कमलकिशोर गोयनका :एक अनथक यात्री

आलेख


नर्मदा प्रसाद उपाध्याय


परिक्रमा और यात्रा में बहुत अंतर है। परिक्रमा वह होती है जिसमें व्यक्ति बारबार वहीं पहुंचता है जहां से वह चला था। किसी निश्चित गंतव्य तक वह नहीं पहुंच पाता। लेकिन यात्रा वह होती है जिसमें व्यक्ति एक निश्चित गंतव्य तक पहुंचता है, लक्ष्य को प्राप्त करता है और उसके पांव निरंतर गतिमान रहते हैं। इस दृष्टि से आदरणीय गोयनकाजी में मैं एक अनथक यात्री के दर्शन करता हूं। उनके जैसे समर्पित सर्जक हिन्दी जगत में क्या सृजन के संसार में बिरले हैं। उन्होंने अपना पूरा जीवन प्रेमचंद की जीवन यात्रा को उद्घाटित करने में समर्पित कर दिया। प्रेमचंद की प्रशंसा करने वाले, उनके नाम का भरपूर दोहन कर स्वयं को समृद्ध करने वालों की कमी नहीं है लेकिन वे एक ऐसे सृजन यात्री हैं जिन्होंने प्रेमचंद को बिना किसी अपेक्षा भाव के अपने पूरे परिप्रेक्ष्य में प्रकट किया।


शेक्सपियर के कृतित्व के अनेक समालोचक हुए हैं, जोसेफ क्विन्सी एडम्स, ए.सी. ब्रेडले और सेम्युअल टेलर कॉलरिज तथा टी.एस. ईलियट जैसे महान कवियों से लेकर विलियम हेजलिट जैसे निबंधकारों तक लेकिन जिस अवधारणा में सेम्युअल जॉनसन ने शेक्सपियर को बांधा वह ऐसी कालजयी अवधारणा है जिसके कारण शेक्सपियर विश्व के महानतम कृतिकारों में से एक माने जाते हैं। सेम्युअल जॉनसन ने शेक्सपियर को इस रूप में प्रस्तुत किया कि वे केवल एलिजाबेथ युग के न होकर सर्वकालिक हो गए। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि डॉ. कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद को भी इसी रूप में प्रस्तुत किया है। उनके समूचे कृतित्व को उन्होंने न केवल उद्घाटित किया बल्कि उसकेपरिप्रेक्ष्य को भी इस प्रकार स्पष्ट किया कि प्रेमचंद का कृतिकार आज सर्वकालिक है।


हाल ही में उन्होंने मुझे प्रेमचंद की एक कहानी सुनाई जिसमें परिवार नियोजन का संदेश है। उन्होंने कहा कि क्या यह कल्पना की जा सकती है कि तीस के दशक में जब यह कहानी लिखी गई तब कहीं परिवार नियोजन के संबंध में कोई सोच रहा होगा? उन्होंने प्रेमचंद के कृतित्व को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा है। प्रेमचंद विश्वकोश की रचना हिन्दी जगत की अन्यतम उपलब्धि है। प्रेमचंद पर उनकी तीस कृतियां हैंऐसा अद्भुत तर्पण शायद ही किसी कृतिकार का किया गया हो। उन्होंने प्रेमचंद की हिन्दी व उर्दू में लिखी सभी कहानियों का संकलन किया, उनके तमाम पत्रों को एकत्र कर, उनका प्रकाशन किया और उनके जीवन से जुड़े पक्षों की पड़ताल कर उन्हें उद्घाटित किया। इस प्रकार के कार्य का हिन्दी में कोई दूसरा उदाहरण दिखाई नहीं देता।


___अंग्रेजी में कहा जाता है कि शेक्सपियर के लिए जो जॉनसन थे वही जेम्स बॉसवेल जॉनसन के लिए थे जिन्होंने दि लाइफ ऑफ सेम्युअल जॉनसन एलएलडीज जैसी कृति लिखी। गोयनकाजी का कार्य भी इसी श्रेणी का है।


उन पर यह परंपरागत आक्षेप लगता रहा है कि वे प्रेमचंद को हिंदुत्ववादी बतलाते हैं। इसलिए कि वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े हुए हैं लेकिन यह आक्षेप केवल इसलिए लगाया जाता रहा है क्योंकि वे संघ से बचपन से ही जुड़े हुए हैं। वास्तविकता तो यह है कि उन्होंने पूरी निष्पक्षता के साथ तथा प्रमाण सहित प्रेमचंद के कृतित्व को सामने रखा है। प्रेमचंद की वे कहानियां जैसी बलिदान, लाल फीता, मूठ, दूध के दाम, जुर्माना, लांछन, लोकमत का सम्मान व कजरी जैसी कहानियों को सामने लाते हुए उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रेमचंद अपनी इन कहानियों में समाज के दबे कुचले वर्ग के पक्षधर हैं। वे प्रमाण सहित अपनी बात कहते हैं तथा ऐसा करते उनकी दृष्टि एक वैज्ञानिक इतिहासकार की दृष्टि होती है। कहीं अनुमान या परिकल्पना का आश्रय लेकर अपने अभिमत को व्यक्त करने का संस्कार उनके लेखन का नहीं है।


गोयनकाजी की प्रतिभा के अनेक आयाम हैं। उन्होंने गांधी की पत्रकारिता को केन्द्र में रखकर गांधी : पत्रकारिता के प्रतिमान जैसी कृति की रचना की। उन्होंने जहां एक ओर हिन्दी के प्रवासी साहित्य पर शोधपरक कार्य किया तो वहीं दूसरी ओर बालशौरि रेड्डी और रवीन्द्रनाथ त्यागी की ग्रंथावलियों को संपादित किया। इसी प्रकार मंजुल भगत के समग्र कथा साहित्य को संकलित कर उन्होंने अपनी प्रामाणिक सर्जनात्मकता का परिचय दिया। दिनेशनंदनी डालमिया से की गई उनकी बातचीत हिन्दी साहित्य की अप्रतिम धरोहर है क्योंकि हिन्दी में गद्यगीत की विरल परंपरा की वे ध्वजवाहिका रही हैं।


प्रवासी भारतीय साहित्य हमारे साहित्य का एक अभिन्न अंग हैं वे भारतीय जो मॉरिशस, ब्रिटिश ग्याना, ट्रिनिदाद, सूरीनाम और फिजी पहुंच गए तथा वहां गिरमिटिया बनकर इन देशों को गुलजार कर दिया, वे हमारी अस्मिता से ऐसे जुड़े हुए हैं कि उनकी सर्जनात्मकता से हम समृद्ध होते हैं। यद्यपि इन 'कुली' कहे जाने वाले गिरमिटियाओं को वर्ष 1916 में स्वतंत्रता मिली और गिरमिट प्रणाली का अंत हो गया तथा सन् 1920 में वे पूरी तरह स्वतंत्रता के वातावरण में जीने लगे लेकिन उनकी प्रखर संवेदना ने उनके संघर्ष को शब्द दिए, वाणी दी। गोयनकाजी ने इन प्रवासी भारतीयों की संवेदना को संजोया है। हिन्दी का प्रवासी साहित्य उनकी प्रतिभा के इसी आयाम का उद्घोषक है।


गोयनकाजी के कृतित्व का एक महत्वपूर्ण पक्ष है यशपाल पर उनके द्वारा किया गया कार्य । वे यशपाल से बड़े प्रभावित रहे। उनका मानना है कि यशपाल का जीवन भी अपने आप में एक साहित्य है। जितने विविध रंग उनके जीवन में हैं उतना वैविध्य शायद ही किसी और के जीवन में हो। उन्होंने यशपाल के संस्मरण लिखे। यशपाल पर वे और बड़ा कार्य करना चाहते थे लेकिन यशपालजी के निधन के कारण यह संभव नहीं हो पाया। गोयनकाजी ने हाइकू भी लिखे। वास्तव में वे मन से एक कवि ही हैं लेकिन यह एक दुर्लभ संयोग है कि वे वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न अनुसंधानकर्ता बने और उन्होंने यह अनुसंधान प्रेमचंद और यशपाल जैसे कृतिकारों के संबंध में किया जिनके बारे में यह धारणा है कि वे गोयनकाजी की विचारधारा से विपरीत विचारधारा और प्रतिबद्ध चिंतन वाले सर्जक हैं। गोयनकाजी की यही दृष्टि उन्हें कमलकिशोर गोयनका बनाती है। क्योंकि वे प्रेमचंद और यशपाल जैसे सर्जकों के बारे में जब अनुसंधान करते हैं तो उनकी दृष्टि पर कहीं उनकी प्रतिबद्धता हावी नहीं होती और उनके निष्पक्ष और प्रामाणिक आकलन के बारे में यह कह दिया जाता है कि उन्होंने इन कृतिकारों को कहीं अपने रंग में रंगने का प्रयास किया है। ऐसा आक्षेप लगाने वालों के पास कोई प्रमाण नहीं हैं लेकिन अपनी बात की पुष्टि के लिए गोयनकाजी के पास तथ्य भी हैं और प्रमाण भी। इस दृष्टि से ही गोयनकाजी के कृतित्व का आकलन होना चाहिए।


उन्होंने रवीन्द्रनाथ त्यागी जैसे प्रतिभाशाली और विद्वान व्यंग्यकार के कृतित्व को संपादित किया। हिन्दी व्यंग्य साहित्य के क्षेत्र में किया गया यह अप्रतिम कार्य है। रवीन्द्रनाथ त्यागी के व्यंग्य परपरागत रूप से लिखे जाने वाले व्यंग्य से भिन्न हैं। उनकी अपनी शैली है और यह शैली न तो परसाई की शैली है, न शरद जोशी की और न श्रीलाल शुक्ल की। यह शैली एक ऐसी शैली है जिसमें हमारी परम्परा के मूल तत्वों के दर्शन होते हैं। यह शैली आज के सामाजिक सरोकारों को अपनी परंपरा के परिप्रेक्ष्य में देखती है। त्यागीजी हमारे वांग्मय से उदाहरण देते हैं और इन उदाहरणों के माध्यम से वे अपनी सामाजिक चिंता और विसंगतियों को उजागर करते हैं। यह हिन्दी में अपने ढंग का अनूठा प्रयोग है तथा इसे केवल वही कृतिकार समझ सकता था जिसने हमारे वांग्मय की पूरी परम्परा का अनुशीलन किया हो। इन अर्थों में गोयनकाजी ने रवीन्द्रनाथ त्यागी के कृतित्व का सच्चा और सार्थक आकलन किया है।


केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में उपाध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहते उन्होंने हिन्दी की प्रतिष्ठा के लिए जो कार्य किया है वह अद्भुत है। वे निरंतर हिन्दी के विकास की चिंता करते हैं और यह चिंता केवल औपचारिक नहीं है। वे निरंतर संवाद करते हैं, घूमते हैं और प्रयास करते हैं कि हिन्दी के विकास के लिए किस प्रकार नए और मौलिक विचार सामने आएं। यदि कोई विचार उन्हें क्रियान्वयन योग्य लगता है तो फिर उनका प्रयास होता है कि कितनी जल्दी और प्रभावी ढंग से इसे क्रियान्वित किया जाए।


उनके जैसे सर्जक यात्री आज के समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में दिखाई नहीं देते। जाने वह समय कब आएगा जब आलोचना के लिए आलोचना करने की वृत्ति पर विराम लगेगा और सच्ची साधना को मान्यता मिलेगी। यह विचार करने का विषय होना चाहिए कि आपकी वैचारिक प्रतिबद्धता को ही सर्वोपरि मानकर उसे आपके आचरण का पर्याय क्यों मान लेना चाहिए? यदि प्रेमचंद को सही परिप्रेक्ष्य में गोयनकाजी ने प्रस्तुत किया है और प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया है तो फिर यह आरोप क्यों लगना चाहिए कि उन्होंने प्रेमचंद को हिन्दुत्ववादी स्वरूप में प्रगट किया। विचारणीय तो उनका कृतित्व है और यदि उसकी आलोचना की जानी है तो वह तथ्यों व प्रमाणों के आधार पर क्यों नहीं की जाती?


यह एक सनातन सत्य है कि आलोचना के लिए आलोचना की जाती रहेगी लेकिन शाश्वत सत्य यह भी है कि ऐसी आलोचनाओं के अंधकार में कभी साधना और समर्पण का सूरज डूबेगा नहीं। गोयनकाजी जैसे सर्जक कभी परिक्रमा नहीं करेंगे। उनका संकल्प केवल यात्रा का होगा। उनकी नियति अनथक यात्री की है, परिक्रमावासी की नहीं।