आलेख
दिनेश प्रभात
आजकल साहित्य-जगत में 'समकालीन' शब्द बहुत प्रचलन में है। कह लीजिये फैशन में है। जो समकालीनता की बात नहीं करता उसे परंपरावादीदकियानूसी, रूढ़िवादी या फिर समय से कटा हुआ रचनाकार माना जाता है। अतीत के पन्ने पलटेंगे तो ज्ञात होगा कि विधाओं को नये-नये चोले पहनाना साहित्यकारों का प्रिय शौक रहा है। पहले आधुनिक गीत, आधुनिक गजल, आधुनिक कविताआधुनिक कहानी आदि के नाम से उन्हें पुकारा गया। फिर उन्हें नवगीत, नई गजलनई कविता, नई कहानी की संज्ञा दी गई। अब उन्हें समकालीन गीत, समकालीन गजल, समकालीन कविता, समकालीन कहानी के परिधान पहनाये जा रहे हैं। यानी हर विधा की रचनाओं के साथ समय के हिसाब से विशेषण। आखिर बार-बार इस बदलाव का आशय क्या है? ये फैसले पाठकों पर क्यों नहीं छोड़ दिये जाते?
हमारा देश महान रचनाकारों की विरासत है। सभी रचनाकारों का लेखन समय,परिस्थिति, काल के हिसाब से बंटा हुआ है। हम भी अपने पाठ्यक्रमों में अलग- अलग प्राचीन कवियों व लेखकों को पढ़कर बड़े हुए हैं। वे सभी समय के दस्तावेज थे। साहित्य को समाज का दर्पण यूं ही नहीं कहा गया है। समय से कटकर अथवा उसकी अनदेखी करके न तो कोई रचनाकार कुछ लिख सकता है, न ही रह सकता है। यदि ऐसा होता तो हमारे पूर्वजों का लेखन भक्तिकाल, रीतिकाल, छायाकाल, भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग आदि में नहीं बंटता। उस समय भी सच्चाइयों का बखान होता था।
पता नहीं किसने कवि के साथ कल्पना की बात नत्थी कर दी। विचारों की उड़ान तो हर युग में संभव है। आप किसी भी कवि की किताब उठाकर देख लीजिए, हर कवि अपने आत्मकथ्य में लिखता है-'मैं जो जीता हूं, जो भोगता हूं, जो देखता हूं, जो ओढ़ता-बिछाता हूं वही अपनी कविता में लिखता हूं। ये सारी बातें तय करती हैं कि रचनाकार कभी कल्पनालोक में नहीं जीता। सच तो यह है कि दूसरी दुनिया की बात करके वह अपने पाठकों को परी-लोक में तो ले जा सकता है, उन्हें संतुष्ट नहीं कर सकता। शायद इसी जगह आकर समकीलनता जैसे शब्द ने जन्म लिया है और हर रचनाकार यह सिद्ध करने में लगा है कि वह ही एक चेतना संपन्न कवि है, जागरूक रचनाकार है, समाज का पहरुआ है, सबकी चिंता करने वाला प्राणी है, अव्यवस्थाओं से लड़ने वाला सैनिक है, अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाला कलमकार है और सबको आईना दिखाने का एक मात्र अधिकारी हैवह मानता है कि परी-लोक का सपना उसके साथ संलग्न करना मात्र एक जुमला है। प्रश्न यही है कि रचनाएं जब अपने समय की पारदर्शिता का चित्रण करती हैं तो उनके साथ समय-सूचक तख्ती लगाने की आवश्यकता क्यों?
___बहरहाल, बात गजल की है और गजल में समकालीनता की। गजल क्या हैइस विषय को हम यहीं छोड़ते हैं। सब जानते हैं कि गजल कहां से चली थी और कहां आ गई है? हम इस बहस में भी नहीं जाना चाहते कि गजल नाम की यह नदी किस पहाड़ से निकली है और आज यह बताना भी फिजूल है कि यह पहले अरबीफिर फारसी, फिर उर्दू और अब हिंदी के मैदान तक आ गई है। बात सिर्फ गजल समकालीनता को लेकर है। मन में प्रश्न कौंधता है कि
-समकालीनता का दावा करने वाली आज की सभी गजलें क्या समकालीन हैं?
-प्रेम व श्रृंगार को अछूत मानने वाले गजलकार क्या अपने इरादों पर कायम हैं?
-भाषा की मर्यादा तोड़कर लिखी जाने वाली गजलें कितनी समकालीन हैं? ये सब विचारणीय विषय हैं जिन पर चर्चा होनी चाहिए।
आज हर विधा में पारंपरिकता व आधुनिकता की लड़ाई छिड़ी हुई है। गजल भी इससे अछूती नहीं है। बरसों पूर्व लिखी गजलों को लोग 'पिछड़ी', 'कालातीत', 'भूली-बिसरी' अथवा 'आडंबरपूर्ण' करार देते हैं और वर्तमान में लिखी गजलों को समयानुकूल बताकर, समकालीनता का जामा पहनाकर, वास्तवकिता के ज्यादा निकट बतलाते हैं। अलग-अलग काल में लिखी गई रचनाओं का ऐसा वर्गीकरण परेशान करता है। यह लटठ मार कर पानी को अलग करने वाला कदम हैं और दो पीढ़ियों में वैमनस्य बढ़ाने वाली बात है। समय, काल, स्थिति, परिस्थिति के अनुसार रचनाएं जन्म लेती हैं। वे उस समय का आईना होती हैं। उसी के हिसाब से उनकी लोकप्रियता, सार्थकता तथा उपादयेता का आकलन होता है। समय जिस गति से बढ़ रहा है उसमें संभावना है कि आज की समकालीन गजलें जल्दी ही परंपरागत में बदल जायेंगी।
पहले शायद सब कुछ अनुकूल होता होगा तभी तो रचनाओं में जटिलता नजर नहीं आती। आज का समय कठिन है, परिस्थितियां प्रतिकूल हैं, सोच बदले हुए हैंविचारों में भिन्नता है, आकलन के पैमाने अलग हैं, व्याकरण/समीकरण/अलंकरण सभी में तब्दीली है। जाहिर है परिवर्तन व परिमार्जन की बात स्वाभाविक है। समय की मांग से दूर जाकर या उसे नजरअंदाज करके कोई भी विधा जिंदा नहीं रह सकती। तय है आज की गजल पहले की गजल से अलग होगी
सवाल यह है कि समकालीनता की आड़ में परंपरागत शायरी के शिखर पुरुष मीर, गालिब को क्या आप गजल के परिदृश्य से गायब कर देंगे? कृष्ण बिहारी 'नूर' जैसे मोहब्बत के शायर को समाज से बहिष्कृत कर देंगे। आपके हाथ का पत्थर आखिर किसकी तलाश में है? जिस गजल को आज आप समकालीन कह रहे हैं, आने वाले समय में वहीं परंपरागत होगी और जिसे आप परंपरावादी कह कर नकारते हैं, वही कल की लोकप्रिय समकालीन गजल थी। समय गतिशील हैप्रगतिशील है, परिवर्तनशील है। यहां प्रतिदिन, प्रतिपल बहुत कुछ बदलता है। आप किसका, कितना पीछे करेंगे? और यह भी कि पृथ्वी की तरह यहां बहुत कुछ गोल है। जो जहां से चला है, उसे वहीं लौटना होगा। आपकी लेखनी जिसे छोड़-छोड़ कर भाग रही है उसी को अंततः गले लगाना पड़ेगा। समय को इसीलिए 'चक्र' कहा गया है। आज का गजलकार इस तथ्य व सत्य को जितना जल्दी समझ ले, गजल के हित में होगा। पाठकों में भी ऊबने की बीमारी होती है। नीम का ही काढ़ा पीने के लिए वो अभिशप्त नहीं है। अभ्यस्त तो है ही नहीं। विषय के एक ही प्रवाह में, एक ही धारा में उसे देर तक नहीं बहाया जा सकता।
मेरा अध्ययन यह बताता है कि पारंपरिकता का सहारा लिये बिना कोई भी गजल समकालीन होने का दावा नहीं कर सकती। मैंने तो यहां तक देखा कि जो गजलकार पौराणिक संदर्भो को वर्तमान समय से जोड़कर शेर कहता है वो समकालीन शायरी का बड़ा पैरोकार बनकर उभरता है। पारंपरिकता और समकालीनता गजल की चूनर के दो छोर हैं। एक पल्लू कमर में खोंसकर रखोगे तो ही दूसरा मुक्त होकर आकाश में उड़ेगा। ये रेल की पटरियों की तरह भी हैं। साथ-साथ चलते हैं। मिलन की दूरियां भले ही दोनों के बीच हो, लेकिन दांयें-बांयें रह कर एक-दूसरे का साथ निभाने की कला व दृष्टि से वे पूरी तरह संपन्न हैं।
हाल ही मेरे हाथ में गजल की एक किताब आई है-'दसखत'। इस पर साफ-साफ लिखा है कि-'दस समकालीन कवियों का गजल संग्रह' हालांकि 'समकालीन' शब्द बरसों से सुनता आ रहा हूं किंतु लेख लिखने से पहले इसकीपरिभाषा व प्रामाणिकता जानना जरूरी था। मन में बुनियादी प्रश्न था- आखिर समकालीनता का दायरा क्या है? उसकी समय सीमा क्या है? हिंदी गजल के चर्चित हस्ताक्षर श्री जहीर कुरेशी मेरे अच्छे मित्र हैं। घर और दिल दोनों के पास । संयोग से वे भी इस गजल का एक हिस्सा है। मैंने उन्हीं से अपने प्रश्न का उत्तर जानना चाहा। उनका कहना था कि आज के समय को लेकर जो भी विधा बात करती है वह 'समकालीन' की श्रेणी में आती है। इसमें वे सब स्थितियां शामिल हैं जो राजनैतिकआर्थिक, सामाजिक, वैज्ञानिक आदि की परिधि में आती है। समकालीनता की 'समयावधि' के बारे उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर अपनी राय दी कि वे पिछले 25 वर्ष से लेकर अगले 10 वर्ष को समकालीनता के दायरे में मानते हैं। उनसे वार्ता के बाद मेरी आंखों का जाला थोड़ा साफ हुआ। मुझे समझ में आ गया कि वर्ष 2017 में प्रकाशित उक्त गजल संग्रह में 1992 के बाद की अवधि ही समकालीनता के दायरे में आयेगी। उससे पहले का हिस्सा 'पारंपारिक' खोल में चला जायेगा।
जब मैं इस गजल संग्रह से गुजरा तो बहुत सी रोचक बातें मेरे सामने आईंसबसे पहली बात तो यह कि यदि मैं परीक्षक बनकर कॉपी जांचता तो कवियों के क्रम में बड़ा उलट-फेर हो सकता था। लेकिन संपादक का फैसला न्यायाधीश का फैसला होता है। यह मुझसे अच्छा कौन जान सकता है? बहरहाल, विवाद से बचने के लिए उम्र की वरिष्ठता का पैमाना ही अधिक उचित है। गौर से देखें तो इस संग्रह के गजलकार उम्र की स्वर्ण जयंती से लेकर अमृत महोत्सव तक का सफर तय कर चुके हैं। यानी सभी की आयु 52 से लेकर 75 वर्ष तक है। इस संग्रह की खासियत है कि इसमें परंपरा व समकालीनता अनेक जगह कांधे से कांधा मिलाकर साथ चलती हैं।
आइये, कुछ ऐसे ही सुहाने दृश्यों की ओर आपको ले चलना चाहता हूं। जहां समकालीनता के कुर्ते पर पारंपरिकता की जॉकेट पहनकर शायर कितना खूबसूरत हो जाता है।
संग्रह के दस कवियों में सबसे उम्रदराज रचनाकार हैं- रामकुमार ‘कृषक'प्रारंभ से लेकर अंत तक उनके पूरे नाम में ही परंपरा झलकती है। 'राम' और 'कृषक' शब्द समकालीनता के प्रतिनिधि तो कदापि नहीं। उनके शेर हैं-
• आपके हाथों की मेहंदी तो नुमाइश के लिए
हमने चूमे हाथ वो, आये जो गोबर सान कर
सारी दुनिया तो पोथी है
तुम हो ढाई आखर जैसे
हम उसे सुनते रहे, गाते रहे
उनका बाजूबंद जो खुल-खुल गया
उक्त तीनों शेरों में प्रेम और समर्पण की नई तरीके से जो बात की गई है वह परंपरागत प्रतीकों-गोबर सानकर, पोथी, ढाई आखर और बाजूबंद के बिना कहां संभव थी?
ज्ञान प्रकाश विवेक की गजलें तो पौराणिक संदर्भो से भरी पड़ी हैं। आज के कठिन समय को व्यक्त करने में उन्हें इनकी कितनी मदद मिली है, बयान करना मुश्किल है। पेश हैं उनके कुछ शेर-
• तमाम लोग समझने लगे हैं राम मुझे
मैं एक कागजी रावण जला के आया हूं
• वो एकलव्य भी कितना महान था यारो
अंगूठा काट दिया द्रौण की खुशी के लिये
• हमेशा कृष्ण ही होते हैं द्रौपदी के लिए
हमेशा हारता है धर्मराज नैतिकता
अब न यहां है कोई भगीरथ और न कोई है शंकर
अपनी रामकहानी जाकर किसे कहेगी गंगाजी
तब तक धूनी जलती रहती है तन में
सांसों का इकतारा चलता रहता है
हरेक आदमी बेघर है जिंदगी के लिए
कि जैसे राम भटकते हैं जानकी के लिए
• मैं रास्ते में जो दीपक जला के आया हूं
तड़प रहा है वो जीवन की आरती के लिए
सोचिये- राम, रावण, जानकी एकलव्य, द्रौण, धर्मराज, कृष्ण, द्रौपदी, भगीरथशंकर, धूनी, इकतारा, रामकहानी, गंगाजी, दीपक, आरती, जैसे शब्द प्रयुक्त नहीं होते तो क्या विवेकजी की समकालीन गजलों में चार चांद लग सकते थे?
जहीर कुरेशी भी अपनी गजलों को प्रभावी बनाने के लिए भरपूर परंपराओं से जुड़ने और सदियों से चले आ रहे शब्दों को प्रयोग में लाते हुए आज की बातें करते हैं। यथा-
सोचिये- राम, रावण, जानकी एकलव्य, द्रौण, धर्मराज, कृष्ण, द्रौपदी, भगीरथशंकर, धूनी, इकतारा, रामकहानी, गंगाजी, दीपक, आरती, जैसे शब्द प्रयुक्त नहीं होते तो क्या विवेकजी की समकालीन गजलों में चार चांद लग सकते थे?
जहीर कुरेशी भी अपनी गजलों को प्रभावी बनाने के लिए भरपूर परंपराओं से जुड़ने और सदियों से चले आ रहे शब्दों को प्रयोग में लाते हुए आज की बातें करते हैं। यथा-
• उसके मन-मंदिर में आ बैठा था कोई एक दिन
आस्था टूटी तो मन का देवता जाता रहा
मंदिर या मस्जिदों की तरफ मन नहीं किया
तर्कों ने आस्था का समर्थन नहीं किया
तपस्या-भंग सी लगने लगी है
कहां से आ गई 'तितली' अचानक
• पूरी उसकी दुआ हो गई शब्द जिसने उचारे नहीं
• गुड़ाई हो गई बीजों की अँकुराने से पहले ही
मुझे तुमसे अलग होना पड़ा, पाने से पहले ही
हमारे राजनेता इसलिए बेचैन दिखते हैं
बटेरों से लड़ाने के लिए तीतर नहीं आये
अनुमान लगाइये-मन-मंदिर, देवता, कबीर, मंदिर-मस्जिद, तपस्या-भंग, दुआ, आस्था, उचारे, गुड़ाई, तीतर, बटेर, जैसे प्राचीन बिंबों, प्रतीकों ने कितनी शालीनता से एक कवि को समकालीन गजलकार के रूप में स्थापित कर दिया।
___ आधुनिक गजलकार 'हरे राम 'समीप' के नाम में भी 'राम' छुपा है। लीक से हटकर बात कहने के लिए उन्होंने भी परंपरागत शब्दों, प्रतीकों के खूब दरवाजे खटखटाये। शेर देखें
ये जो संसद में बिराजे हैं कई गोबर गनेश
और कब तक हम उतारें इन बुतों की आरती
आशा की फस्ल खेत से हर बार लुटी है
रखवाली यहां क्योंकि बिजकों को मिली है
कीर्तन ऊंचे स्वरों में कर रहे हैं क्यों सभी
न तो हम बहरे हैं, न तुम दूर हो भगवान से
अब कंस भी तो कंस की मुद्रा में नहीं है
लगता है आज कृष्ण भी मथुरा में नहीं है
• संसार के कण-कण में विराजे हैं श्रीराम
वो राम सिर्फ एक अयोध्या में नहीं है
गिनते जाइये- गोबर-गनेश, आरती, फस्ल-खेत, बिजूकों, कीर्तन, भगवान, कंसकृष्ण, मथुरा, श्रीराम, अयोध्या, जैसे पुरातन शब्द किस तरह गजल को समकालीनता के परिधान पहनाते हैं।
'देवेन्द्र आर्य' परंपराएं तोड़ने वाले आधुनिकता के पक्षधर कवि हैंअब जरा उनके चंद अशआरों पर नजर डालिये-
• रोज यही कहती है अम्मा हे ईश्वर अब मुझे उठा लो
• चाहे जितना बदले फिर भी/घर क्या है चूल्हे-चौके बिन
है कहां द्रौपदी के पांचों मियां/जाने कबसे बिसात बैठी है
• गंगा मैया कुछ तो कर/मर जायेंगे पानीदार
अब आप ही देखिये....अम्मा, ईश्वर, चूल्हे-चौके, द्रौपदी तथा गंगा मैया की कृपा ने इनके शेरों में कैसे प्राण फूंके कि उन्होंने समकालीनता की ओर दौड़ लगा दी।
___ 'ओम प्रकाश यती' जितना अधिक महाभारत, मंदिर-मस्जिद, पौराणिक कथाओं और प्राचीन संदर्भो के समंदर में गोते लगाते हैं उतने ही समकालीनता के मोती निकाल कर लाते हैं। देखें-
• सब धुरंधर सर झुकाये हैं खड़े दरबार में
वक्त कैसा आ गया है द्रौपदी के सामने
• था तो भाई ही मगर जब जान पर बन आई तो
कंस कैसे पेश आया देवकी के सामने
आदमी क्या, रह नहीं पाये सम्हल के देवता
रूप के तन पर गिरे, अक्सर फिसल के देवता
• हमेशा जीत निश्चित तो नहीं है तेज धावक की
रवानी हो जो जीवन में तो कछुआजीत जाता है
• कुर्ता-धोती-गमछा-टोपी, सब जुट पाना मुश्किल था
पर बच्चों की फीस समय से भरते आये बाबूजी
• उनको तो मंदिर-मस्जिद से वोट की खेती करनी थी
हम आपस में लड़ना सीखे, लेना एक न देना दो
उपर्युक्त शेरों में आप देखेंगे कि दरबार, द्रौपदी, कंस, देवकी, देवता, कछुआ, कुर्ताधोती, गमछा-टोपी, मंदिर-मस्जिद सब मिलकर कितनी सुंदर समकालीन गजलों का निर्माण करते हैं।
इंदु श्रीवास्तव' समकालीन गजल में नारी-स्वर का प्रतिनिधित्व करती हैं और इस संग्रह में भी। शेरों में प्रयुक्त उनके शब्दों पर गौर फरमाएं
• नजर में रोशनी भरती रही मां/चरागों से बने काजल को लेकर
• उसकी सूरत हैं बादशाहों-सी/आदतों से वजीर लगता है
• इतनी माला, इतना चंदन/पत्थर तो पत्थर हैं संतो
• पत्ता-पत्ता जहर पिये हैं/ घट-घट में शंकर है संतो
• बीच बजरिया बने जुलाहा/छलका ताना-बाना संतो
समकालीन गजल-संग्रह में इन शेरों में परंपरागत शब्दों का जैसे-चरागों, काजल. बादशाहों. वजीर. माला. चंदन. संतो. शंकर. बजरिया जलाहा. ताना-बाना का प्रयोग किया है लेकिन इनका अंदाज समकालीन कम, सूफियाना ज्यादा लगता है।
समकालीन गजल के एक और हस्ताक्षर कुमार विनोद की गजलों में परंपराएं कैसे आती हैं, देखें-
• बड़ी हैरत में डूबी आजकल बच्चों की नानी है
कहानी की किताबों में न राजा है न रानी है
जमाना मेल का है और तुम खत पर ही अटके हो
जो गालिब को भी इंटरनेट मिला होता तो क्या होता
उपरोक्त दोनो शेरों में नानी, राजा, रानी, गालिब ने मिलकर आज की गजल कोप्राणवंत बनाया है।
___ 'विनय मिश्र' संग्रह के अंतिम क्रम में विराजमान है। इनकी गजलों में भी नई सदी खुल कर बोलती है मगर परंपराओं से जुड़े बिना इनकी समकालीनता भी अधूरी रहती है। उदाहरण
• राम जाने, राम कब लौटे
मैं अवध की मुर्दनी में हूं
यहां जो भी है सब मेरे राम का है
ये तुलसी की चौपाइयांजानती हैं
रचनाकार कितना भी आधुनिक हो जाये, उसे अपनी जड़ों की ओर लौटना ही होता है। 'राम' और 'तुलसी की चौपाइयों' का नई सदी की गजल में पुनः पुनः लौटना इसी सच की ओर इंगित करता है । गजल संग्रह से पचासों उदाहरण प्रस्तुत करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन नहीं है कि समकालीन रचनाओं में असर पैदा करने के लिए पारंपरिकता का सहारा लेना कितना महत्वपूर्ण है?
अब दूसरी महत्वपूर्ण बात...। आज की गजल का वर्जित क्षेत्र है- प्रेम। द्वार पर साफ-साफ लिखा है--प्रवेश निषेध । गजल ही क्या, आज कल सभी विधाओं में इस विषय को दोयम दर्जे का माना जाता है। पिछले दिनों भोपाल में एक पुस्तक के लोकार्पण समारोह में सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ ज्ञान चतुर्वेदी ने 'प्यार' शब्द पर बोलते हुए कहा कि- "अब प्यार का फैशन नहीं रहा। आजकल इसे बेवकूफी माना जाता है। कहते हैं-'आग का दरिया है और डूब कर जाना है', जब आग का दरिया है तो डूबने क्यों जा रहे हो?" दरअसल वे राजधानी की कवयित्री ममता तिवारी की दो प्रेमकृतियों 'सरगोशियां' और 'यूं भी कभी-कभी' का लोकार्पण करते हुए अपनी बात कह रहे थे।
दरअसल, उम्र की ढलान पर अथवा सपनों के वानप्रस्थ की स्थिति में प्यारमोहब्बत-रोमांस के प्रति यह उपेक्षा भाव व रूखापन स्वाभाविक है। इसके बावजूदकिसी विषय को पुराना बताकर उसे नकार देना या उसे आलोचना का शिकार बनाना वर्तमान की कठोर सच्चाई से मुंह मोड़ना है। पुराने विषय को नवीनता के साथ, नये अंदाज में कहना भी तो ताजगी प्रदान करता है। समकालीनता का रिश्ताप्रस्तुतिकरण की नूतन कला से है, विषय की प्राचीनता से नहीं।
21वीं सदी में जहां प्रेमी-युगल हाथों में हाथ डाले खुले आम घूम रहे हों, वेलेंटाइन हों, 'लिव इन' का फैशन चलन में आ गया हो, यहां तक कि उम्रदराज लोगों तक को प्रेम का नशा चढ़ गया हो, इनके अच्छे-बुरे परिणाम भी सामने आने लगे हों. फिर भी यह नये समय का सर्वाधिक ज्वलंत मुद्दा समकालीनता के दायरे में नहीं आता। आज की गजल इस पर मौन रहना पसंद करती है। प्यार को हिकारत की नजर से देखती है। आज का कवि कविता को तो प्यार से दूर रखना चाहता है और एकांत मिलने पर घंटों इसी पर सोचता है अथवा समूह में रोमांस पर ही बतियाता है। मंच पर कुछ और नेपथ्य में कुछ, क्या यह पाखंड का प्रमाण नहीं है?
सच तो यह है कि समाज का कोई भी विषय बहिष्कृत या तिरस्कृत के योग्य नहीं होता। जो कुछ हो रहा है, घट रहा है, चल रहा है, वह समकालीनता का हिस्सा है, उसे चर्चा से बाहर नहीं रखा जा सकता। यदि आप ऐसा करते हैं तो छुआछूत एवं भेदभाव के अपराधी हैं और दंड के भागीदार भी। प्रतिबंध किसी बीमारी का इलाज नहीं होता। फिर भावनाओं पर बंदिश? यानी विनाशकाले विपरीत बुद्धि।
प्यार एक खौलता हुआ पानी है। इसे ढकने का प्रयास करोगे तो वह ढक्कन को उछाल देगा। इतना कि सीधा छत से टकराएगा। इसी खौलते हुए पानी ने एक दिन रेल के इंजन का आविष्कार कर दिया था। भाप को कमजोर समझना बड़ी भूल होगी। फिर आज तो चारों ओर घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य का साम्राज्य है- ऐसे में प्रेम बोना, प्रेम करना, प्रेम बांटना, प्रेम को सुरक्षा देना, प्रेम को प्रोत्साहित करना समकालीन गजल की प्राथमिक सूची में होना चाहिए। फिर यह विषय शाश्वत है, सनातन है। भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों से जुड़ा है। प्रेम ईश्वर प्रदत्त है। जब तक सृष्टि रहेगी, चलता रहेगा। आपने छोड़ा तो आपके बेटे-बेटी करेंगे, वे छोड़ेंगे तो पोतेपोती करेंगे... आप कहां तक रोकेंगे? समकालीन गजल को इसे ठुकराने की नहींअपनाने की जरूरत है। प्रेम एक विराट शब्द है। इस पर बड़े दिमाग से सोचने की जरूरत है।
_ 'दसख़त' में प्रकाशित गजलें इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं कि प्रेम को न तो जड़ से उखाड़ा जा सकता है, न उसकी जड़ों को काटा जा सकता है। दुनिया भर की खाक छानने के बाद आखिर सभी कवियों को प्रेम की छांव में आना पडा। उनकी अंगारे उगलती-उगलती कलम से अचानक रस बरसने का जायजा आप भी लीजिए
• हँसी तुम्हारी निर्झर जैसे/हँसे समूचा मंजर जैसे
• यों तो संदेह देह पर भी नहीं/मन से मनहार हो तो बात बने
• दर्द कुछ गहरा गया, तड़पा गया/पास से गाकर कोई बुलबुल गया।
-रामकुमार कृषक
महबूबा को खुश करने को/थोक बंद लिख डाली गजलें -राम मेश्राम
• मैं चार लफ्ज मुहब्बत के लेके निकला था
इन्हीं से गैर को अपना बनाने आया हं
• बेचैनी के बाद अंधेरे कमरे में/यादों का लशकारा चलता रहता है
-ज्ञान प्रकाश विवेक
• बंद कमरा कर लिया तो रात-सी लगने लगी
•रात-सी लगते ही दो देहों का संगम हो गया
• बहुत मुश्किल से मिल पाया सही एकांत दोनों को
वो चुप्पी मार कर बैठे हैं, बतियाने से पहले ही
• आप तन तक ही सीमित रहे/आप मन में पधारे नहीं -जहीर कुरेशी
• आपस में अगर अपनी मोहब्बत बनी रहे
इस खौफनाक दौर में हिम्मत बनी रहे
• वो आखिरी बयान में समझा गया हमें
जैसे भी हो ये प्यार की दौलत बनी रहे -हरेराम समीप
• जिसके कारण जगे हो सारी रात/वो भी तो रात-भर जगी होगी
• तुम्हारी चूड़ियां खामोश क्यों हैं/ मेरी तनहाइयों को खनखना के
• क्यों अभी डूबने लगा यह चांद/मेरे पहलू में रात बैठी है -देवेन्द्र आर्य
• मन में मेरे उत्सव जैसा हो जाता है
तुमसे मिलकर खुद से मिलना हो जाता है
• हंसी को और खुशियों को हमारे साथ रहने दो
अभी कुछ देर सपनों को हमारे साथ रहने दो -ओम प्रकाश यती
• सारी गली के लोग तुम्हारे मुरीद हैं
हमको भी काश दिल से पुकारा करे कोई
• तेरी यादों की खुशबू से हवायें तरबतर क्यूं हैं
कहां से होके आई है सबेरे की हवा जाने
• तुझको सूरज कहूं कि चांद कहूं/ यार! तू बेनजीर लगता है। -इन्दु श्रीवास्तव
• उदासी बेसबब कोई मुझे जब घेर लेती है
मेरे ओठों पे बरबस ही तुम्हारा नाम आता है
• उसके ओठों के बारे में क्या बोलूं
गालिब के मतले से मानो मिसरे थे
• अजब-सा एक सम्मोहन मैं खुद को रोक ना पाया
कि उसके शॉल को हल्के से मैंने छ लिया फिर से -कुमार विनोद
याद आने के बहाने थे कई/भूलने का एक भी रस्ता न था
• एक खुशबू से भरे खत में जो छुअन हो तुम, उसी में हूं,
• मेरे जीने में वो भी शामिल था/जो न मेरा था आखिरी दम तक -विनय मिश्र
उपरोक्त सभी समकालीन कवियों के मुहब्बत-भरे शेर पढ़कर लगता है कि प्रेम हमारी नस-नस में है, हमारे स्वभाव में है। विचारों की लंबी उड़ानों के बाद पुनः प्रेम की टहनियों पर लौटना इसी सत्य का पुष्टिकरण है। यह इस बात की भी स्वीकारोक्ति है कि विसंगतियों के आसमान में कितना भी विचरण कर लिया जायेसुकून प्रेम के आगोश में ही मिलता है।
अब विमर्श का तीसरा पहलू... । समकालीनता के इस दौर में कुछ गजलकारों ने नये प्रतीकों, बिंबों, मुहावरों, संदर्भो का जो प्रयोग किया है वो सचमुच अद्भुत व मन को प्रफुल्लित करने वाला है। लेकिन, इसी समकालीनता के नाम पर कुछ गजलों की भाषा बेहद असभ्य, अमर्यादित, अशोभनीय, अशालीन तथा गजल के चरित्र के विरुद्ध है। वह गजल के आधुनिक परिवेश को ही कठघरे में खड़ा करती है। आश्चर्य है ऐसी गालियों के पुलिंदे को दुष्यंत की काव्यभाषा को नया आयाम देने वाला बताया जाता है। निखटू, पिठू, तेरे बाप का, गधों, खुजली मिटाने, मिस्टर उजले, मूत, कमीनपन, लल्लो-चप्पो जैसे ये शब्द गजल की कौन-सी आचार संहिता में आते हैं? गाली-गलोच, उकसाना, भड़काना, चीखना, दांत पीसना, खिल्ली उड़ाना, समकालीन गजल का कौन-सा चरण है? अगले सफर का यह कैसा सुहाना दृश्य है? अगर यह आज की गजल है तो बेहद चिंताजनक है। आक्रोश कविता को वजनदार बनाता है लेकिन निकृष्ट भाषा कविता का स्तर नीचे गिराती है। सेवानिवृत्त होते ही प्रशासनिक सेवा के योग्य अधिकारी लठैत बनकर बाहर निकल आये। यह चौकाने वाली बात है। कवि तोड़फोड़ का कारखाना चलायेगा तो बेचारे साहित्य का क्या होगा? राम तो मर्यादा पुरषोत्तम थे, आप कैसे 'राम (मेश्राम)' हैं?
एक बात और... समकालीनता के नाम पर गजल को दीर्घायु होने से रोकिये मत। रचना में जब किसी व्यक्ति विशेष का नाम या फिर घटना का उल्लेख किया जाता है तो वह समय की काल कोठरी में कैद हो जाती है। जैसे ही स्थिति सामान्य होती है रचना अतीत के गर्त में चली जाती है। समय आगे बढ़ जाता है। इसलिये रचना शाश्वत होनी चाहिए। शाश्वतता ही रचना को कालजयी बनाती है। तसलीमा, भंवरी बाई, सचिन, लालू, जयभीम, अम्बेडकर, अम्बानी, मित्तल, अखलाक, अडानी, दामिनी, आदि नाम गजल के शेर नहीं हो सकते। ये लोग महान ग्रंथों के पात्र नहीं हैं जो आपकी गजल को अमर बनायेंगे। सिर्फ बुलबुलों की तरह आनंद देकर अंर्तध्यान हो जायेंगे। मैंने अपनी कई गजलों में ये 'बेहतरीन' प्रयोग किये मगर अब वे सुनाने लायक भी नहीं बचीं, क्योंकि वर्तमान में उनका कोई औचित्य नहीं।
अंत में, यह भी ध्यान रखना होगा कि आज की गजल आम आदमी की पहुंच से बाहर न हो। उसके साथ भाषा-भाषा का खेल न खेला जाये। उसे किसी प्रेमत्रिकोण में न उलझाया जाये। बात-बात में अंग्रेजी के कई-कई शब्द ढूंस देने से उसकी समकालीनता में कोई निखार नहीं आता। हिंदी-अंग्रेजी+उर्दू-अपशब्द की यह चौकड़ी आपकी आधुनिकता की सिर्फ खिल्ली उड़ाती है। समकालीन गजल का झंडा बुलंद करने के पहले इस पर विचार जरूरी है कि समकालीनता का पैमाना क्या हो? कौन से इंचटेप से उसे नापा जाये? किन कसौटियों पर उसे कसा जायेयह भी याद रखिये, शुद्ध सोने से कभी आभूषण नहीं बनता। जरूरत के मुताबिक कुछ मिश्रण करना ही पड़ता है। आपकी समकालीन गजल के कुए में जो पानी आता है, उसकी झिरन परंपरा की कोख से फूट कर कई दिशाओं से आती हैसमय की यही मांग है कि समकालीनता से प्यार करते हुए हमें पारम्परिकता का आदर करना चाहिए।
इसी बात को भाई जहीर कुरेशी उलट कर यूं कहते हैं-
समय के साथ पुराना तो सबको होना है
पुरानेपन में भी लेकिन नया नहीं भूले