समकालीन हिन्दी गजल में प्रतीक-विधान

आलेख


डॉ ब्रह्मजीत गौतम


'अमरकोश' में प्रतीक का अर्थ है-अंगः प्रतीको अवयव। इसके अनुसार अंग, प्रतीक और अवयव तीनों शब्द पर्यायवाची कहे जायेंगे। 'अभिधान-रत्नमाला' में पुल्लिंग शब्द प्रतीक' का अर्थ देते हुए कहा गया है : प्रतीयते, प्रत्येति वा इति एक देशः अंगः अवयवः। इसके अनुसार भी प्रतीक उसे कहेंगे, जो किसी का अंग या अवयव हो। अंग्रेजी में प्रतीक के लिए 'सिम्बल' (Symbol) शब्द का प्रयोग होता है'ऐन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका' में 'सिम्बल' का अर्थ है -The term given to a visible object responding to the mind the semblance of some thing which is not shown butrealized byassociation with it. अर्थात् 'प्रतीक शब्द का प्रयोग उस दृश्यमान पदार्थ के लिए होता है, जो मस्तिष्क में किसी ऐसी वस्तु का सादृश्य उत्पन्न करता है, जो दिखाई तो नहीं पड़ती, लेकिन साहचर्य के कारण जिसे हम समझ सकते हैं। 'प्रतीक' और उसके द्वारा संकेतित वस्तु में रूप, गुण या क्रिया का साम्य होना आवश्यक है। इसीके आधार पर वह अप्रस्तुत वस्तु के अंग या अवयव का प्रतिनिधित्व करता है।


हमारी वैखरी वाणी भौतिक होने के कारण बहुत सीमित अर्थ वाली होती है। उसमें हमारी सम्पूर्ण अनुभूति को व्यक्त करने की सामर्थ्य न पहले थी और न आज है। कवि कम शब्दों में बहुत कुछ कहना चाहता है, किन्तु अभिधामूलक शब्द उसका साथ नहीं दे पाते। अपनी अभिव्यक्ति के लिए वह अपने दैनिक जीवन के विविध क्षेत्रों या प्रकृति के प्रांगण से कोई ऐसी वस्तु चुनता है, जिसमें उसकी अनुभूति का अधिकाधिक साम्य हो तथा जो लोक में प्रचलित और परिचित भी हो। इसके माध्यम से उसकी अनुभूति दूसरों के लिए सरलता से बोधगम्य बन जाती है। एक उदाहरण द्वारा हम इसे अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं। 'मैं आज बहुत खुश हूंइस वाक्य द्वारा केवल साधारण प्रसन्नता का बोध होता है। लेकिन कवि को इससे संतोष नहीं है। वह कुछ विशेष प्रकट करना चाहता है। अगर वह कहे कि 'मेरे हृदय में आज उषा मुस्करा रही है' तो इससे उसकी व्यंजकता कई गुना बढ़ जाती हैप्रसन्नता का वह सारा वातावरण सजीव हो जाता है, जो उषा-काल में होता है। 'उषाका कोशगत अर्थ खुशी या प्रसन्नता नहीं होता, किन्तु लक्षणों के आधार पर वह इस वाक्य में 'अतिशय प्रसन्नता' का बोधक बन गया है। अतः 'उषा' शब्द खुशी या प्रसन्नता का प्रतीक हुआ। इसी प्रकार का आशय हमें आज मेरे हृदय में तूफान उठा हुआ है' से लेना चाहिए, जो प्रयोक्ता के हृदय में उत्पन्न तीव्र क्रोध या उथल-पुथल का परिचायक होगा। अभिव्यक्ति की इस शैली को साहित्य में प्रतीक-योजना या प्रतीक-विधान का नाम दिया गया है।


__ कविता में प्रतीकों की आवश्यकता पग-पग पर अनुभव होती है, क्योंकि इनके प्रयोग से अभिव्यक्ति में व्यंजकता, प्रभविष्णुता, कलात्मकता और चित्रोपमता आ जाती है। गजल में तो प्रतीकों के बिना काम ही नहीं चलता क्योंकि गजल का प्रायः हर शेर अपने कोशगत अर्थ से कुछ अलग संकेत करना चाहता है। स्वामी श्यामानंद सरस्वती जब यह कहते हैं कि-


जिन्दगी आग है न पानी है


आग पानी की यह कहानी है


तब उनका आशय केवल भैतिक आग-पानी से नहीं होता, बल्कि आवेगशान्ति, सुख-दुःख, दिन-रात, उजाला-अंधेरा, जीवन-मरण आदि उन द्वन्द्वों से होता है, जो जीवन में संतुलन के लिए आवश्यक हैं।


प्रारम्भ में जब तक गजल आशिक-माशूका के बीच प्रेमिल वार्तालाप तक सीमित थी, तब उसके प्रतीकों में शराब, जाम, साकी, मैकश अथवा गुल, गुलशनबुलबुल, आशियाना, बर्क आदि शब्दों का बोलबाला था। लेकिन जब से वह हिन्दी में आयी है, और आम आदमी के जीवन के खुरदरेपन से जुड़ी है, उसके प्रतीकों भी व्यापक बदलाव आया है। आज हमारे परिवारों में बुजुर्गों की दशा कैसी है, हमारे लिए कितने अप्रासंगिक हो गए हैं, इसका कलात्मक चित्रण जहीर कुरैशी अपने एक शेर में बहुत ही मार्मिक ढंग से किया है। हमारा घर भले ही दस कमरों वाला हो, किन्तु भगवान को किसी आले (दीवार में बनी हुई ताक या मोखा) में जगह मिलती है। यही स्थिति घर के बूढ़े भगवान की होती है-:


बूढ़े भगवान बैठ जाते हैं।


ना-नुकर छोड़ घर के आलों में।।


मंगल नसीम का एक शेर देखिये, जिसमें उन्होंने 'परिन्दे' और 'उड़ान' के प्रतीकों का सहारा लेकर आम आदमी को प्रगति की राह पर आगे बढ़ने हेतु हर समय हिम्मत और हौसला बनाये रखने के लिए प्रेरित किया है-:


परिंदे! हौसला कायम उड़ान में रखना।


हर इक निगाह तुझी पर है ध्यान में रखना।।


अनभति की भिन्नता के कारण एक ही प्रतीक अलग-अलग सन्दर्भो में प्रयक्त किया जा सकता है। जिस 'परिंदे' का प्रयोग मंगल नसीम ने आम आदमी के लिए किया, उसी को राजेश रेड्डी ने 'युवा पीढ़ी' का प्रतीक मानकर गांव (पुराना शजर) से शहर (नया पेड) की बात कही है


नये पेड़ के घोंसलों में गये।


परिंदे पुराना शजर बेचकर।।


और उसी 'परिंदे से महेश अग्रवाल आतंकी या अवांच्छित तत्व का आशय लेते हैं तो बह्मजीत गौतम उसके माध्यम से साम्प्रदायिक सद्भाव का संदेश देते हैं-:


परिंदा पर नहीं अब मार पाये।


हमारे पास भी पैनी नजर हो।। -महेश अग्रवाल


हाथ का मजहब परिंदे देखते हैं कब भला


जो भी दाना दे, खुशी से खा लिया और उड़ चले।।-ब्रह्मजीत गौतम


हिन्दी की गजलों में प्रतीकों का चयन अधिकांशतः प्रकृति के प्रांगण से किया गया मिलता है। एक कवि के लिए यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि उसका प्रकृति से घनिष्ट सम्बन्ध होता है और जिन वस्तुओं के सम्पर्क में हम जितना अधिक रहते हैं, आवश्यकता पड़ने पर उनमें ही अपनी अनुभूति का साम्य ढूंढ़ते हैं। प्राकृतिक उपादानों में फूल, फल, कली, कांटा, खार, तितली, रौशनी, अंधेरा, बाग, चमनआंधी, पत्ता, किरण, हवा, तूफान, डाली, लता, आसमान, बिजली, पछुआ, नदी, नाले, समुंदर, धूप, सूरज, साया, चांद, तारे, बादल, वन, पर्वत, खुशबू मौसम, पेड़पौधे, मरुस्थल, वसंत, पतझड़, कोहरा, आग, शबनम आदि न जाने कितने उपकरण हैं, जिन्हें प्रतीक रूप में अपनाकर गजलकारों अपनी अनुभूतियां लाघव के साथ अभिव्यक्त की हैं। कुछ आश्आर देखना उचित होगा-


चढ़ते सूरज से दोस्ती क्या की


अपने साये से हाथ धो बैठे   -दरवेश भारती


आशियां मत बनाना तू 'शैली' अभी


आंधियों के तो फेरे बहुत हैं अभी -आशा शैली


चमन को रिहाइश अगर है बनाना


हरिक शाख अपना समझ आशियाना -महावीर प्रसाद मुकेश


नदियों-नालों में बढ़े घड़ियाल अब


एक मछली इसलिए लाचार -दिवाकर वर्मा


पतझड़ हो या वसंत नहीं फर्क कुछ  मुझे


हर हाल ही में बाग को महका रहा हूं मैं -मिर्जा हसन 'नासिर'


रौशनी खुशबू का आना मेरे घर में कम रहा


जाने क्यूं नाराज मुझसे उम्र-भर मौसम रहा -किशन तिवारी


रौंद डाला मालियों ने ही चमन


आंधियों पर तुहमतें मढ़ते रहे -ब्रह्मजीत गौतम


प्रकृति के बाद एक कवि या शाइर का दूसरा घनिष्ट संबंध अपने आस-पास या घर-गृहस्थी की उन वस्तुओं से होता है, जो उसके दैनिक जीवन में प्रायः काम आती हैं। अपनी अनुभूतियों को शब्द देने के लिए कवि इन्हें भी प्रतीक रूप में चुन लेता है। घर, आंगन, दीवार, पत्थर, चट्टान, खेत, बागड़, घोंसला, सांप, दीपकखिड़कियां, बारूद, चिराग, कुंआ, पानी, इमारत ईंट, गारा आदि कितनी ही ऐसी वस्तुएं हैं, जिनका प्रयोग प्रतीक रूप में हुआ है।


मनुष्य का स्वभाव है कि वह पर्याप्त परिश्रम किये बिना ही भरपूर फल पाना चाहता है। मशहूर शाइर साज जबलपुरी के एक शेर में प्रतीकों के सहारे मनुष्य के इस मनोविज्ञान की बहुत ही सटीक और सार्थक अभिव्यक्ति देखिये:


लोग नाखून से चटानों पे बनाते हैं कुंआ।


और उम्मीद ये करते हैं कि पानी निकले।।


'बगुला' और 'हंस' को माध्यम बनाकर आज के हालात पर कहा गया योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' का यह शेर भी दृष्टव्य है-


मुरझा गए सुमन आशा के।


बगुला हंसों पर भारी है।।


'बगुला' और 'हंस' को माध्यम बनाकर आज के हालात पर कहा गया योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' का यह शेर भी दृष्टव्य है-


मुरझा गए सुमन आशा के।


बगुला हंसों पर भारी है।


देश के इन्हीं हालत की चर्चा अशोक रावत तथा चंद्रभान भारद्वाज ने भी 'माली', 'चौकीदारतथा 'फस्ल' और 'बागड़' के प्रतीक अपनाकर अपने-अपने अंदाज में की है :


माली भी शामिल होते हैं फूल चुराने वालों में


लेकिन चौकीदारों में ही खोट निकाले जाते हैं -अशोक रावत


खेत की सारी फसल को बागादें खुद चर रही


और हम बैठे हुए बदकिस्मती के नाम पर -चन्द्रभान भारद्वाज


कभी-कभी मुहावरों को भी प्रतीकों का जामा पहनाकर चमत्कारपूर्ण अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया जाता है-:


अब तू अपनी बलन्दी पर न कर इतना गरूर


पानी एक दिन हो जाएगा तेरा वजूद -ओमप्रकाश 'नदीम'


रहे न साँप और न टूटे लाठी


यही सियासत की दक्षता है -दरवेश भारती पानी-


कवियों ने पौराणिक मिथकों से भी प्रतीकों का काम लिया है। राम-रावण युद्ध में लक्ष्मण के मूर्छित होने पर राम ने हनुमान से संजीवनी बूटी मंगायी। राम स्वामी थे और हनुमान उनके सेवक। किन्तु आज के समय में हर कोई स्वामी बनना चाहता है, सेवक कोई नहीं। इस प्रसंग से अंसार कम्बरी क्या कहना चाहते हैं, उनका यह शेर दृष्टव्य है-:


कोई संजीवनी लाये तो कैसे


यहां सब राम हैं हनुमत नहीं है


गजल के शेर बह-आयामी अर्थ वाले होते हैं। प्रतीकों की इसी चमत्कारी माया के कारण गजल का एक शेर अनेक सन्दर्भो में अर्थ देता है। श्री कमरुद्दीन 'बरतर' का एक शेर देखिये-:


गिर गयी इमारत क्यों जिसकी कल हुई तामीर


ईंट कैसी आयी थी गारा किसने साना था


यहां ईट, गारा, इमारत आदि शब्दों के अपने प्रचलित अर्थ तो हैं ही, उनके अनेक प्रतीकार्थ भी हो सकते हैं। जैसे, संबंध (इमारत) अभी-अभी (कल) बना था, वह कैसे टूट गया? उसमें कैसे-कैसे लोग (ईंट) आ गए थे, जिनके कटु व्यवहार (गारा) के कारण यह संबंध टूट गया। अथवा कोई योजना या कोई संस्था अथवा पार्टी बनी। उसके सदस्य कैसे थे, जिसके बेमेल सिद्धांतों के कारण वह भंग हो गयी। श्री बरतर का एक अन्य शेर भी देखिये, जिसे कई सन्दर्भो में चरितार्थ किया जा सकता है-


दो किनारों के मिलन का न ये रस्ता टूटे


बाढ़ आ जाये मगर पुल न नदी का टूटे


यहां दो किनारे अर्थात् दो प्रेमी, उनके मिलन का रास्ता अर्थात् उनका संकल्पपुल अर्थात् उनका प्रेम न टूटे, भले ही बाढ़ अर्थात् अनेक बाधाएं या रुकावटें क्यों आयें। यही बात दो जातियों, दो देशों अथवा दो सम्प्रदायों के लिए भी कही सकती है। उनके जो सिद्धांत या उनके बीच जो विश्वास है, वह बना रहे। भले दुश्मन उसे तोड़ना चाहे, किन्तु उनका सम्बन्ध न टूटे। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रतीकों में बहुत शक्ति होती है। वे हमारी निर्जीव अभिव्यक्ति को प्राणवान और चमत्कारपूर्ण बना देते हैं। गजल को सपाटबयानी से बचाने के लिए तथा उक्ति धारदार और असरदार बनाने के लिए प्रतीकों का अपनाया जाना बहुत आवश्यक है।