ने से वैज्ञानिकों इंजीनियरों के चरित्र पर प्रमाणिक कहानियां लिखी जा सकती हैं। अधूरा लिखा भी कहीं न कहीं काम आता है और अच्छा साहित्य बन जाता है।


_भवानी प्रसाद मिश्र, प्रेमशंकर रघुवंशी के समीप रहे हैं और उनकी काव्य यात्रा के संबंध में इनसे ज्यादा कोई नहीं जानता यों कहें कि वे भवानी प्रसाद मिश्र के संबंध में अदभुत ज्ञान रखने वाले विशेषज्ञ ही थे।


___ जिस तरह कमल किशोर गोयनका जी प्रेमचंद के संबंध में विशेषज्ञ माने जाते हैं, प्रेमशंकर रघुवंशी को भवानी भाई के जीवन की तमाम अच्छी बुरी घटनाओं की पूरी जानकारी थी।


प्रेमशंकर रघुवंशी का मित्र प्रेम अलग तरह का था। जब भी किसी मित्र से मिलते तो जी खोलकर मिलते और अपने मन की सारी बातें खोल देते। यदि किसी मित्र से कई दिनों तक मुलाकात नहीं होती तो उनके मन में बेचैनी पैदा होती और वे बार-बार फोन पर संपर्क कर देर तक चर्चा करते रहते जब तक कि अपने मन की जो बातें की जानी हैं पूरी नहीं कर लेते। प्रेमशंकर रघुवंशी की आदत में यह शुमार था कि वे हर तरह के साहित्यिक निबंधों, पत्रों और छपी रचनाओं को सहेजकर रखते थे।


बच्चनजी के पत्रों की तो उनकी किताब भी प्रकाशित हुई है। धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती जी के भी कई पत्र उनके पास फाइल में सहेजकर रखे थेजो बाद में उन्होंने सप्रे-पत्रकारिता संग्रहालय के संचालक श्री पाठक जी को दे दिये ताकि बहुमूल्य निधि के रूप में रखे रहें और शोधकर्ताओं के काम आ सकें।


प्रेमशंकर रघुवंशी की इच्छा थी कि वे डॉ. धनंजय वर्मा से अपनी पुस्तक की भूमिका लिखवाएं परंतु उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। इस संबंध में डॉ धनंजय वर्मा से कई बार विभिन्न तरीकों से संपर्क किया। डॉ धनंजय वर्मा ने उनकी किताब पर अपना मत मौखिक रूप से देने का आश्वासन भी दिया। परंतु उनकी किसी भी पुस्तक पर अपनी भूमिका अथवा अपनी राय लिखित रूप से नहीं दीइसका कारण क्या था। इसका रहस्य क्या था. कोई नहीं जानता। शायद रघवंशीजी जानते हों, इस संबंध में कभी अपनी राय किसी के समक्ष प्रस्तुत नहीं की।


प्रेमशंकर रघुवंशी को साहित्यकार बनाने में उनकी पत्नी विनीता रघुवंशी का सहयोग अविस्मरणीय और अतुल्य है। रघुवंशीजी जब बहुत बीमार थे , उनकी कविता 'डूब' नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुई जो हरसूद के डूब क्षेत्र में आये लोगों की मनोदशा पर केंद्रित लंबी कविता को लीलाधर मंडलोई ने मन खोलकर इस कविता को 'नया ज्ञानोदय' में प्रकाशित किया जो चर्चा के केंद्र में रही है।


प्रेमशंकर रघुवंशी अंतिम क्षण तक साहित्य के प्रति प्रतिबद्ध रहे हैं। वे जीवट व्यक्ति थे। इनका हौसला बुलंद था और आगे बढ़ने का सतत प्रयास । इसलिए हार मानकर निराश बैठना इनके स्वभाव में नहीं था। नागार्जुन, शलभश्रीरामसिंह, विजयबहादुरसिंह, जीवनसिंह, शमशेरबहादुरसिंह, राजेन्द्र जोशी, राधेलाल बिजधावने के साथ इनकी गहरी दोस्ती रही और विचार-विमर्श भी होता रहा है। आवश्यकता पड़ने पर अपने-अपने संस्करण भी सुनाते थे।


प्रेमशंकर रघुवंशी का साहित्य लेखन निरंतर रहा है। कभी इसमें अंतराल नहीं हुआइनकी 35 से अधिक कहानी, कविता, आलेख, नाटक, आलोचना तथा कहानियों की किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ये सभी विधाओं में समान रूप से लेखन करते थे। ये पुस्तकें चर्चा के केंद्र में रही हैं। जो हिंदी साहित्य के लिए निधी हैं। इन्हें मप्र शासन का पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। वागीश्वरी पुरस्कार के साथ अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके। बावजूद इसके प्रेमशंकर रघुवंशी मधुर भाषी, सहयोगी, सहज सरल व्यक्ति थे। ये कभी किसी का न बुरा मानते थे और न ही बरा करते थे।