कमल किशोर गोयनका से राजेन्द्र परदेसी की बातचीत

साक्षात्कार


गोयनका जी, पहले हमारी युवा पीढ़ी आपके व्यक्तित्व और साहित्यिक जीवन के बारे में जानना चाहेगी, जैसे आपका जन्म स्थान, परिवार, शिक्षा दीक्षा और रचनाधर्मिता आदि?


मुझे प्रसन्नता है कि आज की युवा पीढ़ी मेरे साहित्य कर्म में रुचि रखती है। मेरा जन्म सेठ चंद्रभान गोयनका, शीतलगंज, बुलंदशहर में 11 अक्टूबर 1938 को हुआ था। मेरे दादाश्री सेठ बद्रीदास गोयनका जमींदार थे और बड़े व्यापारी थे। उनकी असमय मृत्यु पर मेरी दादीश्री कुंजिकुंवर ने 16 जून 1916 को शीतलगंज, बुलंदशहर में एक लाख रुपये से श्री लक्ष्मीनारायण जी का भव्य मंदिर बनाया था,जिसका शताब्दीसमारोह हमने अभी 16 जून 2016 को मनाया है। मेरे पिताश्री गांधी के भक्त थे और 'शुद्ध खादी भंडार' के नाम से खादी का बड़ा व्यापार था। मैंने 1958 में बुलंद शहर के डी. ए. वी. डिग्री कॉलेज से बी.ए. किया और कॉलेज में सर्वाधिक अंक प्राप्त किये। मैं एम.ए. (हिन्दी) करने के लिए दिल्ली आया। दिल्ली में मेरी बड़ी बहन सावित्री बाई का विवाह हुआ था और तब दिल्ली आना आसान था। मैंने 1961 में दिल्ली विवि से हिन्दी में एम.ए. किया और प्रथम श्रेणी प्राप्त की। इसके बाद सितंबर 1962 में मैं दिल्ली कॉलेज (अब जाकिर हसैन दिल्ली कॉलेज, सांध्य) में हिन्दी का प्रोफेसर हो गया और 2003 में रिटायर हुआ। मेरे गुरुओं में डॉ. नगेन्द्र, उदयभानु सिंह, दशरथ ओझा, ओमप्रकाश, तारकनाथ बाली जैसे प्रतिष्ठित अध्यापक थे जिनसे मुझे साहित्य की समझ मिली। मेरा जैनेन्द्र कुमार, प्रभाकर माचवे, विष्णुप्रभाकर, विद्यानिवास मिश्र, कमलेश्वर, कन्हैयालाल नंदन, गोपालराय, कृष्णदत्त पालीवाल, चित्रा मुद्गल, चंद्रकांता, राजी सेठ, रमेशचंद्र शाह, गोविंद मिश्र, अभिमन्यु अनत आदि अनेक लेखकों से घनिष्ठ संबंध रहे हैं और इनके संसर्ग से साहित्यसंसार को और भी निकटता से जानने का सुअवसर मिला। मैं तो एक छोटे से शहर बुलंदशहर से दिल्ली आया था, किंतु दिल्ली की साहित्यिक दुनिया ने मुझमें साहित्य संस्कारों का विकसित किया और इस दुनिया का अंग बनता चला गया। मेरे प्रेमचंद संबंधी कार्यों ने मुझे देश विदेश में प्रतिष्ठा दी और 'प्रेमचंद स्कॉलर के रूप में मेरा उल्लेख किया जाने लगा, जबकि मैंने कभी ऐसा कोई दावा नहीं किया।


आपने लेखन कब आरंभ किया? आपके प्रेरणा-स्रोत क्या थे? आपकी प्रथम रचना कब और कहां प्रकाशित हुई?


जब मैं बी.ए. (1956-58) कर रहा था, तब हिन्दी साहित्य मेरा एक विषय था। तब साहित्य से परिचय हो रहा था और मेरे पिताश्री का एक पुस्तकालय था जो हमारे मंदिर में स्थित था। इस पुस्तकालय से 'चांद', 'माधुरी', 'प्रभा', 'हंस', 'कल्याण' आदि पत्रिकाओं तथा विपुल साहित्य से संपर्क में आने का अवसर मिला। इससे लेखन के संस्कार मुझ में पैदा हुए। मेरी मां ने 'गीता' तथा 'रामचरित मानस' का पाठ करने की प्रवृत्ति 10-12 वर्ष की आयु से ही डाल दी थी। मैंने आरंभ में कुछ गीत लिखे थे, जैसे कि युवावस्था में प्रायः लोग लिखते हैं। कुछ गीत कॉलेज की पत्रिका में छपे थे। मैं जब दिल्ली एम.ए. करने आया तो कुछ कहानियां भी लिखीं जो 'हिंदुस्तान' आदि अखबारों में छपी, किंतु कविता-कहानी के स्थान पर मेरा रुझान आलोचना और अनुसंधान की ओर होता गया। प्रेमचंद पर मेरा पहला लेख 1961 में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद तो आलोचना और शोध ही मेरा मुख्य कर्म हो गया।


आपकी लिखित रचनाओं की प्रमुख प्रवृत्तियां क्या हैं? इस संदर्भ में विस्तार से कुछ कहें।


मेरे पिताश्री कांग्रेसी थे। सारा जीवन खादी पहनी, भोर होते ही घूमने जाते और बाग में निवृत्त होकर आते। फिर पूजा करते तब नाश्ता करते, किंतु उनके पुत्रों में कोई कांग्रेसी नहीं हुआ। मैं 10 वर्ष की आयु में ही शाखा जाने लगा था। मेरे सबसे बड़े भाई राष्ट्रीय स्वयं सेवक में थे, जिसका प्रभाव हम सब भाइयों पर पड़ा। इस प्रकार मेरी सोच राष्ट्र भाव, सामाजिक जागृति, स्वराज्य, सांस्कृतिक उत्कर्ष, धार्मिक, विश्वास (अंध विश्वास नहीं) आदि से निर्मित हुई। बी.ए. करने तक मैंने मार्क्स का नाम सुना था, किंतु उसके दर्शन की जानकारी नहीं थीमेरी कक्षा में नरेन्द्र शर्मा नाम का एक सहपाठी था जो कभी कभी कम्युनिज्म की बात करता था, परंतु हम सभी उसके साथ नोक-झोंक करते रहते थे। बुलंदशहर जैसे छोटे शहर में मार्क्सवाद की उस समय चर्चा असंभव ही थी। वह तो आज भी वहां अनजाना सा शब्द है । मैं जब दिल्ली आया तो हमारे अध्यापकों में कोई मार्क्सवादी अथवा प्रगतिशील अध्यापक नहीं था। इससे भी प्रगतिशील आंदोलन से दूरी बनी रही और प्रगतिशील लेखकों से कभी आत्मीय संबंध नहीं हो पाये। उस समय काफी रूसी पत्रिकाएं हिन्दी में छपती थीं और मैं सोवियत भूमि' आदि पत्रिकाओं का पाठक भी था, किंतु 'सोवियत भूमि' पुरस्कारों तथा ताशकन्द में प्रोफेसरों की नियुक्ति आदि होती गईं, वैसे-वैसे रूसी मार्क्सवाद तथा भारतीय प्रगतिशील आंदोलन के प्रति वितृष्णा तथा आलोचनात्मक दृष्टि बनती चली गयी। रूस में भीष्म साहनी, 'मधु' आदि ने हिन्दी के लिए बहुत कार्य किया, किंतु अधिकांश प्रगतिशील लेखक रूस के चाकर बनकर रह गये। पं. जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, नूरुल हसन, नामवर सिंह आदि ने इन भारतीय कम्युनिष्ट लेखकों को देश-विदेश में इतना स्थापित किया कि इनके वंशज आज भी विश्वविद्यालयों में कब्जा किये हुए हैं। प्रगतिशील लेखक समाज तथा तथाकथित मार्क्सवादी चिंतकों ने सर्वहारा के उद्धार, उत्थान और उत्कर्ष के स्थान पर अपना ही उत्थान, उत्कर्ष किया और अपने प्रतिकूलों की निंदा, अपमान के साथ अवरोधक बन गये। इन्होंने मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में चयन के बावजूद प्रोफेसर नहीं होने दिया और दो पुस्तक समीक्षाओं की पुस्तक के कम्युनिष्ट को प्रोफेसर बना दिया। यदि चार पांच दशकों को हिन्दी साहित्य बना दिया। यदि चार-पांच दशकों का हिन्दी साहित्य के इतिहास पर शोध किया जाये तो इन प्रगतिशीलों के अपराधों का पूरा चिट्ठा सामने आ जायेगा। इधर मोदी सरकार में भी ये घुसपैठ कर रहे हैं, आखिर ऐसी राजनीतिक चालबाजी और अवसरवादिता में ये सिद्धहस्त हैं।


अपनी साहित्यिक प्रवृत्तियों के स्पष्टीकरण के लिए इस पृष्ठभूमि का स्पष्टीकरण आवश्यक था। मेरी सोच का मूलाधार प्रेम है, उसकी भौगोलिक एवं सांस्कृतिक एकता है, अनेकता में एकता का दर्शन है, सुधार तथा सामंजस्य को संकल्प है और देश को शक्तिशाली देखने का स्वप्न है।


गोयनका जी, प्रेमचंद- साहित्य के अवदान में आपने विशेष रुचि प्रदर्शित की है, क्यों?


मैं समझता हूं, मैं ही नहीं आप भी और साहित्य से संबद्ध अन्य लोग भी प्रेमचंद के अवदान के प्रति आकर्षित रहते हैं। प्रेमचंद की जीवितावस्था भी में पूरा देश तथा जापान जर्मनी देश भी उनके साहित्य के प्रेमी थे। प्रेमचंद बाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसी आदि की परंपरा के लेखक हैं जो शताब्दियों तक लोक मानस में बने रहते हैं और उनका अवदान पीढ़ी दर पीढ़ी स्मृति के रूप में बना रहता है। मेरी रुचि का आरंभ एम.ए. करते ही हो गया था और पी.एच.डी. का मेरा विषय भी प्रेमचंद ही था। पी.एच.डी. के दौरान प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य पढ़ा तो उनकी राष्ट्रीयता, संस्कृति बोध, जागरण एवं दासत्व से मुक्ति, भेदभाव एवं धार्मिक कट्टरता से मुक्तिउच्च मानवीयता, लघु मानव तथा ग्रामीण संस्कृति की रक्षा एवं प्रतिष्ठा, राष्ट्रीय कायाकल्प का संकल्प तथा व्यापक भारतीय समाज का चित्रण एवं भारतीय आत्मा की रक्षा आदि ने सदैव के लिए मुझे प्रेमचंद का बना दिया। चूंकि मेरे संस्कार तथा विचार भी यही थे, इस कारण प्रेमचंद के साथ सहज में ही एकात्व भाव उत्पन्न हो गया।


प्रेमचंद की कहानियां यथार्थ के चित्रण पर आधारित हैं। क्या उसके बाद कहानी लेखन की यह दिशा जारी रह सकी?


परदेसीजी, प्रेमचंद की कहानियां केवल यथार्थ-चित्रण पर आधारित नहीं है। उनमें यथार्थ के साथ आदर्श संगम है जिसे प्रेमचंद ने 'आदर्शोन्मुख यथार्थवाद' कहा है अर्थात यथार्थ की ओर उन्मुख है। उनकी लगभग 300 कहानियों में 95 प्रतिशत प्रवृत्ति इसी आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की है। उनकी कुछ कहानियों के आधार पर ('सद्गति', 'ठाकुर का कुआं', 'पूस की रात', 'कफन', आदि) आप उनकी शेष कहानियों पर शुद्ध यथार्थवाद को आरोपित नहीं कर सकते हैं। उनकी कहानियों को यथार्थवाद को आरोपित नहीं कर सकते हैं। उनकी कहानियों को यथार्थवाद तक सीमित करके उनकी संवेदना को सीमित करने का अपराध करते हैं। प्रेमचंद ने अपने कहानी-दर्शन का प्रतिपादन 'आदर्शोन्मुख यथार्थवाद' के रूप में किया है। यदि आप इसमें से 'आदर्श' को हटा देंगे तो आप उनकी कहानियों की आत्मा और शक्ति को नष्ट कर देंगे। जहां तक प्रेमचंद की परंपरा का सवाल है, वह तो इसी 'आदर्शोन्मुख यथार्थवाद' के आधार पर ही स्वीकृत होगी, वैसे प्रेमचंद के यथार्थवाद का सहारा लेकर अनेक कहानीकारों ने कहानियां लिखी हैं, और अज्ञानतावश शुद्ध यथार्थवाद को प्रेमचंद की देन मान लिया गया। हिन्दी कहानी में अब दोनों ही परंपराएं चल रही हैं और दोनों ही इसका श्रेय प्रेमचंद को देते हैं।


कुछ कहानीकारों ने प्रेमचंद की दिशा को बदलने का प्रयास किया और मनोविज्ञान को कहानी का अधार बनाया, ऐसी कहानियां क्यों नही लोकप्रिय हुईं?


परदेसी जी, कहानी में मनोविज्ञान का प्रयोग करने वाले प्रेमचंद पहले कहानीकार थे। खेद है, हिन्दी आलोचक इस तथ्य को भूल गये। प्रेमचंद ने आधुनिक कहानी के लिए मनोविज्ञान को एक अनिवार्य प्रवृत्ति बताया है। प्रेमचंद हिन्दी उपन्यास और कहानी में मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों के प्रथम प्रयोक्ता थे। मेरे शोध प्रबंध 'प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प-विधान' (1972) में लगभग 150 पृष्ठों में मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों के प्रयोग का ही विवेचन हैं। प्रेमचंद ने फ्रायड को पढ़ा था और स्वप्न मनोविज्ञान पर स्वप्न (1930) कहानी लिखी थी। यह सच है कि प्रेमचंद ने अपने पात्रों को इलाचंद्र जोशी, अज्ञेय आदि के समान मनोरोगी नहीं बनाया, किंतु उन्होंने मनोविज्ञान के साथ जीवन का सम्मेलन कियाआप, 'निर्मला' उपन्यास में तोताराम, निर्मला, मंसा आदि का चरित्र मनोविज्ञान के सिद्धांतों के आधार पर देखें तो आप अपनी मान्यता बदल लेंगे। प्रेमचंद मानवीय मनोविज्ञान के बिना इतने बड़े लेखक नहीं हो सकते थे। वे अवश्य ही असामान्य और मनोरोगी पात्रों से दूर रहे हैं, पर मनोविज्ञान का वे भरपुर प्रयोग करते हैं। आप 'बढी काकी' तथा 'कफन' तक में मनोविज्ञान का सौंदर्य मिलेगा।


वर्तमान में हिन्दी कहानी का जो स्वरूप है, क्या आप उससे संतुष्ट हैं?


प्रेमचंद के बाद कहानी का बहुत विस्तार हुआ है। नई संवेदनाएं आई हैं। शिल्प में भी नये प्रयोग हुए हैं। हिन्दी कहानी के विकास के बावजूद वर्तमान में मुझे कोई प्रेमचंद दिखाई नहीं देता।


वर्तमान में हिन्दी कहानी का जो स्वरूप है, क्या आप उससे संतुष्ट हैं?


प्रेमचंद के बाद कहानी का बहुत विस्तार हुआ है। नई संवेदनाएं आई हैं। शिल्प भी नये प्रयोग हुए हैं। हिन्दी कहानी के विकास के बावजूद वर्तमान में मुझे कोई प्रेमचंद दिखाई नहीं देता।


क्या आज का कहानी लेखन लोकतांत्रिक और प्रशासनिक व्यवस्था का वास्तविक प्रतिनिधित्व कर रहा है?


कोई भी रचनाकार किसी व्यवस्था का प्रतिनिधित्व नहीं करता। वह जिस व्यवस्था में रहता है, उसका जो अंश वह देख पाता है, वह उसी का चित्रण करता है। इस समय देश में लोकतंत्र है तो स्वाभाविक है भारतीय लोकतंत्र उसके परिदृश्य में है, परंतु उसका संपूर्णतः चित्रणा करना एक लेखक के लिए संभव नहीं होता। लोकतंत्र को आत्मा के धरातल पर जीने वाला लेखक ही लोकतंत्र का प्रतिनिधि हो सकता है, पर वह यदि प्रशासनिक व्यवस्था का अंग बनता है तो वह लेखकीय धर्म का दुरुपयोग करता है।


आज का कथा साहित्य क्या आधुनिक जीवन की विसंगतियों, विषमताओं और विद्रूपताओं से ही प्रभावित हो रहा है अथवा परंपरा से संबंद्ध होकर प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त कर रहा है?


आप ठीक कहते हैं। आज का साहित्य जीवन की विसंगतियों, विषमताओं और विद्रूपताओं से घिरा है, परंतु जीवन के कालुष्य का उद्घाटन उसका धर्म है। आपको हर महान कृति में जीवन का अंधकार पक्ष अवश्य मिलेगा, लेकिन उसमें जीवन को प्रकाशित करने वाला दीपक भी होता है, अंधकार से प्रकाश की यात्रा भी होती है, नर्क में स्वर्ग की आकांक्षा भी होती है। यदि साहित्य में मानवीय उत्कर्ष का यह भाव नहीं होगा तो अपने समय में ही निष्प्राण हो जायेगी। अतः साहित्य के परंपरागत मूल्यों को बार-बार जीवित रखना और मुखरित करते रहना प्रत्येक काल में लेखकीय धर्म बना रहेगा।


आजकल दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की बड़ी चर्चा है। इन दोनों के संबंध में आपका क्या मत है?


आप ठीक कहते हैं, साहित्य कई विमर्शों में बंटता जा रहा है। अब ‘आदिवासीविमर्श', 'प्रवासी-विमर्श', 'बाल विमर्श आदि की भी चर्चा होने लगी है। मुझे इन विमर्शों से कोई तकलीफ नहीं है, परंतु 'स्त्री विमर्श' लेखिकाओं तक तथा 'दलित विमर्श' दलित लेखकों तक सीमित होता जा रहा है। साहित्य को यदि जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र आदि में बांट देंगे तो हम साहित्य की एकात्म शक्ति और सामंजस्व पर आघात करेंगे। हमारा समाज पहले से ही धर्म, जाति, क्षेत्र आदि में विभक्त है, कम से कम हमें साहित्य को तो इस विभाजन से बचाना चाहिए। डॉ. नामवर सिंह ने एक बार (जो 'जनसत्ता' में छपा था और उस पर मेरा उत्तर 'नामवर सिंह का आलोचना विवेक' शीर्षक से उसी अखबार में छपा) मुझे मारवाड़ी लेखक कहा था तब मैंने इस प्रवृत्ति का विरोध किया था। वैसे, स्त्री और दलित विमर्श से यह लाभ अवश्य हुआ है कि हिन्दी साहित्य नई दिशाओं की ओर विकसित हुआ है और इन विषयों पर गंभीर चर्चा शुरू हुई है, लेकिन कहीं-कहीं दुराग्रह भी मिलता है। दलित लेखक प्रेमचंद की दलित कहानियों को दलित कहानी ही नहीं मानते और 'कफन' कहानी को अपमान जनक मानते हैं और 'रंगभूमि' उपन्यास के नायक सूरदास को दलित होने पर तथा उसके संक्षिप्त रूप को हायर सेकेंडरी बोर्ड के पाठ्यक्रम में लगाने पर उसे सार्वजनिक रूप से जलाया गया था।


आजकल ढेरों साहित्य लिखा जा रहा है, पर उसके कालजयी और सार्थक होने की स्थिति पर प्रायः प्रश्नचिन्ह लगते हैं उस संदर्भ में आपके क्या विचार हैं?


परदेसी जी आपका निष्कर्ष पूर्णतः सत्य है। रचना वही कालजयी होती है जो काल का अतिक्रमण करती है, जो अपने वर्तमान और भविष्य दोनों में सार्थक एवं जीवंत होती है। तुलसीदास का 'स्वांतः सुखाय' जब सबका सुखाय बनता है, तब साहित्य कालजयी होती है। आज का लेखक अपने वर्तमान में उलझा है, उसे मानवता का शाश्वत रूप आकर्षित नहीं करता है। आधुनिक युग के प्रेमचंद आज भी सार्थक हैं और वे कालजयी लेखक हैं। आज विपुलता में साहित्य आ रहा है, लगभग दस हजार से ज्यादा पुस्तकें हिंदी में छपती हैं, किंतु एक भी 'गोदान' जैसी कालजयी कृति नहीं है। यह चिंताजनक है। क्या ऐसा तो नहीं है कि लेखक में प्रतिभा का ही क्षय हो रहा है?


आज का साहित्यकार किसी न किसी रूप में राजाश्रय पाने की दिशा में सोचने लगा है। आपके विचार में कहां तक यह साहित्य के हित में है?


आप ठीक कहते हैं। आज के अधिकांश लेखक राजाश्रय के भूखे हैं। जिन लेखकों को राजाश्रय प्राप्त रहा है, उनकी चाटुकारिता करने वाले भी असंख्य मिल जाएंगे। एक लंबे समय तक डॉ. नामवर सिंह को राजाश्रय प्राप्त था तो उन्होंने अपने इस प्रभाव से अनेकों को पुरस्कार दिलवाये, प्रोफेसर बनाया, पाठ्यक्रमों में स्थान दिलवाया और अनेक प्रकार से सरकारी सहायता दिलवाई। इस प्रकार का राजाश्रय अन्य किसी लेखक को अब तक नहीं मिला है। राजेन्द्र यादव ने उनके ऐसे राजाश्रय पर काफी चुटकी ली है। इस राजाश्रय ने कई पीढ़ियों को अपने वश में किया और आज भी नये-नये लेखक किसी न किसी का सहारा लेना चाहते हैं, पर प्रतिष्ठा प्रतिभा से मिलती है, राजाश्रय से नहीं। शॉर्टकट लेखक के लिए हानिकारक है।


आप दीर्घकाल से साहित्य के सृजन में संलग्न है, प्रभूत सृजन भी किया है, आपके साहित्य का जो मूल्यांकन हुआ है या हो रहा है, उससे आप कहां तक संतुष्ट हैं?


आपके इस प्रश्न में उत्तर में एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। इसके उत्तर में मुझे 40 वर्षों का इतिहास लिखना होगा जो यहां संभव नहीं है। आपको मालूम होगा कि मेरा प्रमख काम प्रेमचंद पर है। उनके जीवन, साहित्य और विचार पर मेरी 30 पुस्तकें हैं और सैकड़ों लेख हैं। मेरे प्रेमचंद संबंधी कार्य की आलोचना तथा गालीगलौज, धमकी ओर अपमान आदि प्रगतिशील लेखकों ने की जो 1973-74 से ही शुरू हो गई थी। सुधीश पचौरी, मलयज आदि ने बीसवीं सदी के आठवें दशक में मेरे विरुद्ध टिप्पणियां कीं और 'प्रेमचंद जन्म शताब्दी' (1980-81) में तो नामवर सिंह. शिवकमार मिश्र आदि अनेक प्रगतिशीलों ने मेरे विरुद्ध जैसे मोर्चा ही खोल दिया। इससे सारे देश में जहां-जहां प्रगतिशील लेखक संघ क्रियाशील था, वहांवहां के प्रगतिशील लेखकों ने मेरे प्रेमचंद संबंधी कार्य की तर्कहीन आलोचना शुरू कर दी और मुझे देख लेने तक की धमकी दी गई। मैंने प्रेमचंद के जीवन के कुछ अज्ञात तथ्य दस्तावेजों के आधार पर उद्घाटित किये थे, जैसे प्रेमचंद के गरीब होने का मिथक झूठा है, प्रेमचंद ने अपनी पुत्री के विवाह में दहेज दिया, पुत्री के लिए भूत प्रेत भगाने का यज्ञ कराया, प्रवासीलाल वर्मा 'मालवीय', पर गलत दोष लगाया आदि ऐसे अनेक प्रसंग दस्तावेजों के साथ विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। प्रेमचंद पर कोई गोष्ठी हो और वक्ताओं में प्रगतिशील लेखक हों तो मुझे अवश्य ही अपमानजनक शब्दों में याद किया जाता रहा है और इसे ही वे वैज्ञानिक आलोचना कहते हैं। मैंने चार दशकों तक इस अपमानजनक, मूर्खतापूर्ण तथा तर्कहीन आलोचना का दंश झेला है, लेकिन मैंने प्रायः सभी का उत्तर दिया है और संवाद के लिए आमंत्रित किया है, पर कोई भी वामपंथी सामने नहीं आया। मैंने प्रेमचंद को मार्क्सवादी बनाने का तथा उन्हें यथार्थवादी सिद्ध करने का अनेक बार सतर्क खंडन किया है और नामवरसिंह के आलोचना विवेक पर भी प्रश्न उठाये हैं, किंतु किसी ने प्रतिउत्तर देने का साहस नहीं किया। यहां यह बताना जरूरी है कि जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेय, प्रभाकर माचवे, विष्णु प्रभाकर, धर्मवीर भारती, विष्णुकांत शास्त्री, विद्यानिवास मिश्र, विवेकीराय, मृणाल पांडे, रघुवंश, गोपालराय, बालशौरि रेड्डी, देवेश ठाकुर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, राजेन्द्र यादव, विनय, विजय, बहादुर सिंह आदि अनेक प्रतिष्ठित लेखकों-आलोचकों ने मेरे प्रेमचंद संबंधी कार्य पर लिखा है और उसकी प्रशंसा की हैमुझे प्रशंसा और आलोचना दोनों खूब मिली है, परंतु मैं प्रशंसा से फूला नहीं तथा आलोचना से हारा नहीं। आज भी मैं प्रेमचंद कर काम कर रहा हूं। इधर की कुछ नई पुस्तकें हैं-(1) प्रेमचंद : कहानी रचनावली (छ: खंड), (2) प्रेमचंद की दलित कहानियां, (3) गो-दान : प्रथम संस्करण, (4) नया मानसरोवर (आठ खंड,) (5) प्रेमचंद : अनछुए प्रसंग, (6) प्रेमचंद : वाद, विवाद और संवाद, (7) प्रेमचंद : कहानी कोश, (8) प्रेमचंद की कहानियों का काल क्रमानुसार अध्ययन, (9) प्रेमचंद (मोनोग्राफ), (10) प्रेमचंद : प्रतिनिधि संचयन, (11) प्रेमचंद : कुछ संस्मरण, (12) प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प विधान आदि।


आज के युग में सर्जक और आलोचक के बीच की खाई निरंतर बढ़ती जा रही है। यह खाई कैसे पट सकेगी?


परदेसी जी, यह खाई तो हमेशा रही है और आगे भी रहेगा। दोनों की विचार दृष्टि तथा कर्म भिन्न-भिन्न हैं, अतः दोनों में मित्रता का होना असंभव ही है। असल में लेखक आलोचक से अपने कृतित्व की प्रशंसा चाहता है और वह इसके लिए आलोचक को तैयार भी करता है, किंतु कुछ आलोचक मित्रता नहीं निभाते और कृति अथवा कृतिकार की अपने विवेकानुसार आलोचना करते हैंयहां तक कि प्रेमचंद ने जैनेन्द्र को 'गो-दान' भेजते हुए लिखा था कि यदि उपन्यास पसंद न आये तो आलोचना मत लिखना। हिंदी में अब स्थिति यह है कि आलोचना पर पाठकों का विश्वास नहीं रहा है और लेखक भी किसी अनजान आलोचक से अपनी कृति की समीक्षा कराना नहीं चाहता है। आलोचना का स्तर निश्चय ही गिरा है और आलोचना में शोध-कर्म की तो उपेक्षा ही कर दी गई है।


अपने अनुभव के आधार पर युवा पीढ़ी को सृजन के लिए कुछ संदेश देना चाहेंगे?


मेरे विचार में संदेश का कोई असर नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुभवों से ही सीखता है, लेकिन आपने पूछा है तो मेरा कहना है- युवकों को खूब अध्ययन करना चाहिए, कई भावनाएं सीखें, साहित्य पर बहस करें, पत्र पत्रिकाओं को साथी बनायें, गोष्ठियों में हिस्सा लें, अभिनव तरीके से सोचें, जीवन का लक्ष्य करें और सफलता प्राप्ति तक कर्मशील रहें। पराजित और हताश न हों, जीवन और कर्म को एक बना दें। सफलता आपके दरवाजे पर खड़ी मिलेगी।