समकालीन हिन्दी गजल के सामाजिक सरोकार

आलेख


डॉ.राधेश्याम बन्धु


___ जब भी गजल की बात चलती है तो गजल की एक लम्बी परम्परा का इतिहास हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है और उससे जुड़े गालिब, मीर, मोमिन, इकबाल, फैज, फिराक, नूर से लेकर बशीर बद्र तक के नाम याद आ जाते हैं जिन्होंने कुछ खास बहरों और तख्तियों तथा विषयगत प्यार-मुहब्बत की कुछ खास शर्तों के दायरे में उर्दू गजल को बांध रक्खा है। किन्तु कुछ हिन्दी गजलकारों की गजलें जहां वाचिक परम्परा की दृष्टि से पाठकों को प्रभावित करने में सफल हैं वही वे कथ्य की दृष्टि से यथार्थवादी जमीन और सामाजिक सरोकारों के निकट भी हैं। इस दृष्टि से 'अलाव' पत्रिका द्वारा प्रकाशित 'समकालीन गजल विशेषांक 2015' ने गजल के कथ्य में समकालीन बोध की वैचारिकता से पाठकों को परिचित कराने का एक उल्लेखनीय काम किया है। इसमें अपने आलेख में डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा है कि “हिन्दी में गजलों की तरफ बढ़ते रुझान से हिन्दी के कवियों ने वाक्य गठन की ओर भी ध्यान देना शुरू कर दिया है जिसका फायदा हिन्दी कविता को होना तय है। शमशेर इसकी मिसाल हैं। असगर वजाहत, गौरीनाथ, अजेयकुमार, कमलनयन पाण्डेय, शैलेन्द्र चैहान आदि मानते हैं कि गद्यात्मक रूप की बजाय गजल के रूप में समकालीन हिन्दी कविता जनमानस तक ज्यादा अच्छी तरह पहुंच रही है।"


गजल अपनी रूप संरचना, लयात्मकता, यथार्थवादी भवाभिव्यक्ति और भाषिककौशल के कारण सदैव एक लोकप्रिय विधा रही है। कहते हैं गजल सबसे पहले अरबी से फारसी में और फारसी से उर्दू में आई। इस प्रकार गजल ने अन्य भारतीय भाषाओं को भी आकर्षित किया। इनमें सबसे ज्यादा निकटता उर्दू की हिन्दी से होने के कारण उसने हिन्दी कविता को सर्वाधिक प्रभावित किया और इधर कुछ वर्षों में ही हिन्दी गजल ने अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली है। लेकिन उर्दू की रोमानी मिजाज से अलग हिन्दी गजल ने अपनी यथार्थवादी सोच और जुझारूपन के कारण सर्वथा एक भिन्न छवि बनायी है। सच कहें तो निराला, त्रिलोचन, शमशेर सिंह यथार्थवादी गजल पहले से ही लिख रहे थे किन्तु उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और आधुनिकतावादी गद्यकवियों तथा आलोचकों ने नवगीत-गीत की तरह हिन्दी गजल का भी विरोध किया है।


सच कहा जाय तो हिन्दी गजल को दुष्यन्त ने विधिवत एक नई सोच, नया शिल्प और नयी भाषा का तेवर देकर एक नई ऊंचाई प्रदान की है। दुष्यन्त की आक्रामकता, सियासी चोट और सामाजिक व्यंग्य की तीक्ष्णता ने हिन्दी गजल में सनसनी पैदा कर दी थी। उन्होंने गजल को पुराने घिसे-पिटे कथ्य से बाहर निकालकर नये मिजाज, राजनैतिक सोच और सामाजिक सरोकारों से जोड़ने का सार्थक काम किया था। इसका सुपरिणाम यह हुआ कि ऊर्दू गजलकार भी दुष्यन्त का लोहा मानने लगे। आज दुष्यन्त की गजल की पंक्तियां आलोचक तथा नेता के मुंह से भी प्रायः सुनने को मिल जाती हैं। अब सवाल यह उठता है कि ऐसा क्या हुआ कि दुष्यन्त के आने और उनके गजल संग्रह 'साये में धूप' के प्रकाशित होने के बाद हिन्दी गजल के मानक के रूप में स्थापित हो गये और भावी पीढ़ी के रचनाकारों के लिए प्रेरणा श्रोत भी बन गये।


हम देखते हैं कि दुष्यन्त के पहले भी निराला, शमशेर जैसे कद्दावर हिन्दी गजलकार होने के बावजूद गजल की वह लहर नहीं चल पायी जो दुष्यन्त के बाद चली। किन्तु एक सच्चाई यह भी है कि दुष्यन्त के इस हिन्दी गजल प्रवाह के कारण उनका कवि रूप दबकर रह गया और वे हिन्दी गजल के पर्याय बनकर रह गये। दुष्यन्त और उनके पूर्ववर्ती कवियों की हिन्दी गजलों पर नजर डालें तो हम पाते हैं।कि पूर्ववर्ती कवियों ने अपनी हिन्दी गजलों में सिर्फ जीवन के जटिल सवालों को उठाया जरूर है, लेकिन उसके बाद वे मौन होकर रह गये। क्तुि वहीं दुष्यन्त की विशेषता यह है कि वे सवाल सिर्फ उठाते ही नहीं हैं बल्कि उसके लिए समाधनमूलक सुझाव देने का प्रयास भी करते हैं। उनकी इस विशेषता की चर्चा डॉ. जीवन सिंह ने भी 'अलाव' के 'समकालीन गजल विशेषांक 2015' में प्रकाशित अपने आलेख 'हिन्दी गजल: आलोचना की प्रारम्भिक जमीन' में की है "दुष्यन्त केवल गजलकार नहीं थे, लेकिन उनकी हिन्दी गजल की नवीनता नये युगबोध के सामने उनकी कविता छोटी पड़ चुकी थी । उनकी कविता में जिन्दगी के उतने सवाल नहीं उभरे जितने समय की जरूरत के हिसाब से उनकी हिन्दी गजलों में उभरे। इसप्रकार हम देखते हैं हिन्दी गजल में दुष्यन्त अपने तेवर और नयी सोच के कारण अकेले कवि थे, जबकि कविता में उनसे बड़े और कद्दावर दूसरे कई लोग मौजूद थे। इसी वजह से वे हिन्दी गजल प्रभाव में सबसे आगे निकल गये। इसकी खास वजह यह है कि देश में लगे आपातकाल के कारण जो असहनीय घुटन जनता महसूस कर रही थीवही घुटन दुष्यन्त के गजलकार के मन ने भी महसूस की और उससे निजात पाने के लिए उनका मन भी आन्दोलित हो उठा था और उन्होंने अपनी गजलों में इस घुटन तथा वेदना की अभिव्यक्ति भी की। किन्तु उस समय की कविता आपातकाल की तानाशाही के त्रास और वेदना की सामूहिक मनस्थिति को अपनी कविताओं में उस तरह व्यक्त नहीं कर सकी जैसा कि दुष्यन्त ने अपनी गजलों में व्यक्त की थी। इससे एक बड़े अभाव की पूर्ति दुष्यन्त की गजलों के माध्यम से हो सकी और इसी कारण दुष्यन्त की गजलों को पाठकों ने हाथों-हाथ ले लिया। इसी से वह मील का पत्थर भी बनी और लोगों की जबान पर भी चढ़ गयी।" ('अलाव'-2015 पृष्ठ 174)


इस विवेचन से यह बात स्पष्ट है कि दुष्यन्त ने हिन्दी गजलों में अपने पूर्ववर्ती कवियों की तुलना में कुछ अलग और आगे की बात भी कहने की कोशिश की हैवह अतिरिक्त बात यह है कि दुष्यन्त की हिन्दी गजल सिर्फ सवाल ही नहीं उठाती बल्कि उसके समाधन का रास्ता भी तलाशने का प्रयास करती है। यदि हम हिन्दी कविता के इतिहास पर ध्यान दें तो हम पायेंगे कि चाहे मध्यकाल हो या छायावाद काल, हिन्दी के कवियों ने सदैव अपनी कविताओं में जीवन के जटिल सवालों की चर्चा तो की है, लेकिन उसके समाधन के नाम पर मौन हो जाते हैं और पाठकों को भाग्यवाद और रहस्यवाद के जंगल में भटकने के लिए छोड़ देते हैं। इसी का दुष्परिणाम है कि हम दो सौ वर्ष तक अंग्रेजों के गुलाम बने रहे और आगे भी गुलाम बनाने की साजिशें चल रही है। इसी बात की चर्चा मैंने अपनी पुस्तक 'नवगीत का लोकधर्मी सौन्दर्यबोध" (सं. डॉ.राधेश्याम बन्धु) में भी की है। दुष्यन्त ने हिन्दी गजलों को समकालीन बोध से जोडकर जिस तरह उसको एक नई ऊर्जा प्रदान की है, उसी तरह नवगीत ने भी निराला के समष्टिवादी यथार्थवाद को अन्तर्वस्तु में आत्मसात करके आधुनिक गीतकाव्य को जनसंवादधर्मिता की नई ऊर्जा प्रदान की है। मेरी इस बात का समर्थन डॉ. शिवकुमार मिश्र ने अपने आलेख 'नवगीत का भूमण्डलीकरण और वर्तमान की चुनौतियां' में किया है। वे कहते हैं कि “इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि नवगीत ने भी मानवीय मूल्यों से संस्कारित होकर युगचेतना के अनुरूप अपने को ढाला है और युग के नये संदर्भो में समय की आंच में तपाकर अपने को युगधर्मी बनाया है। अतएव नवगीत और कुछ नहीं बल्कि गीत रचना की चली आ रही परम्परा का बदले हुए युग संदर्भो में नया और अधुनातन विकसित रूप है जिसमें अपने समय से सीधा साक्षात्कार उन सारे बिन्दुओं पर है, जिन विन्दुओं पर समकालीन कविता अपने समय से आंख मिलाती है और कविता तथा आदमियत को बचाये रखने के मुहिम से जूझती है।" ('नवगीत के नये प्रतिमान' सं-डॉ, राधेश्याम बन्धु -पृष्ठ 103)


'सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,


मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए,'


मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही


आग हो चाहे जर्हा, पर आग होनी चाहिए," -दुष्यन्त


आज देश में भ्रष्टाचार, महंगाई और अराजकता की जो स्थिति बनी हुई है ऐसे में यदि देशवासियों के मन में आक्रोश की आग भड़क उठे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है और परिणाम स्वरूप जनता सड़कों पर धरना प्रदर्शन के लिए उतरकर अपना प्रतिरोध दर्ज कराना भी शुरू कर दे तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये। यदि इस तरह के हंगामें जारी हो जाते हैं, तो इसका मकसद सिर्फ इतना है कि जनता पर होने वाले अत्याचार की भयावहता समाप्त हो और सच्चे अर्थो में भ्रष्टाचार मुक्त समाज का निर्माण हो! दुष्यन्त की गजल की ये पंक्तियां 'आग' और 'हंगामें' की सांकेतिक भाषा के माध्यम से इसी चुनौती और विकल्प की ओर इशारा करने का प्रयास कर रही हैं। दुष्यन्त स्पष्टरूप से अपनी गजलों में संकेतित करते हैं कि यदि भ्रष्ट व्यवस्था बदलनी है तो परिवर्तनकारी आग हमें अपने अन्दर खुद जगानी होगी। हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहने से कुछ नहीं होने वाला है। इसलिए कविता, गीत, गजल के उन सभी यथास्थितिवादी सोचवाले कवियों के मुकाबले दुष्यन्त आज भी लोकप्रिय हैं और सबकी जबान पर उन्हीं की गजलों की पंक्तियां देखने और सुनने को मिलती हैं।


हम अखबारों में रोज पढ़ते हैं कि किसान और खेतिहर मजदूर गरीबी, बेकारी, मंहगाई और कर्जे के कारण आत्महत्यायें कर रहे हैं और सरकार की तरफ से राहत के आश्वासन भी दिये जाते हैं । लेकिन स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा है। क्या किसी कवि ने इस संबंध में सरकार से यह पूछने का साहस जुटाया कि ये आत्महत्यायें क्यों हो रही हैं और इसके लिए कौन जिम्मेदार है? किन्तु दुष्यन्त यहां भी निर्भीकता से कहते हैं कि


'आपके टुकड़े-टुकड़े कर दिये जायेंगे पर


आप की ताजीम में कोई कसर होगी नहीं।' -दुष्यन्त


यहां भी दुष्यन्त व्यंजना की भाषा में कहते हैं कि चाहे आप के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये जायं लेकिन सत्ता के व्यवहार में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। इसी प्रकार सामाजिक चेतना और मानवीय संवेदना की जागरूकता हमें अदम गोंडवी की गजलों में भी देखने को मिलती है। अदम की गजलों से पाठकों के मन में केवल वाह-वाही नहीं उठती बल्कि उसे सोचने के लिए भी बेचैन करती हैं, परेशान करती हैं, विचलित करती हैं और असन्तुष्ट बनाती हैं। अदम गोंडवी अपनी गजलों में अमूर्त बिम्बों के बजाय मूर्त बिम्बों का ही प्रयोग करते हैं जिससे गजलों की सम्प्रेषणीयता और मारकता काफी बढ़ जाती है तथा सुनने वाले को बेचैन भी करती है। उनके गजलों की एक और विशेषता है कि वह किसी राजनीतिक स्थिति या समाधान को गजलों की ही शर्तों पर हमारे अनुभव का हिस्सा बना देते हैं। उनके गजल संग्रह 'धरती की सतह पर' की एक गजल की ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं-


'जिस शहर में मुंतजिम अंधे हों जल्वागाह के


उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है।' -अदम गोंडवी


यह कितनी व्यंजनापरक पंक्तियां हैं कि जिस शहर की रोशनी के इन्तजाम देखने वाले खुद ही अंधे हों उनसे रोशनी के हालात के बारे में बात करना ही बेमानी है। इसी तरह की एक दूसरी गजल की यथार्थवादी पंक्तियां देखें -


'शहर के दंगों में जब भी, मुफलिशों के घर जले,


कोठियों की लान का, मंजर सलोना हो गया।' -अदम गोंडवी


यह कितने आश्चर्य की बात है कि जब भी शहर में दंगे होते हैं तो गरीबों की ही झुग्गी-झोपड़ी जलती हैं किन्तु अमीरो की कोठियों की लान की रौनक और भी ज्यादा बढ़ जाती है अर्थात् बड़े लोगों के घरों में खुशहाली बढ़ जाती है। आखिर इसका राज क्या है? इसका व्यंग्यार्थ यह है कि शहरों के दंगे होते नहीं हैं बल्कि दंगे कराये जाते हैं किसी साजिश के तहत । गरीबों की झुग्गी उजड़ने के कुछ दिनों बाद ही उसी जगह पर बहुमजली इमारतें बन जाती हैं जिससे भूमाफिया का बहुत बड़ा धन्धा चल पड़ता हैं। अदम गोंडवी ने इसी प्रकार अपनी गजलों में बड़े-बड़े पूंजीपतियों और भ्रष्ट नेताओं की साजिशों को बेनकाब किया है। यथार्थवाद की इसी व्यंजना के धरातल पर कई और जागरूक गजलकार हैं जिन्होंने अपनी गजलों में समकालीन बोध से अपनी कहन भंगिमा को धरदार बनाने का प्रयास किया है और अनवरत जनपक्ष को मजबूत कर रहे हैं जैसे शिवशंकर मिश्र, बल्लीसिंह चीमा, माधव कौशिक, रामकुमार कृषक, नूर मोहम्मद नूर, हरेराम समीप, इंदु श्रीवास्तव, मधुवेशमालिनी गौतम आदि।


माधव कौशिक अपनी एक गजल में कहते हैं कि इस लोकतंत्र की बिडम्बना देखो कि आज मुजरिम का मुंसिफ से भी रिश्ता हो गया है-


'मुसिफ का मुजरिम का रिश्ता पक्का है


अब कोई तहरीर बदलने मत देना।'


इस प्रकार हम देखते हैं कि समकालीन गजलों में जहां मिट्टी की महक है, पसीने की खुशबू है, औद्योगीकरण, बाजारवाद, आतंकवाद है वहीं सामाजिक चेतना भी है, शोषण, महंगाई के खिलाफ आक्रोश भी है, जन-जन तक पहुंचनेवाली जन्संवादधर्मिता भी है! हिन्दी गजल अब केवल सामन्ती महफिलों की शोभा बढानेवाली रोमानी कलावादी कवायद नहीं है, बल्कि आज की एक बहुत बड़ी सच्चाई है!