प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन

आलेख


महेश दर्पण


यह निर्विवाद सत्य है कि कमलकिशोर गोयनका ने अपना जीवन प्रेमचंद साहित्य की खोज, उसकी पड़ताल और व्याख्या को समर्पित कर दिया। उनकी पुस्तक 'प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन' हिंदी ही नहीं, किसी भी भारतीय भाषा में हुआ इस तरह का पहला विशद व प्रामाणिक अध्ययन है। इससे पूर्व 'मानसरोवर' की कहानियों के आधार पर ही प्रेमचंद की कहानियों का अध्ययन होता रहा है। यही कारण है कि लगभग 95 कहानियां अध्ययन में शामिल नहीं हो सकीं।


 अध्ययनकार ने भूमिका में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि हम भारत को 'इंडिया' के स्थान पर भारत बनाए रखना चाहते हैं तो प्रेमचंद के कथासंसार की मूल आत्मा भारतीयता को अपने राष्ट्रीय सांस्कृतिक जीवन का अंग बनाना होगा लेकिन इसके लिए प्रेमचंद की कहानियों का समीचीन अध्ययन जरूरी है। मान सरोवर का जैसा भी अध्ययन गोयनका से पूर्व हुआ, उससे जाहिर है कि विद्वानों ने यह जांचने की सतर्कता नहीं बरती कि वहां कहानियां कालक्रमानुसार संकलित नहीं हैकालक्रम ही नहीं, प्रेमचंद की कहानी संबंधी अवधारणाओं पर भी लेखक पुनर्विचार करते हुए उन्हें करेक्ट किया है। सप्रमाण होने के कारण यह कार्य एक नये प्रेमचंद को हमारे सामने रखता है।


आठ अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक का पहला अध्याय प्रेमचंद के कहानीकार के इतिहास को समर्पित है। यहां प्रेमचंद के कहानीकार की यात्रा सन् 1908 से अक्टूबर 1936 तक की मानी गई है। साथ ही यह संकेत भी है कि प्रेमचंद की तमाम कहानियां उनके जीवन काल में प्रकाशित नहीं हो पाई थीं। इसी कारण उनकी अज्ञात अप्राप्य कहानियों की खोज का सिलसिला चलता रहा। अमृतराय ने इसका प्रारंभ 'गुप्तधन' में 56 कहानियां प्रस्तुत करके किया। मदन गोपाल व जाफररजा भी परिश्रम करते रहे किंतु वे अपने काम को प्रकाशित न करा सके। कमल किशोर गोयनका ने यह काम उनके बाद अपने हाथ में लिया और 16 और कहानियां खोज कर श्रीपतराय को प्रकाशनार्थ दे दी। जिस तरह श्रीपत राय ने इनकी खोज का श्रेय स्वयं लेकर उन्हें प्रकाशित कराया, उससे एक समर्पित खोजी को झटका लग सकता था लेकिन गोयनका ने हिम्मत न हारी और वह अनुपलब्ध प्रेमचंद की खोज में जुट गये। ज्ञात अज्ञात 30 कहानियों का प्रकाशन उन्होंने 'प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य' और 'प्रेमचंद की अप्राप्य कहानियां' शीर्षक से कराया। उनका दावा है कि अब भी प्रेमचंद की संपूर्ण कहानियां सामने नहीं हैं। इसके लिए प्रेमचंद की कथायात्रा के कालखंड की सभी उर्दू हिंदी पत्रिकाओं की छानबीन जरूरी है।


पहले अध्याय में लेखक ने 'प्रेमचंद से पूर्व की कहानी की स्थिति और प्रेमचंद के आगमन' पर गंभीरता से विचार किया है। यहां एक सही ऐतिहासिक तथ्य की ओर संकेत किया गया है कि प्रेमचंद्र ने उर्दू उपन्यास लिखते हुए अपनी कथा-यात्रा प्रारंभ की। पहले कहानी संग्रह 'सोजेवतन' से पूर्व उनके चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे। 'सोजेवतन' का प्रकाशन 1908 में हुआ था। उनका पहला उपन्यास 'असरारे मआबिद' 1903 में ही 'आवाज-ए-खल्क' साप्ताहिक में प्रकाशित हो चुका था। दीगर बात है कि प्रेमचंद के प्रारंभिक उपन्यासों ने 'सोजेवतन' जैसा प्रभाव नहीं छोड़ा था। गोयनका इसीलिए 'सोजेक्तन' को एक नये प्रस्थान बिंदु की तरह देखते हैं। लेकिन यह संकेत भी करते हैं कि प्रेमचंद के जीवन में इस संग्रह की मात्र एक कहानी 'यह मेरा वतन है' हिंदी में 'यही मेरी मातृभूमि है' शीर्षक से आ सकी थी। उन्हें आपत्ति है कि बावजूद इसके हिंदी आलोचक 'सोजेवतन' की चर्चा हिंदी कहानी के इतिहास में करते रहे हैं। उन्होंने यह जानने की चेष्टा भी नहीं की कि इस संग्रह का उर्दू हिंदी की कहानी परंपरा से कोई रिश्ता भी है या नहीं। गोयनका की मान्यता सही है कि प्रेमचंद की शुरूआती कहानियों ने उर्दू कहानी का आस्वाद बदला। इस अर्थ में प्रेमचंद ने आधुनिक उर्दू कहानी की शुरूआत की। वह प्रेमचंद की पहली हिंदी कहानी के विवाद को भी खत्म करते हुए कहते हैं कि 'प्रताप' के अक्टूबर 1914 के अंक में प्रकाशित 'परीक्षा' उनकी पहली कहानी है लेकिन उसे हिंदी की पहली आधुनिक कहानी मनवाने का आग्रह समझ से बाहर है क्योंकि गुलेरी की 'उसने कहा था' की आधुनिकता कई अर्थों में स्पष्ट है।


बहरहाल, अध्ययनकार ने यह जरूरी प्रश्न उठाया है कि प्रेमचंद के उर्दू से हिंदी में आने के कारणों की खोज-खबर क्यों नहीं ली गई? साथ ही वह यह संकेत भी करते हैं कि उर्दू का परित्याग करके लेखक हिंदी में नहीं आया, वह सिर्फ उर्दू की सांप्रदायिक संकीर्णता से आहत था। अपनी इस बात को प्रमाणित करने के लिए वह प्रेमचंद के सात पत्रों से अंश तो देते ही हैं, 'शाहकार' के दिसंबर, 1935 के अंक में प्रेमचंद का दिया वह उत्तर भी उद्धृत करते हैं जो लेखक ने अपने हिंदी उर्दू लेखन के विवाद को लेकर दिया था।


बहरहाल, जहां तक प्रेमचंद की कहानियों के कालक्रम का प्रश्न है, स्वयं प्रेमचंद ने अपने संग्रहों में इसकी कोई खास फिक्र नहीं की। 'मानसरोवर' के पहले दो भागों को पढ़कर ही यह स्पष्ट हो जाता है। ये भाग लेखक के जीवनकाल में ही प्रकाशित हो गये थे। “मानसरोवर के आठ भागों में प्रकाशित 203 कहानियां अराजक संकलन का उदाहरण हैं। इस दृष्टि से लेखक की हिंदी उर्दू कहानियों के प्रकाशन समय का निर्धारण वैज्ञानिक तरीके से पहली बार 'प्रेमचंद विश्वकोश' में संभव हुआ। अध्ययनकार की मान्यता सही है कि इस महान कथाकार की संपूर्ण कहानियों की कालक्रमानुसार सूची बनाते समय रचना की प्रथम प्रकाशन तिथि को ही आधार बनाया जाए। यह भी स्पष्ट उल्लेख हो कि अप्राप्य और अनुपलब्ध रचनाएं कौन सी हैंवह सूचना देते हैं कि अब तक 67 कहानियां ऐसी हैं जो उर्दू में प्रकाशित ही नहीं हुई हैं। स्थिति यह है कि स्वयं प्रेमचंद यह स्मरण नहीं रख पाए कि उन्होंने कुल कितनी कहानियां लिखीं। अतीत में प्रेमचंद के अध्ययन में होती रही गलतियों की ओर तो पुस्तक संकेत करती ही हैं। शोध कार्यों की त्रुटियां भी उजागर करती हैं। उनका आग्रह है कि हिंदी उर्दू विद्वानों की एक टीम को मिलकर 1908 से 1940 तक की हिंदी उर्दू पत्रिकाओं को देखना होगा, तभी प्रेमचंद संबंधी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध हो सकेगी। बहरहाल वह प्रेमचंद की कुल कहानियों (अब तक प्रमाण) को वर्ष, उपलब्धता और अनुपलब्धता और संख्या के हिसाब इस तरह प्रस्तुत कर गये हैं कि भविष्य के शोधार्थियों की राह आसान हो जाएगीवह प्रेमचंद के कहानी संग्रहों पर भी परिचयात्मक टिप्पणियां करते हुए बताते हैं कि जीवन काल में लेखक ने कुल 26 हिंदी संग्रह प्रकाशित कराए थे लेकिन वह अब तक प्रकाशित उनके 65 संग्रहों की जानकारी सप्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इस दृष्टि अध्ययनकार द्वारा संपादित 'प्रेमचंद की कहानी रचनावली' सर्वाधिक महत्वपर्ण ग्रंथ है। इसमें उपलब्ध 298 कहानियों को कालक्रम से छह खंडों में प्रस्तत किया गया है। यह काम निश्चित रूप से 'मानसरोवर' से आगे का है। हिंदी जगत में प्रेमचंद के उर्दू कहानी संग्रहों की जानकारी कम रहती है। गोयनका ने 25 उर्दू कहानी संग्रहों के प्रथम प्रकाशन व उनमें संग्रहीत कहानियों का जिक्र किया है।


पुस्तक का दूसरा अध्याय प्रेमचंद की कहानियों की कालक्रमानुसार सूची बनाने की जरूरत को रेखांकित करता है। यहां बताया गया है कि प्रेमचंद ने 301 कहानियां लिखीं, लेकिन उपलब्ध 298 ही हैं। यहां अध्ययनकार ने हिंदी या उर्दू में प्रथम प्रकाशन को ही कालक्रम का आधार बनाया है उसकी यह कोशिश रही है कि अध्ययन अधिकाधिक वैज्ञानिक हो । कुल 30 बरसों में प्रकाशित उपलब्ध व अनुपलब्ध रचनाओं के विवरण यहां वर्ष वार दिये गये हैं। यही कारण है कि सन् 1909 इस विवरण से गायब है क्योंकि इस साल लेखक की कोई कहानी सामने नहीं आई। किसी एक वर्ष में प्रेमचंद ने कुल कितनी कहानियां लिखीं, यह भी आसानी से समझा जा सकता है। हिंदी कहानियों के ही नहीं, उर्दू कहानियों के भी शीर्षक यहां मौजूद हैं। सावधानी यह बरती गई है कि किस भाषा में रचना का प्रकाशन पहले हुआ, यह स्पष्ट हो सके। कहानी किस पत्रिका या पुस्तक में पहली बार आई यह भी यहां स्पष्ट है। लेखक की 33 रचनाएं ऐसी हैं, जो सीधे संग्रहों में सामने आईं। यह अध्ययन जानकारी देता है कि 117 उर्दू में लिखी कहानियां असंकलित व अप्रकाशित हैं, लेकिन कुल 194 रचनाएं उर्दू संग्रहों में हैं। इस कारण उर्दू में लंबे समय तक प्रेमचंद की कहानियों का अध्ययन नहीं हो सका। यह तभी प्रारंभ हो सका जब मदन गोपाल ने 'कुल्लियाते प्रेमचंद' के 24 खंडों का प्रकाशन कराया। कालक्रमानुसार सूची इस अध्ययन को सारगर्भित बनाती है। इसमें कहानी का हिंदी शीर्षक, उर्दू शीर्षक, प्रथम प्रकाशन किस भाषा में, पत्रिका का संकलन की जानकारी और अन्य संकलनों की भी अद्यतन सूचना है अध्ययनकार ने प्रेमचंद संबंधी समग्र जानकारी का विशद अध्ययन कर यह महती कार्य किया है।


पुस्तक का तीसरा अध्याय ' प्रेमचंद का कहानी-दर्शन' पर है। यहां गोयनका प्रेमचंद की कहानी संबंधी मान्यताओं को स्पष्ट करते चलते हैं, तो यह भी बताते हैं कि वह जिस कथा समय में सामने आये थे, उसमें उनकी एक विशेष भूमिका रही। वह कहानी की दुनिया में एक नये झोंके की तरह से आये थे। इससे कहानी का मिजाज ही बदल गया था। नवीनता व युग के साथ अटूट संबंध को वह अपने समय की आधुनिक कहानी के लिए जरूरी मानते थे। वह सजीव और आकर्षक पात्रों के जरिए पाठक के निजत्व से जुड़ना चाहते थे। उर्दू उन्हें अधिक मंजी और लचीली भाषा लगी जिसे वे छोटी कहानियों के लिए अपनाना चाहते थे। स्वराज्य विलय उनके कथा प्रयोजन में प्रमुख था। वह मनोरंजन से देशभक्ति और राजनीति को मशाल दिखाने की ओर शिफ्ट करना चाहते थे। परिष्कृति, उन्नयन, आत्मपरिष्कार मनोरंजन व मानसिक तृप्ति, आदर्श उपस्थित करना, मनुष्य के देवत्व को स्पंदित करना, मन को संस्कारित व जीवन को स्वाभाविक व स्वाधीन बनाना, उच्च चिंतन, सौंदर्य, सर्जन व सत्यता के साथ गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करना, जनमत को शिक्षित करते हुए पथ प्रदर्शन करना उनके प्रयोजन सिद्धांत में शामिल था। यह दमित, पीड़ित और शोषित समाज की वकालत करते हुए मनुष्य के ईर्ष्या-प्रेम, क्रोध-लोभ, अनुराग विराग, दुख लज्जा की छटा को दिखना चाहते थेवह ऐसी भाषा के पक्षधर थे जिसे ज्यादा से ज्यादा लोग समझ सकें। गोयनका की यह मान्यता सही है कि प्रेमचंद का कहानी दर्शन पराधीन भारत में कहानी का राष्ट्रीय दर्शन था और स्वतंत्रता के बाद वह भारतीय कहानी का दर्शन बन गया।


चौथे अध्याय में 1908 से 1910 तक की कहानियों का अध्ययन किया गया है। यहां अध्ययनकर्ता की स्थापना समीचीन है कि प्रेमचंद ने उर्दू से कहानी रचना प्रारंभ की परंतु उर्दू कहानी परंपरा के तत्वों को स्वीकार नहीं किया। यहां अमृतराय की उस सूचना को भी गलत ठहराया गया है जिसमें 'दुनिया का सबसे अनमोल रतन' को 'जमाना' में 1907 में प्रकाशित बताया गया है बल्कि यह प्रश्न भी उठाया है कि 'सोजेवतन' की 'इश्के दुनिया छुब्बे वतन' को छोड़कर कोई कहानी किसी पत्रिका में प्रकाशित हुई भी थी या नहीं! इस संग्रह की पांचों कहानियों पर गोयनका अपनी टीप भी देते हैं। जून 1908 के बाद क्यों प्रेमचंद फरवरी 1910 तक कोई कहानी नहीं लिखते, इसका अनुमान भी वह लगाते हैं, जो 'सोजेवतन' की जब्ती से जुड़ा है लेकिन इसके बाद वह मार्च,1910 से दिसंबर,1910 तक करीब छह कहानियों का विवरण तिथिवार देते हैं। यह ‘पाप का अग्निकुंड' से 'बड़े घर की बेटी के बीच का रचनाकाल है। उनका अनुमान सही लगता है कि अक्टूबर-नवंबर 1910 में ही प्रेमचंद का जन्म हुआ। बड़े घर की बेटी' उनके नाम से प्रकाशित होने वाली पहली कहानी थी। इन कहानियों पर टिप्पणी तो गोयनका ने की ही है। वह मानते हैं कि इस दौरान प्रेमचंद ने कहानी को एक नया शास्त्र देकर आधुनिक बनाया। इस दृष्टि से सोजेक्तन की भूमिका उल्लेखनीय है।


पांचवें अध्याय में दूसरे दशक यानी 1911 से 1920 तक की कहानियों का अध्ययन है। इसकी विशेषता यह है कि यहां लेखक की पहली हिंदी कहानी 'परीक्षा' का उल्लेख है। यह 'प्रताप' में 1914 में प्रकाशित हुई थी। यह खोज गोयनका की सप्रमाण है। इससे पूर्व पहली कहानी को लेकर भ्रांतियां रही हैं। एक तरह से यह प्रेमचंदकालीन इतिहास का पुनर्लेखन है। गोयनका ने इस संदर्भ में जो प्रमाण व तर्क दिये हैं, वह सहज ही समझ में आने वाले हैं। इस दशक में प्रेमचंद ने कुल 80 कहानियां प्रकाशित कराईं। लेकिन अब भी उर्दू में उनकी 67 कहानियां पहले प्रकाशित हुईं। वर्षानुसार अध्ययन और उन पर समीक्षा करने के साथ ही गोयनका यह भी देखते चले हैं कि कौन सी कहानी प्रेमचंद ने अपने किसी संग्रह में प्रकाशित नहीं कराईकैसे अनेक रचनाओं को बहुत बाद में अध्ययनकर्ता ने लिप्यांतरित कराकर हिंदी में प्रकाशित कराया। इसमें गौर करने लायक बात यह भी है कि 1913 में प्रेचमंद ने दूसरे दशक में सर्वाधित 13 कहानियां लिखीं।


छठे अध्याय में तीसरे दशक की कहानियों का अध्ययन है। प्रेमचंद के रचना-जीवन का यह सर्वोत्तम काल है। गोयनका लेखक के जीवन और उसके उतार चढ़ावों को भी देखते चले हैं। उल्लेखनीय यह हुआ कि प्रेमचंद पूरी तरह से हिंदी में लिखने लगे। दयानारायण निगम को लिखे एक पत्र के हवाले से यह बताया गया है कि प्रेमचंद उर्दू से हिंदी में क्यों आये थे! यह एक सहज परिवर्तन नहीं था। हां, 'रंगभूमि' जरूर इस काल में उनकी लिखी उर्दू की मूल रचना है पर उसके रूपांतर में भी हिंदी में नये परिच्छेद जोड़े गये। इसी काल में पूर्णताः हिंदी में 'कायाकल्प' सर्वप्रथम लिख गया फिर 'निर्मला', 'प्रतीक्षा' व 'गबन'। महत्वपूर्ण बात ये कि इस काल में प्रेमचंद ने 136 कहानियां लिखीं। इनमें 116 हिंदी में थीं। सन् 1928 इस दशक में प्रेमचंद की कहानियों की दृष्टि से सर्वाधिक उर्वर रहा। इसमें गोयनका द्वारा प्रस्तुत तालिका में 17 हिंदी में तथा 5 उर्दू में प्रकाशित रचनाएं रहीं लेकिन विस्तृत विवरण में वह 21 ही रह गई हैं। यह अग्नि समाधि' से अलगोम्या' के बीच का समय है।


चौथे दशक की कहानियों का अध्ययन सातवें अध्याय में किया गया है। यह दशक प्रेमचंद पूरा भी नहीं कर पाए। 56 बरस की उम्र में वह अभी 'मंगलसूत्र' उपन्यास लिख ही रहे थे कि 8 अक्टूबर, 1936 को लंबी बीमारी के बाद वह चल बसे। लेकिन इस दशक में भी उनका हिंदी-उर्दू में प्रकाशन बना रहा। 'बेवा' व मैदाने अमल' (उर्दू में उपन्यास) तथा 'आखिरी तोहफा' व 'जादे राह' (उर्दू में कहानी संग्रह) जीते जी प्रकाशित होते हैं। हिंदी में 'गबन', 'कर्मभूमि' व 'गोदान' जीते जी प्रकाशित होने वाले उपन्यास हैं। गोयनका के अनुसार इस दशक में लेखक के रहते कहानी-संग्रह 'प्रेरणा तथा अन्य कहानियां', 'समर यात्रा तथा अन्य कहानियां 'प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियां', 'प्रेम-पीयूष' व 'मानसरोवर' (भाग एक व दो) का प्रकाशन भी हिंदी में हुआ। सन् 1931 रचना की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ रहा क्योंकि लेखक ने इस वर्ष उर्दू में 5 तथा हिंदी में 11 कहानियां लिखीं। इसके अगले वर्ष उन्होंने 15 कहानियां कुल लिखीं। इसके बाद धीरे-धीरे संख्या में कमी आती चली गई और जीवन के अंतिम वर्ष में प्रेमचंद की कुल छह ही कहानियां प्रकाशित हो सकीं। निधन के ठीक अगले वर्ष भी तीन कहानियों का प्रकाशन यह अनुमान देता है कि ये रचनाएं भी अंतिम वर्ष की रही होंगी


गोयनका के शोध और विवेचन कार्य की विशेषता यह है कि वह न केवल कहानियों पर चर्चा करते हैं, बल्कि कहानियों के साथ-साथ लेखक के जीवन प्रसंगों को भी उठाते हैं। आर्थिक दिक्कतों के साथ जीवन के अनेक संघर्ष व उलझनों के बीच रचनाकार कैसे प्रभावित होता है, यह इस अध्ययन में खुला है। अध्ययनकार की यह मान्यता बार-बार सामने आई है कि प्रेमचंद के कहानी दर्शन में मार्क्सवादी कहानी दर्शन का कोई प्रभाव नहीं है। वह शुद्ध स्वदेशी विचार के भारतीय रचनाकार के रूप में हीगोयनका को मान्य हैं। यही कारण है कि अध्ययनकार ने चुन-चुन कर, इस समूची पुस्तक में मार्क्सवादी चिंतकों व आलोचकों की मान्यताओं का पुरजोर खंडन किया है


यदि इस विवाद से अलग रहा जाए कि कौन सही है और कौन गलत तो भी प्रेमचंद की कहानियों के कालक्रमानुसार अध्ययन व उनके कहानी शास्त्र के विवेचन की दृष्टि से यह एक सर्वथा नया काम है। किसी भी भारतीय भाषा में किसी कहानीकार पर ऐसा समग्र शोध मेरी जानकारी में नहीं हुआ है। आठवें अध्याय'उपसंहार' तक आते-आते गोयनका की यह मान्यता सही लगती है कि 29 वर्षीय कहानी यात्रा में प्रेमचंद 1909 को छोड़कर हर वर्ष कुछ न कुछ संख्या में कहानियां देते रहे। 301 कहानियों का उनका समृद्ध संसार किसी भी कहानीकार के लिए एक चुनौती बना हुआ है। गोयनका को हिंदी की प्रगतिशील आलोचना से एतराज है और वे इसकी वजह बताते हुए अपने तर्क रखते हुए 'प्रेमचंद बनाम प्रेमचंद' से अलग लेखक के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को प्रमुखता देते हैं लेकिन वह यह नहीं कहते कि प्रेमचंद को साहित्य के केंद्र में लाने का काम इन्हीं आलोचकों ने किया था। उनके काम में सहमति की गुंजाइश किसी को लगे, न लगे, यह तय है कि गोयनका को विरोध और शोध की प्रेरणा भी उन्हीं से मिली है। विश्व के अनेक बड़े लेखकों के बारे में हुए नये शोध कार्यों ने उनकी छवि बदली है यदि प्रेमचंद पर हुए इस श्रमसाध्य कार्य से उन पर फिर से विचार करने का माहौल बनता है तो यह एक बड़ी बात है। लेकिन कोई भी लेखक जन्मना कुछ भी विचार से नहीं होता। वह क्रमशः विकास करता है और अपने को करेक्ट भी करता चलता है। प्रेमचंद चूंकि व्यक्तिवादी रचनाकार नहीं थे इसलिए कफन' तक आते-आते उनमें अनेक बदलाव हुए वह 'पंच परमेश्वर' पर ही नहीं टिके रह गए। उनमें दृष्टि का विस्तार भी हुआ, वह अपने समय के यथार्थ से टकराए भी और हर जगह सफल ही हुए, यह कहना सही न होगा। उनमें भारतीय जीवन और भारतीयता के अनेक स्तर मौजूद हैं। अंत तक आते-आते गोयनका जब प्रेमचंद पर अंतिम निष्कर्ष देते हुए पहले के आलोचकों की मान्यताओं को एक-एक कर गलत बताने लगते हैं, तो लगता है, इतने बड़े काम का समाहार सीमित न होकर खुला होना चाहिए था किसी भी लेखक पर कोई भी आलोचक अंतिम वक्तव्य दे सकता है. यह मान लेना ठीक न होगा लेकिन गोयनका की यह मान्यता सौ फीसदी सही है कि प्रेमचंद की कहानियों को प्रेचचंदीय पाठ से समझाते हुए ही उनके मर्म तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन उनके कहानीकार की वसीयत का निर्णय कैसे होगा, यह तय करना आसान काम नहीं है। मनुष्य के जीवन की तरह प्रेमचंद भी एक कथा पलेही हैं।