'कफन' कहानी : मृत्यु नहीं, जीवन की कहानी है

आलेख


कमल किशोर गोयनका


 'कफन' (दिसंबर 1935) कहानी प्रेमचंद की सबसे अधिक चर्चित, विवादास्पद एवं लोकप्रिय कहानी है। 'कफन' कहानी पर दृष्टिकोणों, विचारों और वादों से विचार-विवेचना हुई है, यदि उसे यहां उद्धृत किया जाये तो एक पूरी पुस्तक ही तैयार हो जायेगी। इन सभी में राजेन्द्र यादव के इस मत की विवेचना अधिक हुई है कि 'कफन' हृदय स्तब्धता या विजड़ित संवेदना की कहानी है। इस स्थापना के दो आधार हैं-एक आलू खाने के लालच में घीसू-माधव का बुधिया को मरने देना, और दूसरा, दोनों का कफन के पैसों से शराब पीना और मस्ती में झूमना-नाचना। ये दोनों ही अमानवीय एवं संवेदना शून्यता की घटनाएं हैं, परंतु कहानी का सारा वातावरण ऐसा नहीं है। उसमें संवेदना और मानवीयता से परिपूर्ण प्रसंगों की कमी नहीं है। घीस में हमदर्दी का भाव है। उसकी औरत मरी तो वह तीन दिन तक उसके पास से हिला भी नहीं था। वह माधव से प्रसव-वेदना से चीखती बुधिया को देखने संभालने को कहता है। बुधिया मरती है तो पड़ोसी सांत्वना देते हैं और गांव की नर्म दिल वाली स्त्रियां आंसू बहाने आती हैं तथा गांव के दूसरे लोग कफन तथा लकड़ी को एकत्र करने में मदद करते हैं। यह सब गांव की सामूहिक संवेदना का प्रमाण है। माधव का दो बार रोना भी भावावेग ही है। हंसना और रोना दोनों ही मनुष्य की संवेदना का प्रमाण है। माधव का दो बार रोना भी भावावेग ही है। हंसना और रोना दोनों ही मनुष्य की संवेदनशीलता के अंग हैं। 'गोदान' (जून 1936) में प्रो. मेहतायही बात गोविंदी से कहता है, "मैं कहता हूं, अगर तुम हंस नहीं सकते और रो नहीं सकते, तो तुम मनुष्य नहीं हो, पत्थर हो।" प्रेमचंद की भी एक लेखक के रूप में यही राय है। उन्होंने 'हंस' के मई 1935 के अंक में लिखा था कि साहित्य भावुकता की वस्तु है, लेकिन आदर्श साहित्य वही है जिसमें बुद्धि और भावुकता का कलात्मक सम्मिश्रण होता है। यदि रचना में हंसने और रोने के भावुक क्षण नहीं हैं तो ऐसा सूखा साहित्य अगर अमृत भी हो तो पड़ा-पड़ा भाप बनकर उड़ जायेगा और जनता के मनोभावों का स्पर्श भी न कर सकेगा। स्पष्ट है, प्रेमचंद अपनी किसी भी रचना को संवदेना शून्य नहीं बनाना चाहते हैं । माधव के व्यवहार और विचारों में तो मनोभावों और मनुष्यता का रंग है । वह पत्नी के प्रति कृतज्ञ है, क्योंकि उसके कारण ही उसे वह भोज मिला जो उम्र भर न मिला था। वह 'दुख और निराशा' में चीख मार-मारकर रोता है यह सोचकर कि बुधिया ने जीवन में कितना दुःख झेला है। उसका मनुष्यत्व एक भिखारी को देखकर जाग्रत होता है और वह बची हुई पूड़ियां उसे दे देता है और लेखक इस पर लिखता है कि उसे पहली बार 'देने' का गौरव, आनंद एवं उल्लास का अनुभव होता है। यह आत्मिक गौरव और आह्लाद तो माधव को उस समय भी नहीं मिला था, जब वह मधुशाला में बैठकर जीवन की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर रहा था। माधव की ये आनंदानुभूति चाहे एक-दो क्षण लिए ही थी, परंतु लेखक उसके व्यक्तित्व के मानवीय तथा सकारात्मक पक्ष का उद्घाटन कर देता है। ये सारे प्रसंग ‘कफन' कहानी को विजड़ित संवेदना की कहानी की स्थापना पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं।


_ 'कफन' (दिसंबर, 1935) कहानी में तीन परिच्छेद हैं, दो पात्र और दो ही रंगमंच हैं। कहानी की प्रमुख घटनाएं गांव और मुधशाला में घटित होती हैं। घीसू माधव ही दोनों स्थानों पर कथा का विकास करते हैं, लेकिन उनकी मनः स्थिति, परिवेश और क्रिया व्यापार भिन्न भिन्न हैं। गांव में चीख है, मौत है, अमानुषीय व्यवहार है और कफन के लिए पैसे एकत्र करने की भाग-दौड़ है, और मधुशाला में जीवन की जगह मौत को सम्मान देने पर आपत्ति है, मदिरा है, चिर अभिलाषित भोजन है, गौरव आनंद उल्लास है, परलोक-वैकुंठ आत्मा-परमात्मा में विश्वास है, नशे में अस्थिरता, विस्मृति और कृतज्ञता है और अंत में कबीर का एक पद है जो धार्मिक कर्मकांड को असत्य कहता है। माधव मधुशाला में प्रवेश से पहले एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हुए कहता है, “कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढंकने को चीथड़ा भी न मिले उसे मरने का नया कफन चाहिए।" यह हमारी सामाजिक धार्मिक व्यवस्था की विडंबना पर गहरा व्यंग्य है। यह कहानी में पहला बौद्धिक हस्तक्षेप है जो विचार के लिए एक सूत्र देता है। यह वाक्य जीवन और मृत्यु के संबंध में हमारी सामाजिक-धार्मिक धारणाओं पर आघात करता है। जीवन से अधिक समाज मृत्यु को सम्मान देता है तभी मृतक को नया कफन और जीवित को फटा वस्त्र भी उपलब्ध नहीं कराता है। यह माधव ही नहीं, कहानी भी यह प्रश्न उठाती है कि हमारे समाज में जीवन का महत्व एवं सम्मान मृत्यु से कम क्यों है? हमारी यह परंपरा, विश्वास और कर्मकांड जीवन विरोधी है, क्योंकि मृत्यु जीवन से श्रेष्ठ नहीं है। वास्तव में जीवन ही श्रेष्ठ है और वही सत्य है। जीवन है तो अभिलाषाएं और लालसाएं भी होंगी। और उन्हें तृप्त एवं पूर्ण करने के लिए उचित अनुचित साधनों का उपयोग होता ही रहेगा।


घीसू माधव के अंतर्मन की दुनिया कफन के लिए एकत्र पांच रुपये हाथ में आते ही बदलने लगती है। कफन खरीदने का विचार कमजोर होता जाता है और जीवन की सबसे बड़ी लालसा पंख फड़फड़ाने लगती है। इस लालसा के प्रकट होने से पहले वे क्या कफन खरीदने के अनौचित्य पर तीन तर्क प्रस्तुत करते हैं-रात को कौन कफन देखता है इसलिए कफन कैसा भी हो सकता है, जीवित को जब चीथड़ा भी नसीब नहीं है तो मृतक को नया कफन क्यों मिलना चाहिए तथा कफन तो लाश के साथ जल जाता है तो वह नया हो या पुराना, क्या फर्क पड़ता है। इन्हीं विचारों के साथ वे बाजार जाते हैं तथा कफन के लिए तरह-तरह के कपड़े देखते हैं, परंतु उन्हें कोई कपड़ा जंचता नहीं है, और वे लेखक के अनुसार, 'दैवी प्रेरणा' और 'पूर्व निश्चित व्यवस्थानुसार' एक मधुशाला के अंदर चले जाते हैं। यहां लेखक के ये दोनो कारण बुद्धिगम्य नहीं है, क्योंकि कोई दैवीय प्रेरणा तथा पूर्व निश्चित व्यवस्था के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करेगा और यदि कोई दैवीय शक्ति है भी तो वह क्यों मृतक के अंतिम संस्कार की अपेक्षा उन्हें क्यों मदिरालय में भेजना चाहेगी? लेखक ने प्रकट में कोई तर्कसंगत कारण नहीं दिया है, परंतु कहानी के आरंभ में हमें एक सबल कारण मिलता है। घीसू आलू खाते समय ठाकुर की बारात में दावत का स्वाद ले-लेकर बखान करता है और माधव इस भोज का मन ही मन आनंद लेता है। इससे माधव के मन में भी ऐसे ही भोज की लालसा उत्पन्न होती है। वह कहता भी है, “अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता।" माधव की यह लालसा कहानी की भावी घटनाओं को रचती है और उसे चरम परिणिति तक ले जाती है। माधव की लालसा के उत्पन्न होने के बाद ही बुधिया की मौत होती है, कफन के पांच रुपये बाप-बेटे के हाथ में आते हैं और उनके अंतर्मन में उभरी लालसा उन्हें मधुशाला के तृप्ति-स्थल पर जैसे खींचकर ले जाती है। घीस तो ठाकर की दावत में भरपेट स्वादिष्ट भोज का आनंद ले चुका था, परंतु वहां शराब नहीं मिली थी। माधव तो इन दोनों ही आनंदभूतियों से वंचित था, परंतु दोनों के मन एक जैसे ही विचार से आंदोलित होते हैं। लेखक लिखता है, "दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे।" दोनों के मन में मधुशाला कौंध रही थी और दोनो एक-दूसरे की इस लालसा को समझ रहे थेइस कारण वे मधुशाला के सामने पहुंचकर एक साथ अंदर चले जाते हैं।


___ घीसू-माधव मधुशाला में पहुंचकर दोनों जरा देर के लिए असमंजस में खड़े रहते हैं। उनके अंदर आने तक उनके मन में कोई ग्लानि, पश्चाताप, दुविधा या अपराध-बोध नहीं है परंतु शराब की बोतल खरीदने से पहले असमंजस में खड़े रहते हैं। लेखक इस 'असमंजस' शब्द से उनके अंतर्द्वद्व को प्रकट करता है कि कफन के पैसों से शराब पीना पाप कर्म तो नहीं है? घीसू तो बहुत दुनिया देख चुका था, लेकिन माधव तो ऐसा कार्य पहली बार करने जा रहा था इसलिए लेखक माधव के मन में पाप-बोध उत्पन्न करता है, क्योंकि मधुशाला का पूरा आनंद तो पापी मन से लिया नहीं जा सकता था। इसी कारण माधव अपनी 'निष्पापता' के लिए देवताओं को साक्षी बनाता है। कहानीकार ने लिखा है, "माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानो देवताओं का अपनी निष्पापता का साक्षी मना रहा हो।" माधव के मन में पाप-चेतना नहीं होती तो लेखक यहां 'निष्पापता' के लिए देवताओं तक का प्रमाण क्यों देता? माधव अपने जीवन की सबसे बड़ी लालसा की तृप्ति के इस दुर्लभ अवसर का आनंद पाप की छाया में नहीं ले सकता था। लेखक के अनुसार, मधुशाला वैसे भी अपने प्रेमियों को जीवन की बाधाओं तथा जीवन-मरण की स्मृति तक से मुक्त कर देती है। मधुशाला में जीवन का निर्द्वन्द्व आनंद है और बाहरी संसार के घोर अभावों, कष्टों और पापों का विस्मरणस्थल है। घीसू-माधव के मधुशाला में आते ही उनके मन से मृत्यु-शास्त्र हट जाता है। वे अब मौत का मर्सिया नहीं गाते हैं बल्कि वे जीवन की नयी सरगम छेड़ते हैं। इसमें जीवन की अतृप्त एवं दबी लालसाएं हैं और उनकी तृप्ति का आनंद है यहां कि आनंदानुभूति और उल्लास मृत्यु को पराभूत करके उसे चेतना से ही लुप्त कर देता है और यहां तक भी अस्तित्व बोध की चेतना भी यहां के सुख सागर में विलीन हो जाती है।


घीसू और माधव का मधुशाला में प्रवेश भीतरी और बाहरी सभी दबावों से मुक्ति का प्रमाण है। उनके लिए पारिवारिक दायित्व, सामाजिक मर्यादाएं एवं नैतिक बोध जैसे निरर्थक एवं प्राणहीन हैं। वे जब शराब की बोतल बीच में रखकर पीने बैठते हैं तो वे अपनी व्यक्तिगत लालसाओं की तृप्ति का अनुष्ठान करते हैं। निर्मल वर्मा ने लिखा भी है कि दो हिंदुस्तानी पियक्कड़ों का श्मशान की छाया में हुआ यह मुक्ति समारोह है। वे जैसे ही कफन के पैसों से शराब का कुल्लड़ मुंह में लगाते हैं, उसी क्षण हिन्दी साहित्य में व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का स्वाद चखता है। उन्हें यह मुक्ति और स्वतंत्रता बौद्धिक कौशल एवं आत्मछल से मिलती है।


वे परिवार और गांव वालों दोनों के अपराधी हैं। वे पहले अपराधी अपने परिवार के हैं। बाप बेटा दोनों घर की बहू को मरने देते हैं और वह भी प्रसव-पीड़ा में चीखती चिल्लाती बहू को, जो इनकी उपेक्षा और असहयोग के कारण पेट के शिशु के साथ मर जाती है। वे इस अमानुषीय अपराध के दोषी हैं। दूसरे वे गांव वालों के दोषी हैं। गांव के लोग उन्हें बुधिया के कफन के लिए पांच रुपये एकत्र करके उनके हाथ में देते हैं, परंतु वे विश्वासघात करते हैं और मधुशाला में जाकर शराब पीते हैं। गांव के लोग तो उन्हें पहले से ही कामचोर, आलसी, बेशर्म और झूठे मानते थे और वे भी इस सत्य को जानते थे अतः उन्हें कोई नया विश्वासघात करने में कोई भय नहीं था। वे जानते हैं और घीसू माधव को समझाता भी है कि गांव वाले ही दुबारा कफन की व्यवस्था करेंगे इसीलिए कफन के पैसों से शराब पीना अनुचित इसलिए नहीं है, क्योंकि बुधिया को तो कफन मिल ही जायेगा। उनका यह दृढ़ विश्वास उन्हें जीवन के निकृष्टतम अपराध करने के दंश से बचा लेता है। वे मृतक को नया कफन देने की धार्मिक, सामाजिक एवं नैतिक अनिवार्यता के दायित्व से भी स्वयं को मुक्त कर लेते हैं और उसके अपराध बोध से भी अपना बचाव कर लेते हैं। इसी कारण वे निर्द्वन्द्व और निश्चित होकर मधुशाला में पहुंचते हैं और अपने जीवन की सबसे बड़ी लालसा की पूर्ति के लिए बोतल खरीदकर पीने बैठते हैं। इस प्रकार उनकी छलपूर्ण तर्कशीलता उन्हें निरपराधी रूप में मधुशाला तक पहुंचा देती है।


घीसू-माधव मदिरालय में बोतल लेकर बैठते हैं तो उनके मनोभाव, व्यवहार तथा विचार में परिवर्तन होता है। इस अंश की मूल घटना यह है कि वे अपने जीवन की सबसे बड़ी लालसा की पूर्ति के लिए मन भरकर शराब पीते हैं, भोजन करते हैं, बचा हुआ भोजन भिखारी को देते हैं और आनंद विभोर होकर मस्ती में गाते, नाचते, कूदते भटकते एवं अभिनय करते हैं तथा 'नशे से बदमस्त' होकर गिर पड़ते हैं। यह उनके जीवन की सुखानुभूति की चरमावस्था है जब जीवन के सारे सुख दुख मिट जाते हैं, सांसारिक चेतना लुप्त हो जाती है और रहता है केवल आत्मिक आनंद। इस अनुभूति में एक तो एक मधुशाला का मादक वातावरण एवं मदिरापान से होने वाली चेतना शून्यता सहायक बनी है, दूसरे वे धार्मिक एवं दार्शनिक विश्वासों तथा आस्थाओं के संसार में उतर कर स्वयं पापानुभूति से मुक्त करके निश्शंक एवं निर्द्वन्द्व बनते हैं। लेखक ने स्वयं घीसू के 'दार्शनिक भाव' से बोलने तथ माधव पर 'श्रद्धालुता का रंग' चढ़ने का उल्लेख किया है क्योंकि घीसू-माधव अब अपने पूर्व दुष्कर्मों और उनके दुष्परिणामों को धार्मिक दार्शनिक शब्दावली में छिपाकर बधिया को बैकुंठ तक पहुंचा देते हैं। वे दोनो आत्मा-परमात्मा, परलोक, वैकुंठ, पाप-पुण्य, माया जाल आदि धार्मिक-दार्शनिक शब्दों के प्रयोग से बुधिया की मौत को गौरवान्वित करते हैं और इनकी आड़ में एक बार फिर अपने पाप-कर्म को छिपा लेते हैं। घीसू माधव के वार्तालाप में बुधिया का ही गुणगान है। बुधिया पुण्यवान है क्योंकि उसकी मृत्यु उनके लिए पुण्य-कर्म बनती है। उसकी मृत्यु से ही उन्हें शराब तथा स्वादिष्ट भोजन मिलता है जो उन्हें उम्र भर नहीं मिला था। इससे घीसू की आत्मा तृप्त होती है और माधव की तो जीवन की सबसे बड़ी लालसा पूरी होती है। इन दोनों के लिए इससे बड़ा पुण्य बुधिया की ओर से क्या हो सकता था? बुधिया जब जीवित थी तो इनका दोजख भरती थी और मरी तो इन्हें जीवन का सबसे बड़ा सुख दे गई । बुधिया निर्मला हृदय थी और मानवता उसकी जीवन शैली थी। वह न किसी को सताती थी और न दबाती ही थी। अतः वह वैकुंठ न जायेगी तो कौन जायेगा? माधव इसीलिए पूरे विश्वास के साथ घीसू से कहता है, "वह वैकुंठ में जायेगी दादा, वैकुंठ में जायेगी।" माधव घीसू के संतोष के लिए एक और नया तर्क लाता है। वह कहता है कि बुधिया वैकुंठ न जायेगी तो क्या गरीबों को दोनों हाथों से लूटने वाले मोटे-मोटे लोग जायेंगे जो अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मंदिरों में जल चढ़ाते हैं। कहानी में इस कथन से कई अर्थ निकलते हैं। एक, गरीबों को लूटने वाले ये मोटे लोग सामाजिक अपराधी हैं। इनके पाप इतने भयानक और गंदगी से भरे हैं कि गंगा भी उन्हें निर्मल नहीं कर सकती है। दो, जो पापी यह समझते हैं कि गंगा पापों को धो देती हैं, वे तो अज्ञानी हैं। तीसरा, ऐसे मोटे पापियों और बुधिया में कोई समानता नहीं है। यह उनका कितना बड़ा बौद्धिक छल है कि ये मोटे-मोटे पापियों की तुलना अपने उस पाप कर्म से नहीं करते हैं जो उन्होंने बुधिया और उसके पेट के बच्चे को मरने देने में किया है। वे उस बुधिया के साथ तुलना करते हैं जो निष्पापी है और इनके शब्दों में पुण्यवान है और उसे अवश्य ही बैकुंठ मिलेगा। घीसू के अनुसार वह भाग्यवान भी है क्योंकि वह इतनी जल्दी संसार के माया जाल के बंधन तोड़कर चली गई। इस प्रकार वे किसी धर्म गुरू अथवा पुरोहित के समान धार्मिक शब्दों और धारणाओं के द्वारा बुधिया को परलोक के सर्वोच्च स्थान पर पहुंचा कर स्वयं भी अपने जीवन का सबसे बड़ा सुख प्राप्त करते हैं। बुधिया तो इनके काल्पनिक परलोक के बैकुंठ में पहुंचती है लेकिन घीसू माधव को अपने बैकुंठ जैसे सुखानुभव के लिए बुधिया के समान मरने की आवश्यकता नहीं है। वे जीवितावस्था में ही अपने जीवन की सबसे बड़ी लालसाओं को पूर्ण करते हैं और अपूर्व उल्लास एवं आनंद की अनुभूति करते हैं। असल में भाग्यशाली तो घीसूमाधव हैं जो मौत की काली छाया में भी जीवन का सबसे बड सुख और आनंद खोज निकालते हैं और बधिया की मौत के अपराध दंश से भी अपने को बचा कर रखते हैं । यद्यपि उनकी यह आनंदानुभूति अल्पावधि की है, परंतु वे क्षण उनके जीवन के सर्वोत्तम क्षण हैं। उनका यह सुख एकदम निजी है। वे ही उसके नियंता और नियोजक हैं। वे इसके लिए पारिवारिक दायित्वों एवं सामाजिक नैतिकता को नकारते हैं और लोक परलोक आदि की धार्मिक एवं दार्शनिक शब्दावली का दुरुपयोग करके इस बाहरी दुनिया को एकदम अदृश्य कर देते हैं। प्रेमचंद की कहानियों में यह व्यक्ति की निजी सत्ता का आरंभ है।


प्रेमचंद चाहते तो कहानी का अंत यही कर सकते थे, क्योंकि मृत्यु पर जीवन की विजय का उत्सव अपनी अंतिम परिणित पर पहुंचकर मूर्छित होकर गिर पड़ता है। यह आनंदानुभूति की चरम अवस्था है। जब अस्तित्व की संज्ञा भी शून्य हो जाती है। घीसू-माधव के लिए तो यह लोक में लोकोत्तर आनंद जैसा ही है, जो बुधिया के लोक से वैकुंठ यात्रा से कहीं श्रेष्ठ और अनुभूतिजन्य है। घीसू माधव का आनंद वास्तविक जगत का आनंद है और बुधिया का वैकुंठ कहां है, इसे कोई नहीं जानता है। प्रेमचंद इसी स्थिति को सिद्ध करने के लिए कबीर के पद की आरंभिक पंक्ति को उद्धृत करते हैं। घीसू-माधव कहानी के अंत में 'नशे में बदमस्त' होकर गाते हैं।" ठगनी! क्यों नैना झमकावै! ठगनी कहानी में यह पद पूरा नहीं है, लेकिन 'अग्नि-समाधि' (जनवरी, 1928) कहानी में इसे इस प्रकार दिया गया है:


ठगिनी! क्यों नैना झमकावै!/ कद्दू काट मृदंग बनावे, नीबू काट मंजीरा,/ पांच तरोई मंगल गावें, नाचे बालम खीरा/रूपा पहिर के रूप दिखावे, सोना पहिर रिझावे,/गले डाल तुलसी की माला, तीन लोक भरमावे।।


कबीर की ठगिनी माया है जो मनुष्य को अनेक रूपों में भरमाती है। इनमें धर्म के कर्मकांड और लोकोत्तर विश्वास भी भ्रमोत्पादक हैं। कबीर जिसे, 'गले डाल तुलसी की माला' से संबोधित करते हैं, उनमें पाप-पुण्य, आत्मा-परमात्मा, लोकपरलोक-बैकुंठ आदि हमारी परंपरागत धारणाएं एवं विश्वास हैं, वे सब छलनाएं हैं जो भरमाती हैं। इस संसार के अतिरिक्त और कोई परलौकिक संसार नहीं है इसलिए ऐसे सभी विश्वास भी सत्य नहीं है इसलिए बुधिया की वैकुंठ यात्रा तथा माया जाल का भंजन आदि में कोई सत्यता नही है, वे मिथ्या और भ्रामक हैं। सत्य है तो जीवन ही सत्य है। कहानी जिस कफन पर लिखी गई है, वह न खरीदा जाता है, न इस्तेमाल होता है। बुधिया का मृत शरीर बिना कफन के पड़ा रहता है और न उसका अंतिम संस्कार ही होता है लेकिन वह कहानी में मृत्यु और जीवन के सत्यासत्य के बड़े सवालों से रूबरू करता है। कफन तो मृत्यु का साथी है लेकिन लेखक कफन से ही जीवन का आनंद रस निकालता है। इस प्रकार कहानी में दो पक्ष हैं- एक मृत्यु और परलोक (वैकुंठ) का तथा दूसरा लोक तथा जीवन का। इन दोनों के द्वन्द्व में मृत्यु पर जीवन की जीत होती है। अतः 'कफन' कहानी को मृत्यु पर जीवन की तथा परलोक पर लोक की विजय की कहानी मानना पूर्णरूप से औचित्यपूर्ण एवं तर्कसंगत है। जयशंकर प्रसाद ने एक स्थान पर लिखा है कि दुःख दग्ध धरा और आनंदपूर्ण स्वर्ग के एकीकरण का नाम ही साहित्य है। कहानी में बुधिया की जिस अमानवीय एवं हृदयद्रावक स्थिति में मृत्यु होती है उससे अधिक दुःखदग्धा घटना और और क्या हो सकती है? इसी प्रकार जयशंकर प्रसाद जिसे 'आनंदपूर्ण स्वर्ग' कहते हैं, वह घीसू-माधव के मदिरापान की चरमावस्था के आनंद के अतिरिक्त और क्या है। यही विरुद्धों का सामंजस्य है और यही प्रसाद की धरा और स्वर्ग का तथा दृख और आनंद का एकीकरण है। इसमें प्रेमचंद अपनी परंपरानुसार मृत्यु को अस्वीकार तथा जीवन को स्वीकार करते हैं। कफन' (दिसंबर 1935) से लगभग दो वर्ष पूर्व लिखी गई उनकी कहानी 'रंगीले बाबू' (26 जनवरी 1933) में भी एक ओर मृत्यु है जो बुधिया की मृत्यु के समान ही भयावह एवं त्रासद है और दूसरी ओर त्रासद मृत्यु की छाया में जीवन को जीने की उत्कटता एवं जीवटता है। कहानी में बाबू रसिकलाल के बेटे की बारात निकलने वाली हैं कि उनका देहांत हो जाता है, परंतु रसिकलाल उसकी अर्थी को दूल्हे के रूप में सजाकर उसके सिर पर बेलों का मोर पहनाकर हाथी घोड़े, बैंडबाजों के साथ उसकी बरात निकालता है और अपने मित्र कथावाचक से कहता है, “तुम भूल जाते हो लाला, यह विवाह का उत्सव है।" हमारे लिए सत्य जीवन है उसके सिवा जो कुछ भी है, मिथ्या है।" यह मृत्यु परजीवन की अपराजेय शक्ति और आनंद की विजय है। जीवन के अतिरिक्त जो कुछ भी है, ईश्वर, परलोक, वैकुंठ सब मिथ्या है। 'गोदान' में प्रो. मेहता गोविंदी से ऐसे ही विचार कहता है, "जो यह ईश्वर और मोक्ष का चक्कर है, इस पर तो मुझे हंसी आती है। वह मोक्ष और उपासना अहंकार की पराकाष्ठा है, जो हमारी मानवता को नष्ट किये डालती है। जहां जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं ईश्वर है और जीवन को सुखी बनाना ही उपासना और मोक्ष है।" होरी की मृत्यु के समय में भी प्रेमचंद के जीवन के ऐसे ही उल्लास और आनंद को उद्घाटित किया है। उसके छोटे भाई हीरा के लौटने पर जिसके कारण होरी विपत्तियों में घिरता चला गया, उसका विषाद एवं मृत्यु बोध तथा जीवन में पराजित होने का भाव विजय के 'उल्लास, गर्व एवं पुलकता' में बदल जाता है और लेखक के अनुसार उसे स्वर्ग का सुख मिलता है। होरी अपनी इस सुखानुभूति में मौत को भूलकर, चाहे कुछ क्षणों के लिए ही सही, जीवन के इस आनंद में मग्न हो जाता है और उसकी आत्मा आनंदमय हो जाती है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि स्वर्ग का मार्ग नर्क से होकर जाता है। घीस माधव ऐसे ही नारकीय मार्ग पर चलकर अपने जीवन की सबसे अधिक सुखद एवं आनंद की अनुभूति करते हैं जो उनके लिए क्षण जीवन का सर्वोत्तम एवं आत्मलीन करने वाला आनंद था। अतः 'कफन' कहानी की आत्मा के सत्य को खोजने में हमें मध्यकाल की उस भक्ति-भावना को भी ध्यान में रखना होगा जिसमें मृत्युलोक के कष्टों और विपत्तियों से मुक्ति के लिए परलोक की सेवा-साधना का विधान था। तुलसीदास ने 'रामचरित मानस' के 'किष्किंधा कांड' में सुग्रीव से यही कहलवाया है-"तजि माया सेइअ परलोका/ मिटहिं सकल भवसंभव सोका।" प्रेमचंद की 'कफन' कहानी इसी मध्ययुगीन भक्ति-दर्शन के विरुद्ध आधुनिक चेतना की कहानी है-कि परलोक की अवधारणा एवं विश्वास मिथ्या है, इसलिए उसकी कामना एवं उपासना निरर्थक है। हमें जीवन को ही सत्य मानना चाहिए। मैथिलीशरण गुप्त जैसा वैष्णव कवि भी भूतल को ही स्वर्ग बनाना चाहता है। प्रेमचंद के समय में पश्चिम में ईश्वर की मृत्यु की घोषणा हो चुकी थी और अपने देहांत से पूर्व उन्होंने परिपूर्णानंद वर्मा से कहा था कि उन्हें ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं है अर्थात ईश्वर, परलोक या स्वर्ग के अस्तित्व में उनकी कोई आस्था नहीं थी। प्रेमचंद की दृष्टि यही थी कि मृत्यु एवं परलोक नहीं, जीवन ही वरेण्य है और जीवन की इस संसार का सर्वांग सत्य है। कहानी में कबीर ही प्रमुख आधार हैं जिनसे कहानी का यही प्रतिपाद्य सामने आता है। कहानी में कबीर की उपस्थिति परलोक की सत्ता को चुनौती देती है और एक प्रकार से जीवन की सत्यता एवं श्रेष्ठता को स्थापित करती है और मृत शरीर को नया वस्त्र उपलब्ध कराने तथा जीवित मनुष्य को फटा चीथड़ा भी नसीब न होने का प्रश्न भी जीवन से अधिक मृत्यु को अधिक महत्व देने के धार्मिक विश्वास तथा पारलौकिक सत्ता का खंडन करता है। कहानी इस प्रकार ईश्वरीय विश्वास एवं पारलौकिक सत्ता के माया जाल के तिलिस्म को निरावृत्त करके मृत्यु तथा उससे जुड़े स्वर्ग-नर्क, बैकुंठ परलोक आदि की अवास्तविक कल्पना पर जीवन की वास्तविकता एवं श्रेष्ठता को स्थापित करती है। कहानीकार मृत्यु एवं परलोक का गौरव नहीं, जीवन का सम्मान चाहता है और इसीलिए वह 'कफन' कहानी को मृत्यु की कहानी न बनाकर जीवन की कहानी के रूप में रचता है। पराधीन भारत के मरणासन्न समाज को मृत्यु के अंधकारलोक एवं अस्तित्वहीन परलोक के स्थान पर जीवन के उल्लास की ही आवश्यकता थी।