कैंसर उपचार

चिकित्सा- कैंसर पर विशेष, गलांक से आगे....


डॉ श्री गोपाल काबरा


टार्सटुजूमैब (हर्सेप्टीन)


यह एक कैसर-कारक जीन-ओंकोजीन (एच.ई.आर.-2 इन.ई.यू. पॉजिटिव)- के विरुद्ध तैयार की गई मोनोक्लोनल एंटीबॉडी है जो सीधी कैंसर कारक जीन को खत्म करती है। यह सच्चे सही रूप में टार्गेटेड कीमोथेरैपी है जिसका आविष्कार 1998 में सबसे पहले हुआ। सौभाग्य से इस जीन का संचालन करने वाले रिसेप्टर कैंसर कोशिका के आवरण पर स्थित होते हैं, अतः एंटीबॉडीज बाहर से ही उन्हें अवरूद्ध कर कैंसर कारक जीन को निष्क्रिय कर सकती हैं। कुछ स्तन कैंसर में कोशिकाएँ बहुत अधिक एच.ई.आर.-2 पॉजिटिव रिसेप्टरस बनाती हैं। आज स्तन कैंसर की जाँचकर यह आँकना संभव है कि कैंसर एच.ई.आर.-2 पॉजिटिव है या नहीं। पॉजिटिव कैंसर में हर्सेप्टीन सफल होती है और लम्बे समय तक रोगी को कैंसरमुक्त रखती है।


हर्सेप्टीन की खोज की कहानी भी बड़ी रोचक है। अनुसंधानकर्ताओं ने जब फैले हुए स्तन कैंसर के मरीज से कैंसर निकालकर चूहों में इंजेक्ट किया तो वह टुकड़ेटुकड़े होकर चूहे के सारे शरीर में फैल गया। बाद में इसी कैंसर से चूहों पर प्रयोग कर एच.ई.आर.-2 के खिलाफ एंटीबॉडीज बनाई गई। लेकिन चूहे की यह एंटीबॉडीज मनुष्य में काम नहीं ली जा सकती थीं। आवश्यकता थी कि उनका मानवीयकरण किया जाए। जटिल रासायनिक प्रक्रिया की जरूरत थी। अनुसंधानकर्ताओं ने विलक्षण विधि अपनाई। मानव स्तन कैंसर की एक कोशिका को चूहे की एक एंटीबॉडी बनाने वाली कोशिका के साथ जोड़ दिया। इस जुड़वाँ कोशिका का संवर्धन कर अनेक कोशिकाएँ तैयार की गई। इस संयुक्त कोशिका ने जो एंटीबॉडीज बनाईं वे मानवीय बनीं। एक ही क्लोन कोशिका से बनीं, इसलिए इन्हें मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज कहा गया। हर्सेप्टीन यही एंटीबॉडी है।


एंटीएंजियोजेनेसिस औषधियाँ


कैंसर ट्यूमर के बढ़ने के साथ-साथ उसकी पोषक तत्वों की आवश्यकता भी बढ़ती जाती है। पोषक तत्व रक्त संचार से ही उपलब्ध हो सकते हैं। अतः कैंसर कोशिकाएँ ऐसे संकेतक स्रावित करती हैं जो वहाँ स्थित एंडोथीलियम कोशिकाओं को रक्त वाहिनियाँ बनाने को प्रेरित करते हैं। इन्टरफेरोन अल्फा और थेलिडोमाइड इस प्रक्रिया को बाधित करते हैं। इन एंटीएंजियोजेनेसिस ड्रग्स के प्रयोग से रक्त वाहिनियों के न बनने से पोषक तत्वों के अभाव में कैंसर ट्यूमर बढ़ नहीं पाता और नष्ट हो जाता है।


7. इम्यूनोथैरेपी-जैविक चिकित्सा : इस चिकित्सा पद्धति में शरीर के प्रतिरक्षा संस्थान का उपयोग कैंसर से लड़ने के लिए किया जाता है। प्रतिरक्षा संस्थान के अंग, कोशिकाएँ और एंटीबॉडीज बाहर से आक्रमणकारी (दुश्मन) रोगाणु, विषाणु आदि से लड़ने का कार्य करते हैं। वे अपने गुणसूत्रों द्वारा रचित स्वशरीर की सभी प्रोटीन्स को पहचानते हैं। विशरीरीय (फोरेन) प्रोटीन्स को नष्ट करते हैं, उनको याद भी रखते हैं। कैंसर कोशिकाओं को विशरीरीय के रूप में पहचान की कुछ क्षमता भी इसमें होती है, जिसे जैविक चिकित्सा में विकसित किया जाता है। यह क्षमताविकास के लिए जो किया जाता है, वह है-1. जिससे कैंसर कोशिकाएँ विषम कोशिकाओं के रूप में पहचानी जा सकें और नष्ट की जा सकें। 2. रक्षा संस्थान की कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने की क्षमता बढ़ाई जा सके। 3. उस जैविक प्रक्रिया को बाधित किया जाए जो सामान्य कोशिका को कैंसर कोशिका बनाती है। 4. कैंसर कोशिका के अमत्व को वापस उलटकर उनकी नश्वरता को प्रतिस्थापित किया जाए। 5. कैंसर कोशिका को अपने उत्पत्ति स्थल से दूर जाने की क्षमता को बाधित किया जा सके।


रक्षा संस्थान की अपनी सैनिक कोशिकाएँ होती हैं जो विभिन्न प्रकार से कैंसर कोशिकाओं से लड़ती हैं। तीन प्रकार की लिम्फोसाइट श्वेत कोशिकाएँ होती हैं-1बी कोशिकाएँ जो एंटीबॉडीज बनाती हैं। एंटीबॉडीज कैंसर कोशिकाओं पर आक्रमण करती हैं, जैसे-सेना के तोपचियों द्वारा छोड़े गए तोप के गोले । 2. टी कोशिकाएँ जो स्वयं आक्रमण करती हैं, जैसे-पैदल सैनिक। वे अन्य सैनिक कोशिकाओं को कैंसर कोशिकाओं पर आक्रमण करने को प्रेरित करती हैं। 3. नेचुरल किलर सेल (प्राकृतिक मारक कोशिकाएँ) ऐसे रसायन बनाती हैं जो दुश्मन कोशिकाओं से चिपककर उन्हें नष्ट करती हैं, जैसे लक्ष्यभेदक रॉकेट। मोनोसाइट श्वेत कोशिकाएँ जो बागी कोशिकाओं के टुकड़ों का भक्षण कर उन्हें नष्ट कर देती हैं। डेंड्राइटिक कोशिकाएँ जो जासूस की तरह दुश्मन/बागी कोशिकाओं की पहचान और जानकारी रक्षक कोशिकाओं को देती है। ये रक्षक कोशिकाएँ आपस में संपर्क साइटोकाइंस रसायनों द्वारा करती हैं और दुश्मन कोशिकाओं की पहचान एंटीबॉडीज द्वारा।


कैंसर की जैविक चिकित्सा रक्षा कोशिकाओं की प्रतिक्रियाओं को प्रेरित कर की जाती है। इसके लिए अनेक प्रकार की औषधियाँ काम में ली जाती हैं


1.नॉनस्पेसिफिक इम्यून मोड्यूलेटिंग एजेंट्स : ये ऐसी औषधियाँ हैं जो सामान्य प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को कैंसर से लड़ने के लिए अधिक एंटीबॉडीज और साइटोकाइंस बनाने को प्रेरित करती हैं। 2. इंटरफेरोन्स : रक्षक कोशिकाएँ इंटरफेरोन्स स्रावित कर कैंसर कोशिकाओं से लड़ती हैं। इनको संश्लेषित कर औषधि के रूप में दिया जाता है। 3. इंटरल्यूकिन्स : ये साइटोकाइंस होती हैं जिनका संश्लेषण कर औषधि के रूप में दिया जाता है। इंटरल्यूकिन्स रक्षक कोशिकाओं की उत्पत्ति और कार्य क्षमता को प्रेरित करती हैं। 4. कॉलोनी स्टिमुलेटिंग फैक्टर्स : यह औषधि अस्थिमज्जा को रक्त कोशिकाओं के निर्माण के लिए प्रेरित करने के लिए दी जाती हैकैंसर उपचार में यह बड़ी आवश्यक औषधि होती है। 5. मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज : ये कैंसर विशिष्ट (स्पेसिफिक) एंटीजन के विरुद्ध प्रयोगशाला में विशेष विधि से बनाई एंटीबॉडी होती हैं। ये कैंसर कोशिकाओं से जाकर चिपक जाती हैं। इनके साथ संलग्न कर दी गई कैंसर नाशक औषधि सीधी कैंसर कोशिकाओं तक पहुँचती है। 6. साइटोकाइन चिकित्सा : इसमें बाहर निर्मित साइटोकाइंस रोगी को दी जाती है जिससे रक्षक कोशिकाएँ कैंसर कोशिकाओं को पहचानकर उन्हें नष्ट कर सकें। 7. वैक्सीन थेरैपी : यह अभी प्रायोगिक स्तर पर है।


स्तन कैंसर में एच.ई.आर.-2 नामक विशिष्ट एंटीजन को चिह्नित किया गया। जब इस मानव एंटीजन को चूहे के शरीर में प्रवेश करवाया गया तो चूहे के लिए विषम प्रोटीन होने के कारण उसमें इस प्रोटीन एंटीजन के खिलाफ एंटीबॉडीज बनीं। इसी प्रक्रिया से प्रतिरोधात्मक शक्ति (इम्यूनिटी) पैदा होती है। एक मानव एंटीजन के खिलाफ चूहे के शरीर में प्रतिरोधी प्रक्रिया से बनी एंटीबॉडीज । लेकिन चूहे के शरीर में बनी इन एंटीबॉडीज को मानव शरीर में प्रवेश नहीं कराया जा सकता था। अतः मोनोक्लोनल विधि से मानवीय एंटीबॉडीज बनाई गई। एच.ई.आर.-2 पॉजिटिव स्तन कैंसर में हर्सेप्टीन द्वारा चिकित्सा कैंसर के इम्यून थेरैपी या इम्यून चिकित्सा है। इम्यून चिकित्सा के लिए पहले कैंसर स्पेसिफिक (कैंसर विशिष्ट) एक एंटीजन को पहचानना होता है। फिर उस विशिष्ट एंटीजन के विरूद्ध मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज तैयार करनी होती है। तब उस एंटीबॉडी के द्वारा या उसके सहारे उस कैंसर तक पहुँचकर उसे नष्ट करना होता है। यही कार्य उस कैंसर विशिष्ट एंटीजन के विरुद्ध वैक्सीन बनाकर भी किया जा सकता है, जिस पर काम चल रहा है।


8. हारमोन थेरैपी : स्तन और प्रोस्टेट कैंसर में, जो हारमोन-सेन्सिटिव (संवेदनशील/ आश्रित) होते हैं, उसमें हारमोन चिकित्सा सफल होती है। कैंसर का हारमोन्स से उपचार कैसे प्रचलन में आया इसकी कथा बड़ी रोचक है। कैंसर के लिए जब यह उपचार काम में लिया गया था तब हारमोन्स के बारे में तो जानकारी ही नहीं थी। 26 साल के डॉ. चार्ल्ड हिगिन्स 1927 में शिकागो विश्वविद्यालय के अस्पताल में मूत्ररोग विशेषज्ञ सर्जन नियुक्त होकर आए। काम अधिक नहीं था, शोध की इच्छा थी, इसलिए एक प्रयोगशाला बना ली। अन्य विशेषज्ञ तब रक्त, पित्त आदि पर काम कर चुके थे; इन्होंने प्रोस्टेट ग्रन्थि से आने वाले सीक्रिशन (स्त्राव)को अनुसंधान के लिए चुना। प्रोस्टेट ग्रन्थि, मूत्राशय के द्वार पर स्थित सिंघाड़े के आकार की ग्रन्थि होती है। इसके बीच से पेशाब का मार्ग होता है। प्रोस्टेट ग्रन्थि की नलियाँ भी इसी में खुलती हैं। प्रोस्टेट तरल का पेशाब में मिश्रण न हो, इसलिए डॉ. हिगिन्स ने कुत्तों में शल्यक्रिया कर मूत्राशय का रास्ता अलग खोल दिया। प्रोस्टेट स्त्राव को अलग से लेकर उस पर अनुसंधान आरंभ किया। महिलाओं में मादा हारमोन इस्ट्रोजन स्तन विकास और क्रियाशीलता को प्रभावित करता है। तो क्या नर हारमोन प्रोस्टेट ग्रन्थि को प्रभावित करता है? इसकी जाँच करने के लिए उन्होंने कुत्तों के वृषण निकाल दिए। वृषण नर-हारमोन टेस्टाइस्टेरोन स्त्रावित करते हैं। नए हारमोन के अभाव में इन कुत्तों में प्रोस्टेट सिकुड़ गए और निष्क्रिय होकर सूख गए। यह तो ज्ञात हो गया कि प्रोस्टेट की क्रियाशीलता के लिए नर-हारमोन जरूरी है। डॉ. हिगिन्स आगे अनुसंधान करना चाहते थे जिसमें एक दुविधा सामने आई। प्रोस्टेट कैंसर तीन प्राणी-मनुष्य, शेर और कुत्ते में पाया जाता था और प्रयोगशाला में लाए गए कुत्तों में काफी में प्रोस्टेट में ट्यूमर (कैंसर) होते थे। इन्हें सामान्य मानकर अनुसंधान नहीं किया जा सकता था। लेकिन मूत्ररोग विशेषज्ञ के नाते वे यह देखने को उत्सुक थे कि क्या प्रोस्टेट कैंसर भी नर-हारमोन आश्रित हैं? इसे परखने के लिए जब उन्होंने प्रोस्टेट ट्यूमरवाले कुत्तों के वृषण हटाए तो ट्यूमर सिकुड़-सिमट गया अर्थात यह ट्यूमर कैंसर हारमोन आश्रित था। अतः वृषण हटाकर नर-हारमोन्स से मुक्त कर प्रोस्टेट कैंसर का उपचार शुरू हुआ और आज भी है।


डॉ. हिगिन्स के समकालीन एक अन्य डॉक्टर मादा-हारमोन, इस्ट्रोजन, पर काम कर रहे थे। गर्भवती महिलाओं के सैकड़ों गैलन पेशाब से वे बमुश्किल चुटकी भर इस्ट्रोजन निकाल पाए। लेकिन यह एक विलक्षण औषधि के रूप में चिह्नित हुआ। दवा कम्पनियों की अनुसंधानशालाओं में होड़ मच गई। गर्भवती घोड़ी के पेशाब से इसे अलग किया गया। गर्भवती घोड़ी यानी प्रेग्नेन्ट मेयर। अतः उससे निकले इस्ट्रोजन को प्रीमेरीन नाम दिया गया और इसका विश्लेषण कर जो कृत्रिम हारमोन बनाया गया उसे डाईएथिलस्टिलबेस्टोरोल के नाम से दवा कम्पनियों ने बाजार में उतारा। इस्ट्रोजन को नारीत्व का आधार माना गया। रजोनिवृत्ति पर होने वाले दुखदायी लक्षणों के लिए इसका व्यापक उपयोग होने लगा। डॉ. हिगिन्स की उत्सुकता इसमें थी कि शल्यक्रिया द्वारा वृषण निकालने की जगह अगर प्रोस्टेट कैंसर रोगियों को मादा-हारमोन दिया जाए तो क्या होगा। कुत्तों पर प्रयोग से सिद्ध हुआ कि प्रोस्टेट कैंसर पर मादा-हारमोन इस्ट्रोजन का वही असर होता है जो वृषण निकाल देने पर होता है। अतः प्रोस्टेट कैंसर के उपचार में इसका सार्थक प्रयोग होने लगास्तन कैंसर पर ओवेरियन हारमोन के प्रभाव की कहानी तो और भी अधिक रोचक है। डॉ. हिगिन्स के 35 वर्ष पहले 1895 में स्कॉटलैंड के एक अति उत्साही सर्जन डॉ. जार्ज बीटसन को वहाँ के गड़रियों ने बताया कि गायों में उनकी ओवरी निकाल देने पर उनका दूध सूख जाता है और स्तन सिकुड़र छोटे हो जाते हैं। डॉ. बीटसन शल्य चिकित्सा कर स्तन कैंसर हटाते थे। कैंसर फिर हो जाता था। डॉ. बीटसन स्तन कैंसर के लिए कुछ नई शल्यक्रिया करना चाहते थे। ऐसे तीन रोगियों में बीटसन ने उनकी ओवरीज निकाल दीं। और आश्चर्य कि उनके स्तन कैंसर सिकुड़कर काफी ठीक हो गए। ओवरी और स्तन में क्या संबंध है, यह तब ज्ञात नहीं था। यह कैसे हुआ, मालूम नहीं था। घातक रोग में मरणासन रोगी पर कुछ करने के लिए बिना सोच-विचार के की गई शल्यक्रिया प्रभावी सिद्ध हुई। ओवरी से बनने वाले इस्ट्रोजन हारमोन की पहचान तो डॉक्टर डोइसी ने 1929 में की। लेकिन एक दुविधा सामने आई-ओवरी हटाना कुछ स्तन कैंसर में प्रभावी नहीं होता था। ऐसा क्यों? क्या कुछ स्तन कैंसर हारमोन आश्रित नहीं होते? अगर ऐसा है तो ओवरी हटाने से पहले केसे पहचानें कि महिला का कैंसर हारमोन आधारित है या नहीं? महिला में ओवरी हटाना लाभकारी होगा या नहीं? अनुसंधान हुए। सामने आया कि ओवरी हटाना शीघ्र फैलने वाले कैंसर में अधिक प्रभावी था। अर्थात शीघ्र फैलने वाले (एग्रेसिव) कैंसर हारमोन आश्रित होते हैं। यह भी ज्ञात हुआ कि रजोनिवृत्ति के बाद होने वाले स्तन कैंसर में ओवरी निकालना अधिक कारगर होता है। रजोनिवत्ति पर्व ओवरी हटाने पर कैंसर में लाभ हो या न हो, समय पूर्व हुए रजोनिवृत्ति के दुखदायी लक्षण सहज स्वीकार नहीं होते।


ओवरी से स्त्रावित इस्ट्रोजन पर तब व्यापक स्तर पर अनुसंधान चल रहा था। यह ज्ञात था कि प्रत्येक हारमोन के लिए कोशिका में एक ग्राही (ग्रहण करने वाला) आपेक्षित (हारमोन यौगिक की रासायनिक संरचना के अनुरूप) विशिष्ट रिसेप्टर होता हैहारमोन जाकर उसी विशिष्ट रिसेप्टर पर चिपकता है। रिसेप्टर द्वारा आत्मसात होने के बाद ही उसका प्रभाव प्रारंभ होता है। अनुसंधानकर्ता ने इस्ट्रोजन पर रेडियो सक्रिय लेबल लगाया जिससे उसकी उपस्थिति पहचानी जा सके। स्तन कैंसर परीक्षण करने पर ज्ञात हुआ कि 25-30 प्रतिशत में इस्ट्रोजन रिसेप्टर नहीं होते। स्तन कैंसर हारमोन आश्रित नहीं होते। हारमोन आश्रित कैंसर को पहचानकर उनमें आश्रित हारमोन से वंचित करने की चिकित्सा की जानी चाहिए।


इस्ट्रोजन पर दवा कम्पनियों के अनुसंधानकर्ता बड़ी लगन से काम कर रहे थे। रजोनिवृत्ति के उपचार और गर्भनिरोधक दवाओं के लिए विश्व एक बड़ा बाजार था और प्रत्येक कम्पनी चाहती थी कि इस्ट्रोजन जैसी नई दवा का आविष्कार कर उसे पेटेंट करवाए और खूब लाभ कमाए। ब्रिटेन की इम्पीरियल केमिकल इंडस्ट्री के रसायन विशेषज्ञ भी इस काम में जुटे थे। 1962 में उन्होंने एक नया इस्ट्रोजन जैसा रासायनिक यौगिक-टेमोक्सिफेन-बनाया और उसे पेटेंट करवाया। यह यौगिक रासायनिक संरचना में लगभग इस्ट्रोजन जैसा ही था। इतना समान कि इस्ट्रोजन रिसेप्टर इसे सहज स्वीकार करते थे। लेकिन इस्ट्रोजन रिसेप्टर से आत्मसात होने के बावजूद यह इस्ट्रोजन का काम नहीं करता था, बल्कि रिसेप्टर पर चिपककर यह इस्ट्रोजन को कोशिका में आने ही नहीं देता था। इस तरह टेमोक्सिफेन इस्ट्रोजन के ठीक विपरीत एंटीइस्ट्रोजन का काम करता था। कंपनी की रूचि इस्ट्रोजन में थी, पैसा उसी में था, एंटीइस्ट्रोजन-टेमोक्सिफेन-में उनकी कोई रुचि नहीं थी। लेकिन टेमोक्सिफेन के आविष्कारक वेलपोल और रिचर्डसन को डॉ. बीटसन के कार्य के बारे में मालूम थाओवरी हटाकर शरीर को इस्ट्रोजन मुक्त करने पर यदि स्तन कैंसर ठीक होता है तो एंटीइस्ट्रोजन देने पर वैसा ही प्रभाव होगा, यह उनका तर्कसंगत विचार था। उनकी लेबोरेटरी से कुछ ही दूर स्थित एक कैंसर अस्पताल थावहां की एक कैंसर विशेषज्ञ की स्तन कैंसर में विशेष रुचि थी। उनका वार्ड स्तन कैंसर के रोगियों से भरा था जिनमें काफी ऐसी महिलाएँ थीं जिनमें शल्यक्रिया और विकिरण के बाद भी कैंसर पुनः हो गया था। ऐसे अन्तस्थित रोगियों में वे कुछ भी प्रयोग करने को तैयार थीं अगर उससे कुछ राहत मिलने की संभावना हो। वेलपोल और रिचर्डसन के संपर्क करने पर वे उनके द्वारा उपलब्ध कराई टेमोक्सिफेन का प्रभाव जाँचने को तैयार हो गईं। ऐसी 46 महिलाओं में, जिनमें कैंसर शरीर में अन्यत्र फैला हुआ था, टेमोक्सिफेन दिया गया10 में इसका शीघ्र ही जोरदार असर हआ। स्तन कैंसर काफी सिकुड़ गया, फेफड़े और लिम्फनोड में फैले कैंसर का भी यही हश्र हआयहाँ तक कि हड्डियों में फैले कैंसर की भीषण पीडा से भी मक्ति मिल गईउन रोगियों के लिए यह राहत चमत्कारी थी। हालांकि यह राहत बहुत लम्बे समय तक नहीं रही, लेकिन स्तन कैंसर के सार्थक और सरल उपचार की नई दिशा आरंभ हो गई। एक और रोचक तथ्य अनुसंधानकर्ताओं के ध्यान में आया। इस्ट्रोजन मादा यौन ग्रन्थि, ओवरीज, द्वारा स्त्रावित किया जाता है। तो फिर ओवरीज हटा देने पर, या रजोनिवृत्ति उपरान्त ओवरीज के निष्क्रिय होने पर, यह महिला के शरीर में कहाँ आता है? जब एड्रीनल ग्रन्थि (गर्दे के ऊपर स्थित छोटी-सी ग्रन्थि जिससे स्टेरोइड हारमोन्स स्त्रावित होते हैं) से स्त्रावित यौन हारमोनों का अध्ययन किया जा रहा था मालूम हुआ कि एड्रीनल स्त्रावित नर-हारमोन, जो महिलाओं में भी स्त्रावित होता हैवह लिवर और वसा (फैट) कोशिकाओं में स्थित विशिष्ट रिसेप्टर पर पहुँचता जहाँ एक एंजाइम एरोमेटेज, उसे मादा-हारमोन इस्ट्रोजन में बदल देता है। ओवरी हटाने के बाद भी यह इस्ट्रोजन हारमोन आश्रित स्तन कैंसर कोशिकाओं को पोषित करता रहता है। अतः नर-हारमोन को मादा-हारमोन में बदलने वाले एंजाइम विरुद्ध एंटीएंजाइम (एरोमेटेड इनहिबिटर्स) तैयार किया गया।


9. फोलिक एसिड एंटागोनिस्ट : फोलिक एसिड का कैंसर से संबंध और उसके उपचार में उसके एंटागोनिस्ट्स (अवरोधक) का प्रयोग एक रोचक कहानी है और इसका संबंध मुम्बई, तब बम्बई, के शोषण के शिकार गरीब मिल मजदूरों से है जिनमें कुपोषण के कारण रक्त की कमी (एनीमिया, रक्ताल्पता) आम बीमारी थी। 1928 की बात है। अंग्रेजों का राज था। मिलें उनकी थीं। सामन्तशाही शोषण की पराकाष्ठालेकिन अंग्रेज शासक मजदूरों के वेलफेयर/हित का दिखावा भी खूब करते थे इंग्लैंड की एक नई महिला चिकित्सक, लूसीविल्स, एनीमिया पर काम कर रहीं थीं; एनीमिया, जो ब्रिटिश साम्राज्य के गरीब देशों में एक व्यापक स्वास्थ्य समस्या थी, विशेषकर गर्भवती और प्रसव के बाद महिलाओं में। डॉ. विल्स को अनुदान देकर बम्बई भेजा गया।


एनीमिया के अनुसंधान में रुचि थी, अतः इस पर काम करने वाले विश्व के अन्य अनुसंधानकर्ताओं के कार्य के बारे में डॉ. विल्स जानती थीं। तब (1926 में) अमेरिका के एक अन्य चिकित्सक डॉ. जार्ज मिंटो पर्निसियस एनीमिया पर काम कर रहे थे। इस एनमिया में अस्थि-मज्जा रक्त ही नहीं बनाती थी। लाल रक्त कण बनाने के लिए खाने से शरीर को उचित मात्रा में आयरन मिलना चाहिए। कुपोषण में ऐसा नहीं होता। लेकिन पर्निसियस एनीमिया केवल आयरन की गोलियाँ खिलाने से ठीक नहीं होता था। डॉ. मिंटो जानते थे कि इसके लिए खाने में कुछ और पोषक तत्व भी चाहिए। उन्होंने जानवरों के लिवर, आमाशय आदि रोगियों के खाने में दिए। लाभ हुआ। घातक पर्निसियस एनीमिया ठीक हो गया। बाद में मालूम हुआ कि आयरन के साथ जो लाभकारी तत्व आवश्यक था वह विटामिन बी-12 था।


लेकिन डॉ. विल्स के बम्बई के मजदूरों में ऐसे पोषण उपचार से भी लाभ नहीं हुआ। तब इंग्लैंड और ऑस्टेलिया में स्वास्थ्यवर्धक खाने के रूप में मार्माइट नामक एक लाल-काली चटनी का प्रयोग प्रचलित था। वह चटनी बीयर के फर्मेन्टेशन के बाद बची यीस्ट्स की लुगदी से बनाई जाती थी। डॉ. विल्स स्वयं उसका सेवन करती थीं। उन्होंने जब यह चटनी एनीमियाग्रस्त बम्बई के मजदूरों को बतौर दवा दी तो उन्हें लाभ हुआ। एनीमिया ठीक हो गया। डॉ. विल्स के लिए यह एक सुखद आश्चर्य था। उन्हें नहीं मालूम था कि मार्माइट में सार्थक तत्व क्या था। वे इसे रासायनिक रूप से चिह्नित तो नहीं कर पाईं लेकिन इसे विल्स फैक्टर का नाम दिया गया। बाद में विल्स फैक्टर फोलिक एसिड के रूप में चिह्नित हुआ, जो एक विटामिन जैसा है, फलों और सब्जियों में पर्याप्त मात्रा में होता है, मार्माइट में भी था


आयरन, फोलिक एसिड और विटामिन बी-12 में रसायनशास्त्रियों की तब रुचि इसी से समझी जा सकती है कि आज करोड़ों रूपयों की आयरन फोलिक एसिड की गोलियाँ गर्भवती महिलाओं को रक्ताल्पता के उपचार के लिए दी जाती है और करोड़ों के विटामिन ताकत की दवा के रूप में। भारतीय मूल के सुब्बाराव ने फोलिक एसिड पर कार्य प्रारंभ किया। फोलिक एसिड को तब जानवरों के अंगों के घोल से अलग किया जाता था। यह एक बड़ी श्रमसाध्य और महंगी प्रक्रिया थी। रसायन विशेषज्ञ होने के नाते सुब्बाराव की रुचि इसमें थी कि वह फोलिक एसिड की संरचना का रासायनिक विश्लेषण करें और फिर उसे कृत्रिम तरीके से प्रयोगशाला में संश्लेषित करें। दवा कंपनियों की रुचि इसी में थी। सुब्बाराव का दवा कंपनी के लिए काम करने आने की कहानी बड़ी रोचक थी। सुब्बाराव 1923 में भारत से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी कर एक छात्रवृत्ति पर अमेरिका पहुँचे। बेकार थे। उनके पास अमेरिका में प्रैक्टिस करने का लाइसेंस नहीं था। अतः बतौर चिकित्सक कोई नौकरी नहीं मिली। जेब में पैसे भी नहीं थे। उस पर बोस्टन की भीषण सर्दी । वहाँ के एक महिला अस्पताल में रात्रिकालीन चौकीदार व सफाई कर्मचारी की नौकरी की। वहाँ हुई जान-पहचान काम आई। वहाँ की बायोकेमिस्ट्रिी लैब में अनुसंधानकर्ता का कार्य मिल गया। यहाँ उनका कार्य था कोशिकाओं को क्षत-विक्षत कर उसमें स्थित रसायन तत्वों को अलग कर पहचानना। बडा श्रमसाध्य और दुरूह कार्य था। काम के धुनी एकनिष्ठ सुब्बाराव को सफलता मिली। उन्होंने कोशिका में ए.टी.पी. नामक यौगिक की पहचान की जो कोशिका में ऊर्जावाहक का कार्य करता है। मांसपेशियों में ऊर्जावाहक क्रियाटिन को चिह्नित किया। यह तब विलक्षण खोज थी जिसके लिए नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए था। लेकिन सुब्बाराव गुलाम देश के, फटेहाल, एक कमरे में रहने वाले, आत्मकेन्द्रित, साधारण व्यक्ति थे। रंग-भेद और जाति-भेद का परिणाम कि उन्हें अपने कार्य का पुरस्कार तो दूर उनका कार्यकाल भी नहीं बढ़ाया गया। मायूस और दुखी उन्होंने 1940 में वहाँ का काम छोड़ दिया और एक औषधि कम्पनी की अनुसंधान कार्यशाला में कार्य ले लिया। यहाँ उन्हें रासायनिक यौगिकों के संश्लेषण का संचालन करना था। प्राकृतिक पोषक तत्वों का कृत्रिम निर्माण करना सुब्बाराव के लिए चुनौतीपूर्ण परन्तु रुचिकर कार्य था। इस प्रकार उन्होंने एनीमिया में काम आने वाले फोलिक एसिड का कृत्रिम निर्माण करने का कार्य शुरू किया।


___ फोलिक एसिड की कैंसर से सम्बद्धता और फोलिक एसिड एंटागोनिस्ट्स (फोलिक एसिड रोधक/एंटीफोलेट्स) के कैंसर उपचार में प्रयोग की कहानी जितनी रोचक है उतनी दर्दभरी भी। 1940 के दशक में जब सुब्बाराव कृत्रिम फोलिक एसिड बनाने का कार्य कर रहे थे तब डॉ. फर्बर कैंसर उपचार से जूझ रहे थे, विशेषकर रक्त कैंसर से । कारण, रक्त कैंसर तब 'अनाथ' कैंसर था। सर्जन और रेडिएशन विशेषज्ञ रक्त कैंसर में कुछ कर नहीं सकते थे, अतः इसको हाथ नहीं लगाते थे। डॉ. फर्बर बच्चों के अस्पताल में कार्यरत थे। बच्चों के रक्त कैंसर, अक्यूट लिम्फोब्लास्टिक ल्यूकीमिया, में उनकी विशेष रुचि थी। यह एक घातक कैंसर था। यह छोटे बच्चों में होता था। और होने के कुछ सप्ताह महीनों में बालक की दर्दनाक मृत्यु हो जाती थी। उनके कैंसर वार्ड में ऐसे बच्चे आते थे। डॉ. फर्बर व उनके सहयोगी उनका यथासम्भव इलाज करते थे, तड़पते देखते थे, उनको बचाना चाहते थे परन्तु हताश, कुछ कर नहीं पाते थे। डॉ. फर्बर का सोचना था कि रक्त कैंसर रक्त-मज्जा में रक्त बनने में विकृति प्रक्रिया का परिणाम है, अतः रक्त बनने की प्रक्रिया के बारे में जानकारी और उसको प्रभावित करने वाले तत्वों की जानकारी से ही रक्त कैंसर के उपचार का कुछ रास्ता निकलेगा। चालीस के दशक तक मिंटो और विल्स आदि के अनुसंधान से आयरन, बी-12 और फोलिक एसिड से रक्त बनने की प्रक्रिया में इन तत्वों की अनिवार्यता और प्रभाव की जानकारी के फलस्वरूप इन पर 1940 में सुब्बाराव और अन्य अनुसंधानकर्ता कार्य कर रहे थे। फोलिक एसिड के कृत्रिम निर्माण का कार्य चल रहा था। डॉ. फर्बर की इस पर निगाह थी। उनका सोचना था कि फोलिक एसिड जब एनीमिया की गंभीर अवस्था में रक्तमज्जा को रक्त बनाने के लिए चालू कर सकता है तो हो सकता है रक्त-मज्जा के विकृत कार्य को भी सुचारु कर सके। अतः उन्होंने अपने अक्यूट लिम्फोब्लास्टिक ल्यकीमिया में बच्चों में फोलिक एसिड का प्रयोग करना चाहा। उनको बचाने का कोई उपाय उपलब्ध नहीं था, सोचा शायद यह सार्थक हो। उन्होंने फोलिक एसिड मंगवाया और उन बच्चों को दिया। दुर्भाग्य से इसका असर उनकी सोच के ठीक विपरीत हुआ। कैंसर और तीव्र हो गया, बच्चों की हालत खराब हो गई, उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु तो निश्चित थी लेकिन इसके लिए अस्पताल के अन्य बाल चिकित्सकों ने डॉ. फर्बर को दोषी माना। उन्हें कसाई तक की संज्ञा दी गई। अस्पताल के डॉक्टरों ने उनका एक तरह से बहिष्कार कर दिया। बेचारे डॉ. फर्बर और उनके साथी इस सबके बावजूद वार्ड में भर्ती कैंसर के इन मरीजों का इलाज तो उन्हें ही करना था। वे अपने उत्तरदायित्व से विमुख नहीं हो सकते थे। उन बच्चों को वे चुपचाप मरते नहीं देख सकते थे। वह बहिष्कार से कहीं अधिक दुखदायी था।


1947, डॉ. फर्बर का न द्वन्द्व खत्म हुआ न अन्तर्द्वन्द्व । डॉ. सुब्बाराव का कृत्रिम रूप से फोलिक एसिड बनाने (सिन्थेसिस/संश्लेषण) का काम प्रगति पर था। उन्होंने फोलिक एसिड की आन्तरिक संरचना के अनुरूप काफी यौगिकों का निर्माण किया। लेकिन जब उनके प्रभाव का परीक्षण किया गया तो पाया कि उनका प्रभाव फोलिक एसिड के ठीक विपरीत था। अर्थात यह फोलेट यौगिक, एंटीफोलेट, एंटीफोलिक एसिड कम्पाउंड की तरह काम करते थे। डॉ. सुब्बाराव जिस दवा कम्पनी के लिए काम कर रहे थे, उसकी तो एक एंटीफोलेट्स में कोई रुचि नहीं थी। लेकिन डॉ. फर्बर को अवश्य इनमें फिर अपने घातक रक्त कैंसर के बाल रोगियों के लिए कुछ कर पाने की संभावना नजर आई वैसे तो फोलिक एसिड के प्रयोग से जो उनकी फजीहत हुई थी उससे उन्हें इस बारे में सोचना भी नहीं चाहिए था। लेकिन उनके चिकित्सकीय सोच के अनुसार एसिड कैंसर प्रेरक साबित हुई थी तो एंटीफोलिक एसिड कैंसर रोधक होना चाहिए। अब इसको परखने की और तो कोई विधि थी नहीं सिवाय इसके कि उनको कैंसर रोगियों पर परखा जाएलेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो? नहीं हुआ तो कैंसर तो उनकी जान लेगा ही। देकर देखना ही रोगियों के हित में था। डॉ. फर्बर का अन्तर्द्वन्द्व गहरा था। लेकिन अपने सोच और अपने निर्णय में आस्था भी इतनी ही गहरी । उन्होंने सुब्बाराव से एंटीफोलेट मंगवाए। तभी उनके वार्ड में गंभीर, प्रायः मरणासन्न, अक्यूट लिम्फेटिक ल्यूकीमियाघातक रक्त कैंसर का एक बच्चा भर्ती हुआ। जुड़वां भाइयों में से एक दो वर्षीय बच्चे का नाम था रोबर्ट सेंडलर। जहाज पर काम करने वाले एक साधारण कर्मचारी का बच्चा। दस दिन पहले तक दोनों बच्चे बिलकुल ठीक थे। हंसते-खेलते मस्त। तभी रोबर्ट को अजीब बीमारी ने आ घेरा। हल्का बुखार और सुस्ती। बुखार चलता रहा,कमजोरी बढ़ती गई और साथ में चेहरा जर्द होता गया। दसवें दिन बुखार काफी तेज हो गया, चेहरा एकदम सफेद, हालत काफी गिर गई। अस्पताल में परीक्षण पर उसकी स्प्लीन (तिल्ली) इतनी बढ़ी हुई थी कि पूरे पेट में फैली हुई थी। स्प्लीन, जहां रक्त बनता है, संग्रह होता है। डॉ. फर्बर ने बच्चे के रक्त की एक बूंद लेकर माइक्रोस्कोप से देखी-रक्त, कैंसर की श्वेत कोशिकाओं से भरा था। घातक कैंसर अक्यूट लिम्फोब्लास्टिक ल्यूकीमिया।


डॉ. फर्बर के पास सुब्बाराव के पास से आया टेरायिलएस्पार्टिक एसिड एंटीफोलेट था6 सितंबर, 1947 को उन्होंने रॉबर्ट सेंडलर को वह दवा के रूप में देना आरंभ किया। महीने भर इलाज से कुछ लाभ नहीं हुआ। बालक की हालतगिरती गई। स्प्लीन और बड़ी हो गई। कमजोरी बढ़ गई । जोड़-जोड़ में दर्द शुरू हो गया नजं पर दबाव आ गया और भयानक दर्द से बच्चा बिलबिला गया। बच्चा मरणासन्न। सभी हताश। तभी सुब्बाराव ने नया एंटीफोलेट, ऐमाईनाप्टेरीन, भेजाडॉ. फर्बर ने तुरन्त उसको रॉबर्ट को देना शुरू किया। आशा के विपरीत अप्रत्याशित लाभ हुआ। रक्त से कैंसर कोशिकाएं कम हाकर विलीनप्राय हो गईं। स्प्लीन सिकुड़ गई। दर्द खत्म, ट्यूमर खत्म। बच्चा घर चला गया। महीने भर बाद जब दिखाने आया तो अपने पैरों पर चल रहा था। धीरे-धीरे उतना ही स्वस्थ और चंचल जितना उसका जुड़वां भाई । यह सर्वथा अप्रत्याशित था। पहली बार कोई औषधि कैंसर नाशक नहीं तो कैंसर रोधक अवश्य सिद्ध हुई थी।


__डॉ. फर्बर की प्रतिष्ठा फिर स्थापित हुई। रक्त कैंसर के बाल रोगियों की लाइन लग गई। सभी वह दवा चाहते थे और कोई दवा थी ही नहीं। यह दवा केवल डॉ. फर्बर के पास उपलब्ध थी।