जीवन मूल्यों के निर्धारण में समकालीन हिंदी गजल की परम्परा

লেল


अवधेश कुमार


पर्यवेक्षक -डॉ.प्रभा शर्मा (जे.डी.बी.-महाविद्यालय ,कोटा)


हिंदुस्तान ही नहीं अपितु दुनियां के कई देशो में गजल साहित्य की गौरवशाली परम्परा रही है। हिंदुस्तान में सदियों से गजल सभी वर्गों को प्रभावित करती आ रही है। गजल ने धीरे धीरे काल और परिवेश के अनुसार स्वं को आम बोलचाल की भाषा में ढाल लिया है। जिससे गजल को खासो-आम ने सर आंखों पर बिठाया हैयद्यपि गजल जीवन की सभी विषयों पर अपना हस्ताक्षर करता है, तथापि आम आदमी की पीड़ाओं, कुंठाओं, और सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक विद्रूपताओं जिस शिद्दत के साथ स्वतन्त्रोत्तर काल में गजलें नज्में कहीं गयीं, उससे पहले नहींदुष्यंत कुमार के गजल संग्रह 'साये में धूप' ने देश-विदेश में नए कीर्तिमान स्थापित किये हैं, इसी परम्परा में आज देश भर के सैकड़ों रचनाकार गजलें कह रहे हैं और पूरी शिद्दत के साथ कह रहे हैं। हिंदी साहित्य में गजल कहने वालों की संख्या में खासी वृद्धि हुई है,यही कारण है कि आज गजल पर पी.एच.डी.और डी.लिट. जैसे शोध प्रबंध लिखे जा रहे हैं और लिखे जा चुके हैं।


यद्यपि हिंदी साहित्य में गजल लेखन और गजलगोई की परम्परा प्राचीन है। तथापि ये परिपुष्ट परम्परा को ले कर हिंदी गजल की परिपूर्णता और दिनों दिन अग्रसर हो रही है। समकालीन हिंदी गजल लेखन लगभग 1974-75 में शुरू हुआ था, जबकि हिंदी कविता में गजल के नए रंग अमीर खुसरो एवं कबीर के काव्य में भी देखने को मिलते हैं, तत्पश्चात तो मानो गजल काव्य विधा की एक बाढ़ ही आ गयी। भारतेंदु हरिश्चंद्र, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, शमशेरसिंह, त्रिलोचन, बलबीर सिंह 'रंग', शम्भूनाथ शेष, हरीकृष्ण प्रेमी, चिरंजीव 'नीरज', रामावतार त्यागी आदि आदि ने इस परंपरा को सम्मान पूर्वक गति देने में अविस्मर्णीय भूमिका का निर्वहन किया है, यद्यपि उक्त परंपरा में परिपुष्ठता हिंदी गजल में दुष्यंत कुमार में ही आयी उनका स्पष्ट विद्रोह, क्रांति, चुनौती आम आदमी की बदहाली का दृश्य, जो दुष्यंत कुमार ने खींचा है, उससे ही उनके गजल एवं कलम की ताकत को आंका जा सकता है, उनकी युग प्रवर्तिक रचना के कारण ही संभवतया उन्हें समकालीन हिंदी गजल का सूत्रधार और नए युग का सूत्रपात माना गया।


कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए।


कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।।


कुछ विद्वानों का गजल के सन्दर्भ में मानना है कि गजल विशुद्ध रूप से हिन्दुस्तानी सभ्यता की देन है, दुनियां में और कहीं पर हिंदुस्तान के आलावा दो लाइनों का दोहा नहीं मिलता है, दोहा प्राकृत मात्रिक छंद है जिसका साहित्य में सबसे प्राचीन प्रयोग अंग जनपद के सिद्ध कवि 'सरहया' के अंगीक भाषा में लिखे पदों से प्राप्त होते हैं, यहां यह बता देना प्रासंगिक होगा कि 'सरहया' को हिंदी साहित्य के प्रथम कवि होने का गौरव भी प्राप्त है।


गजल की भाषा काव्य भाषा है जो दो सम्प्रदायों को जोड़ने वाली सशक्त विधा है हिन्दुस्तानी ही नहीं दुनिया के कई देश भाषा के आधार पर सम्प्रदायों को देखते हैंउर्दू भाषा को इस्लाम का प्रतीक और हिंदी भाषा को हिन्दू का प्रतीक मानते हैं, यह आग अंग्रेजों ने आजादी से पहले लगाई थी, परन्तु समकालीन हिंदी गजल ने दोनों ही भाषाओं और सम्प्रदायों को भाव भूमि प्रदान कर नए युग का सूत्रपात किया हैगजल सिर्फ गजल है ये कोई हिंदी या उर्दू की भाषिक विवाद का विषय नहीं अपितु इससे उठ कर उन्मुक्तता की उड़ान भरने वाली एक भावपूरित साधना है।


उर्दू की नर्म शाख पर रूद्राक्ष का फल है।


सुंदर को शिव बना रही हिंदी की गजल है।।


हालांकि पूर्व में संकेत किया जा चुका है कि काव्य के क्षेत्र में गजल का इतिहास बहुत पुराना है, हिंदी में 'अमीर खुसरो' और उर्दू में 'वाली' को प्रथम गजलकार माना जाता है। तेरहवीं शताब्दी में सूफी गजलकारअमीर खुसरो जब---


जेहले मिसकी मकुन तमाफुल, दूरी नैना बताये बतियां।


किताबें हीजरा न दारमें, जान लेहूं काहें न लगाये छतिया, ।।


जैसा शेर कह कर ब्रज भाषा का पट गजल में लेते दिखाई देते हैं तो वहीं 'कबीर' जैसे युग प्रवर्तक ने अपने सधुक्कड़ी भाषा में कहा है


हमन है इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या।


रहे आजाद या जग से हमन दुनिया से यारी क्या।।


वहीं प्रेम दीवानी मीरा ने भी 'ओ कान्हा' कह कर हिंदी राजस्थानी भाषा का परिचय दिया ये गजल के आरंभ का युग था जब सभी भारतीय भाषाओं और बोलियों में गजल बड़े शिद्दत और सम्मान के साथ प्रवेश कर रही थी, गजलगो अपनी उड़ान के लिए भाव भूमि तैयार कर रही थी।


__सोलहवीं शती में गोलकुंडा के बादशाह कुतुबशाह ने गजल में दाख्हिनी हिंदी का प्रयोग किया, जिसको 'वाली' ने गति प्रदान की फिर क्या कहना था कि 'मीर' की गजलगोई की मिठास, मिर्जा गालिब का अंदाजेबयां, 'जैक' के नए व्याकरण तथा 'बहादुरशाह जफर' आदि युग प्रवर्तक गजलकारों ने गजल को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साज और आवाज का प्रतीक बनाया, वहीं मुहम्मद इकबाल ने हिंदुस्तान में शुद्ध रूप से इस परम्परा को राष्ट्रीय स्तर प्रदान किया, राष्ट्रीयता,और देश भक्ति को समर्पित गजलों को हिंदुस्तान के हवाले किया। गजल को प्रगतिशील रंग देने वाले गजलकारों में सरदार जाफरी, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी आदि का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है आजादी के जंग में शामिल होने वाले नामी शायर थे 'रामप्रसाद बिस्मिल', अशफाक उल्लाह खान तथा गजल को दार्शनिक स्पर्श देने वालों गजलकारों में 'फिराक गोरखपुरी' तथा 'बशीर बद्र', वसीम बरेलवी कतील शिफाई जैसे नामी-गिरामी शायरों का नाम बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है।


समकालीन हिंदी गजल से पूर्व गजल की परंपरा हिंदी कवियों के नाम से जोड़ी जाती रही है। आधुनिक युग के प्रथम कवि 'भारतेंदु हरिश्चंद्र' ने 'रास' उपनाम से गजलें कही, तो 'अयोध्या सिंह उपाध्याय ने 'हरिऔध' के नाम से गजल के व्याकरण को पोषित किया, 'निराला' और 'प्रसाद' ने भी हिंदी में गजलें कही हैजय शंकर 'प्रसाद' द्वारा रचित प्रेम की एक छटा देखिये।


सरासर भूल करते है उन्हें जो प्यार करते हैं।


बुराई कर रहे हैं और अस्वीकार करते हैं।।


उन्हें अवकाश ही इतना कहां है मुझसे मिलने की।


किसी से पूछ लेते हैं बस यही उपकार करते हैं।।


इसी परम्परा में श्री रूप नारायण त्रिपाठी, एवं श्री बलबीर सिंह जी का नाम हिंदी गजल की परम्परा में बड़ा नाम माना जाता है, और त्रिलोचन जी और शमशेर सिंह जी हिंदी गजल की परम्परा के बहुत नामचीन व्यक्तित्व में गणना की जाती हैजिनके गजलों में हिंदी और उर्दूपन का मणि कांचनं सामंजस्य दिखता है।


यद्यपि पूर्व में हिंदी गजलों में कहीं न कहीं परम्परा ही मुखरित थी। परन्तु जब दुष्यंत कुमार की गजलें प्रकाश में आयीं तो निश्चित तौर पर नया तेवर, नया आक्रोश,व्यंग था, आम आदमी की व्यथा थी, अतृप्ति थी, असंतोष था, सुगबुगाहटछटपटाहट और, नयेपन का शंखनाद था काव्य की दुनियां में परिवर्तन की मशाल थी। ये सभी परिवर्तन 1976 में पत्रकारिता के क्षेत्र से शुरू हुआ ,जिसका नाम था 'सारिका' जिसमें मूल विषय था 'दुष्यंत-स्मृति-विशेषांक' इस प्रकाशन ने साहित्य में एक नए अध्याय के द्वार खोल दिए। इस अंक में कुछ गजलें थीं जो शासन और प्रशासन की गड़बड़ व्यवस्था पर आक्रोशित होती हुई,आम आदमी की पीड़ा, कुंठाअतृप्ति, असंतोष का स्वर मुखरित करती हैं चीखती पुकारती गजलें कहती हैं-


सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं।


मेरी कोशिश है कि सूरत बदलनी चाहिए।।


मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में ही सही।


हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।।


जैसी युगांतकारी शेर दुष्यंत कुमार ने कहे जिसका अनुसरण हजारों बार सम्मेलनों में साहित्य जगत में राजनीति जगत में लोगों ने अपनी बात को वजन देने के लिए कहे अभी समाज की समस्याओं को लेकर कालांतर में सिने कलाकार आमिर खान ने 'सत्य मेव जयते' में भी इसी शेर से धारावाहिक शुरू किया थीदुष्यंत कुमार की युगांतकारी गजलें व्यवस्था की पोल खोलती हुई कहती हैं।


गूंगे निकल पड़े हैं जुबां की तलाश में।


सरकार के खिलाफ ये साजिश तो देखिये।


गूंगी बहरी सरकार के खिलाफ जनता की जुबान बन दुष्यंत कुमार ने वर्षों से त्रस्त जनता, ठगी जनता को आत्म विश्वास का भाव पैदा करने में अहम भूमिका का निर्वहन किया, उन्होंने कहा-


कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं होता।


एक पत्थर तो तबियत से उछलो यारों।।


कहा जाता है कि 'सारिका' में जब 'दुष्यंत-स्मृति-विशेषांक' छपा तो एक पत्रिका के चाहने वालों की संख्या एक दिन में एक लाख से अधिक आ चुकी थीइस पत्रिका ने सभी बंधन तोड़ दिए थे ये सिर्फ साहित्यकार वर्ग के पास ही नहीं अपितु आम जनता के पास आपनी पहुंच बनाने लग गयी-जिससे साहित्यजगत ने भी आपने पुराने घिसे पिटे अवधारणाओं को छोड़ने का संकल्प लिया, तब ही से हमें समकालीन हिंदी गजल की शुरुआत मान लेना चाहिए।


अब दौर ऐसा आ गया कि हिंदी में गजल एक आदत सी हो गयी और आदत कभी जाती नहीं, जाहिर है कि मंचों पर गजल हावी हो गए, समकलीन हिंदी गजल के ऐसे तेवर से अन्य भाषाएं भी प्रभावित होने लगीं, नतीजा ये था कि अन्य भारतीय भाषाओं में भी गजल कहने की परम्परा का सूत्रपात हो गया, अब आलम ये है कि अंग्रेजी भाषा में भी गजल कही जा रही है, इंग्लैंड के अनेक कवि मसलन-ब्रियान हेनरी, डेनियल हाल और शेरोन ब्रियान जैसे नामी गिरामी कवि बाकायदा अंग्रेजी भाषा में गजल को अपनी कलम की ताकत बना रहे हैं, उर्दू भाषा की निकलने वाली 'शाइर' नामक पत्रिका ने “अंग्रेजी गजल और गजलकार" नामक शीर्षक से इनके बारे में छापा है।


यपि समकालीन हिंदी गजल साहित्य की बात दुष्यंत कुमार से शुरू होती हिंदी साहित्य में दुष्यंत कुमार 'नई कविता दौर के अत्याधिक सशक्त हस्ताक्षर थेतथापि गजल साहित्य की बनावट और बुनावट का जहां तक प्रश्न है, वहां गजल साहित्य हिंदी भाषा की अपनी उपज की नहीं है, ये सिर्फ हिंदी में स्थापित किया गया है, एक अमूल्य धरोहर के रूप में और गजल साहित्य के लिए भी बहुत सही है, कि उसको अपने अस्मिता के विकास के लिए सुधि पाठकों और रचनाकारों द्वारा हिंदुस्तान की सर जमीन मुहय्या करवायी गयी। जहां उसको फलने और फूलने लिए बहुत विस्तृत भाव भूमि तैयार मिल गयी।


गजल शब्द अपने आप में सौंदर्य का बोधक है, भावानुभूति प्रधान प्रेरणा दायक बहुआयामी शब्दों वाला अविस्मर्णीय काव्य विधा है,भौतिकवादी प्रतिपादन के आधार पर समकालीन गजलों को पूर्ण रूप से समझ पाना मुश्किल है क्योंकि परिस्थितियों में गुणात्मक परिवर्तन हुआ है, समकालीन हिंदी गजलों के सामने वातावरण और परिस्थिति की कड़ी चुनौती का दौर भी है, दुष्यंत कुमार के सामने विचारों का पूरा कुनबा हुआ करता था, पर आज विचारों में दूषित वातावरण भी हैजिसको कुछ विद्वान बौद्धिक आतंकवाद के नाम से जानते हैं, गजल के लिए भावना और विवेकशीलता की लयात्मक सम्प्रेषणीयता की आवश्यकता होती है तथा प्रगतिशाली चेतना ने इस काव्य विधा को अत्यंत तीक्ष्ण और पैना बना दिया जिससे दुष्यंत कुमार के बाद गजल साहित्य का तेवर और अधिक सर पर चढ़ के बोलने लगा है अब गजलकार की पैनी निगाहें सब कुछ देख लेती है, समकालीन हिंदी गजल विषयवस्तु में सामाजिक विषमतायें, ज्वलंत समस्याएं, विसंगतियां, विरोधाभास था, विद्रूपताएं आदि आदि अनेक विषयों ने अपना अधिकार गजल साहित्य पर किया है।


- दुष्यंत कुमार के बाद गजल साहित्य अपने सामर्थ्य और शक्ति के अनुसार आपने आपको उस मुकाम पर प्रतिष्ठित करता है जहां भाषिक भेद गौण हो जाते हैं और मानवीय भावनापरक बातें श्रेष्ठ हो जाती हैं, जहां पाठक और लेखक का संसार मानवीय चेष्ठाओं और जटिलताओं को यूं का यूं गजल में उतार कर अभिव्यक्ति प्रदान किया जाने लगा है दैनन्दिन गजल पाठकों और गजलकारों की बढ़ती संख्या में वृद्धि इस बात का प्रमाण है। आंगन के गलियारे से संसद के दरवाजे तक बडे सम्मान से इसका नाम लिया जाता है। ये बात सर्व विदित है कि गजल मध्य युग में सिर्फ बुद्धिजीवियों और धनाढ्य वर्ग में ही प्रचलित थी समकालीन हिंदी गजल ने आम आदमी तक पहुंचाया, पहले गजल का विषय सिर्फ प्रेम और श्रृंगार हुआ करता था जो अब आम आदमी की रोजमर्रा की पीड़ा संवेदना भी समाहित हो गयी हिंदी साहित्य के 1936 के बाद में प्रगतिशील आन्दोलन ने हिंदी और उर्दू अदब के साहित्यकारों को अतीत की रोशनी में भविष्य सोचने और समझने का मार्ग प्रशस्त करता है उस मार्ग का एक पड़ाव समकालीन हिंदी गजल बनें जहां से अनेकानेक रास्ते फूटे और अपनी-अपनी मंजिल की तलाश में गजलगोई चलती रही, दुष्यंत कुमार के पश्चात् एक पूरा का पूरा लब्ध प्रतिष्ठित गजलकारों का समूह, मनीषी विद्वानों साहित्यकारों का गजल चिंतन का बेबाक काफिला तैयार हो गया जिसमें बड़ी सिद्दत के साथ बेबाकी से जीवन के हर पहलु को छुआ है,संवारा है, साधा है गजल के लिए सबसे आवश्यक है स्वस्थ कल्पना, परिपक्व सोच, भाव तथा भावाभिव्यक्ति तथा इन सभी के लिए आवश्यक है 'बहर' फिर 'काफिये' और उसके बाद 'रदीफ' हिंदुस्तान में गजल की ऐसी ही परिपक्व जमीन है जहां पर आज मुन्नवर राणा ,निदा फाजली, डॉ.जानकी प्रसाद, राहतइन्दौरी, बकौल कुमार 'बरतर', डॉ. कुंवर 'बेचैन', आर.पी.शर्मा, डॉ. दरवेश भारती 'महर्षि', डॉ.रामदशरथ मिश्र, डॉ. शेरजंग गर्ग, डॉ.अमेन्द्र, कमलेश्वर, माणिक वर्मा, चांदशेरी (कोटा), पुरुषोत्तम यकीन',अदम गोंडवी' डॉ. शम्भूनाथ तिवारी, दीक्षित दनकौरी, जहीर कुरैशी आदि गजलकारों ने इस गजल की परम्परा को पुर जोर तरीके से आगे बढ़ाया है, चांदशेरी (कोटा) ने क्या खूब कहा है-


एक लम्बी कतार बाकी है।


मुफलिसों की पुकार बाकी है।।


कत्ल मासूम हो गये लाखों।


फिर भी खंजर की धार बाकी है।।


इनकी गजलों में आम बोलचाल की भाषा में आम आदमी की पीड़ा को अभिव्यक्ति मिल रही है इसी परंपरा में पत्र-पत्रिकाओं ने भी अपना स्थाई स्तम्भ के रूप में गजल को स्थान दिया है, 'दीक्षित दनकौरी' ने 'गजल दुष्यंत के बाद' में समकालीन हिंदी गजल 1975 के बाद लगभग सभी गजलकारो की गजलों का संकलन किया है। इसके अतिरिक्त कथादेश, आज-कल, नया-ज्ञानोदय, वसुधा, पहल, हंस, विभिन्न साहित्य अकादमी की पुस्तकों में भी गजलों को स्थाई स्तंभ के रूप में रखा गया है, जिससे गजल साहित्य की धारा का सतत प्रवाह हो रहा है, आवश्यकता इस बात कि है की हिंदी में महत्वपूर्ण गजल विधा का निष्पक्ष, तटस्थ, एवं वस्तुपरक आंकलन किया जाना चाहिए ताकि समकालीन हिंदी गजल, हिंदी में भी वो अपना स्थान बना सके जिसकी वो अधिकारनी है।