गजल को गजल ही रहने दें

आलेख


डॉ. धनंजय वर्मा


हिंदी में गजल के बारे में सोचते ही बेसाख्ता एक लतीफा याद आ रहा है :


कवियों और शायरों की एक मिली जुली बैठक में एक सज्जन ने फरमाया गजल होती तो मजा आ जाता।


शायर ने जो गजल-सरा थे अर्ज किया : हुजूर गजल ही तो थी।...


अच्छा गजल थी, तब तो मजा आ गया।


हिन्दी में इन दिनों गजल को लेकर लगभग यही हो रहा है। एक शख्स जो खुद हिंदी में गजलगो हैं फर्माते हैं कि गजल की व्युत्पत्ति फारसी के गजाला शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है मृगनयनी। अत: गजल का मूल क्षेत्र नारी विषयक भावों से संबंधित है।


__गजल के मानी की तलाश में यूं गजाला के पीछे भागने की जरूरत ही क्या थी? जनाब मुहम्मद मुस्तफा के उर्दू हिंदी कोश को ही पलट लेते। वो गजल के मानी बताते हैं। : प्रेमिका से वार्तालाप... जबकि गजाला के मानी होते हैं मृगशावक.. यह दसरी बात है कि कछ प्रेमिकाएं. मगनयनी भी हआ करती हैं।


गजल के बारे में यह कहना लगभग ज्यादती है कि उसमें सिर्फ इश्क और हुस्न सागरो-मीना की शायरी हुई या हो सकती है। ऐसे शायर भी हैं जिन्होंने गमेजाना को गमे दौरा ही नहीं किया. जमाने की गर्दिश और जलते हए सवालों से रचनात्मक मुठभेड़ भी की है। फैज अहमद फैज, मखदूम मौहीउद्दीन, साहिर लुधियानवी,जांनिसार अख्तर, मजरूह सुल्तानपूरी, कैफी आजमी, अमीक, हनफी, निंदा फाजली, खलीलुर रहमान, आजमी, ताज भोपाली और फज्ल ताबिश की गजलें इसकी मिसाल हैं। बहरहाल, हिंदी गजल के सूरते हाल में एक शेर याद आता है।


दावा जुबां का लखनऊ वालों के सामने


इजहारे बू-ए- मुश्क गजालों के सामने


हो यही रहा है। गजल को लेकर हिंदी में जा दावे किए जा रहे हैं और ताजातरीन फैशन की मानिन्द जिस तरह, जिसे देखो वही गजल पे अपने हाथ आजमा रहा है, उसे देखकर इस नाजुक से काव्यरूप पर तरस आता है। गजल की एक लंबी परंपरा रही है, जिसने उसका रचनात्मक चरित्र इतना नाजक मिजाज बनाया है कि उससे अधिक छेड़छाड़ की गुंजाइश नहीं है... (यो खूबसूरती देखकर 'फ्लर्ट करने वालों की कमी कहां है? बहरहाल!) प्रयोगों के खिलाफ हम नहीं हैं लेकिन रचनात्मकता के इलाके में हम किसी किस्म की छूट लेने या देने के कायल नहीं है। कवियों को पूरा हक है कि वे किसी भी काव्यरूप में खुद को अभिव्यक्त करें लेकिन शर्त ये है कि उसकी रचनात्मक शर्तों को भी पूरा करें।


___ तो वो शर्त क्या है जो गजल के साथ, उसकी समृद्ध परंपरा के दौरान विकसित हुई है? असनाफे सुखन में जनाब मुमताजर रशीद साहब कहते हैं कि गजल वह नज्म है जिसका हर शेर बजाते खुद मुकम्मल और दूसरों से बेनियाज होता है। उसके पहले शेर के दोनो मिसरे हमकाफिया होते हैं। ये शेरेमतला कहलाते हैं बाद के शेरों में दूसरे मिसरे आपस में हमकाफिया होते हैं। गजल के आखिरी शेर को मकता कहते हैं जिसमें शायर अपना मुख्तसर नाम यानी तखल्लुस लाता है। बाज दफा एक गजल में दो या दो से ज्यादा मतले भी होते हैं(गजल का मजमून बाजदफा मुसलसल भी होता है और ऐसी गजल को गजले मुसलसल कहते हैं।)


आप कह सकते हैं कि यह सब तो तकनीकी झमेला है और शायर को हक है के वह उन बंदिशों को तोड़े जो ‘फार्म' के नाम पर लगायी जाती रही है। ... बेशक...। फार्मलिज्म के जानिबदार हम भी नहीं हैं लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि फार्म कोई फालतू ओर गैररचनात्मक चीज है। आखिर तो उसी में आपके एहसास अल्फाज का लिबास पहनते हैं। यह बात महत्वपूर्ण जरूर है बकौल मुक्तिबोध कि 'रूप अपनी स्थिति के लिए तत्व पर अवलंबित होता है और तत्व अपने प्रकट होने की प्रक्रिया में रूप को निर्धारित और विकसित करता है लेकिन सवाल है कि तत्व का प्रकटीकरण होता कैसे है? बिना रूप के क्या वस्तु को आप देख या दिखा सकते हैं? वैसे ही जैसे कि बिना शब्द या भाषा के क्या आप सोच भी सकते हैं? क्या अपने एहसास को जान भी सकते हैं। अर्न फिशर तक ने कहा कि 'वस्तु और रूप या अर्थ और रूप, द्वंद्वात्मक अंतक्रिया में परस्पर अंतरसंबंध हैं।' हम समझते हैं कि साहित्य और कला में कहीं भी रूप जगह गौण नहीं है। कला का मतलब ही रूपायन है, बिल टू फार्म है। वह रूप ही होता है जो कृति को कला का दर्जा देता है। यह अपने आप, मनमाने तौर पर नहीं हो जाता। वस्तु और रूप का रिश्ता वाक और अर्थ की सम्पृक्ति की तरह होता है और वे बतर्ज 'गिरा' और 'अरथ', जल और वीचि के समान कहने को भिन्न लेकिन अभिन्न होते हैं।


इसलिए गजल पर सोचते हुए उसके फार्म पर सोचना जरूरी होगा और यदि आप फार्म को इतना अहम और निर्णयक नहीं मानते तो फिर आपकी यह जिद क्यों है कि आप जो लिखे, उसे गजल ही कहें।


__मुझे लगता है कि गजल बाहरी रूप में ही नहीं अपनी आंतरिक संरचना में भी दूसरे काव्य रूपों में अलहदा है। उसकी जान उसका आंतरिक संगीत है। और संगीत से मेरा मतलब सिर्फ रदीफ काफिया से नहीं उसके भाव-अनुभव और संवेदन की थरथराती लयात्मकता से है। हर कविता संगीतात्मक नहीं होती जबकि गजल जब केवल पढ़ी भी जाती है-बातरन्नुम नहीं, तहतुललफज भी-तब भी अपनी ध्वनि और व्यंजना में संगीतात्मक होती है... उसका शब्द और वाक्य विन्यास ही नहीं, व्यंजना के रूपाकार भी लयात्मक होते हैं, उसके बिंब विधान और प्रतीक विन्यास में भी एक 'मीड', एक गमक और अनुगूंज होती है। मुझे यह भी लगता है कि गजल का रचनामानस ही संगीतात्मक होता है। ऐसा मानस जिसकी संवेदनाएं लयात्मक होती हैं और जिसका बुनियादी सरोकार ल्यात्मक स्मृति का पुनर्विन्यास होता है। जब तक अनुभव की विविधवर्णी लयात्मक रूपच्छटाओं को वह आत्मसात नहीं कर लेती, उनका रचनात्मक रूपांतरण गजल में मुमकिन नहीं होगा।


गजल का यही आंतरिक संगीत बहर और वजन की शक्ल में अपने बाह्य रूपाकार पाता है। इसीलिए वजन शेर का जरूरी जुज कहा गया है। और 'कलामे मौजूं ही शेर कहा जाता है.. लेकिन जो वजन के बगैर है उसे आप शेर कहने पर ही क्यों अड़े हुए हैं? उसे कुछ और कहिए।...


जरा गौर कीजिए कि निराला जिन्होंने कहा था कि कविता की मुक्ति छंदों के शासन के अलग हो जाना है जब 'बेला' में गजल की शक्ल में कुछ कहते हैं तो बहर और वजन का भरसक ख्याल रखते हैं। लोगों को गतलफहमी है कि मुक्त छंद, रूप या छंद-अनुशासन से मुक्ति है। दरअसल वह पुराने छंदानुशासन से मुक्ति और एक नये रूप की खोज है। कई बार वह जैसा कि खुद निराला में है, पुराने छंदों का नवीनीकरण है। उनका सरोकार कविता की आंतरिक अन्विति है इसीलिए मैं समझता हूं कि लय और संरचना की लयात्मक चेतना के बिना गजल कहना लगभग असंभव है।


इस रौशनी में जरा गौर कीजिए इन पंक्तियों पर:


तुम्हारे केशर से ही सुगंधित परागमय हो रहे मधुव्रत


प्रसार विश्वेश का हो तुम पर, यही हृदय से निकल रहा है।


जयशंकर प्रसाद की हिंदी गजल के इस शेर में कहने की कोशिश जरूर बहर में है लेकिन क्या वहीं मुहारेदानी, वही लोच और लय है, वह वाग्विदग्धता है, जो शेर को शेर बनाती है। उर्दू का दोयम दर्जे का शायर भी इससे बेहतर शेर कह सकता है। हिंदी में प्रयोगशीलता के सबसे बड़े कवि निराला ने भी गजल में प्रयोग किए हैं, लेकिन वे कुल मिलाकर प्रयोग ही रहे हैंमुलाहिजा फरमाएं :


निगह तुम्हारी थी, दिल जिससे बेकरार हुआ।


मगर मैं गैर से मिलकर, निगह के पार हुआ।


किनारा वो हमसे किए जा रहे हैं।


दिखाने को दर्शन दिये जा रहे हैं।


इन दोनो अंशआर में मुहावरेदानी भी है और उसके बहरे भी खास रुक्नों पर आधारित हैं। मसलन दूसरे शेर की रुक्न है : फउलुन फायलन फायनल फउलुनलेकिन इन सबके बावजूद क्या निराला को गजलगो कहा जा सकता है? क्या इन्हें मुकम्मल अशआर भी कहा जा सकता है? न केवल अंदाजे बयां बल्कि तलव्वुर के लिहाज से भी इनमें शेरियत की खासी कमी खटकती है। वजह उसकी भाषा के मिजाज से ना आशानाई है। हिंदी में सॉनेट्स के काव्यरूप को कमाल की हद तक मुकम्मल करने वाले त्रिलोचन ने भी गजलगोई की है। हिंदी में उक्ति के कौशल और अंदाजेबयां की खूबसूरती की कमी का जवाब सा देने के लिहाज से त्रिलोचन के प्रयोग निराला की ही तरह महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं, लेकिन अव्वल आखिर प्रयोग की सिद्धि उन्हें भी हासिल होती नहीं दीखती। उनके चंद अंशआर पेश हैं :


प्रशंसा परार्थानुसंधान की है


कहां स्वार्थ का रंग गहरा न देखा


या


संगमन ही प्राण का उत्कर्ष है


संवेदन में किसलिए सशंक हुआ


या


क्यों कहीं यह बात वीणापाणि ने तुमसे त्रिलोचन


आज ओ कुकनूस, गाकर तार जीवन के हिला दो


गौर करें तो परार्थानुसंधान सरीखे समास गजल के खप ही नहीं सकते, उन्हें पढ़ते ही जबान को जो धचक्का जगता है, वह गजल की बर्दाश्त के बाहर है। उत्कर्ष भी यहां खासा कर्कश लगता है और कुक्नूस के स्वर माधुर्य की संगति वीणापणि से बैठ भी जाय तो भी वह सिर्फ जीवन के तार हिलाकर ही नहीं रुकती, कुक्नूस तो वह चिड़िया है जिससे यूनानियों ने गान विद्या सीखी और जिसके गाने से आग लग जाती है। ऐसा नहीं कि उर्दू गजल में मुश्किल अल्फाज नहीं आते... अब गालिब का ही यह शेर है :


असद हम वो जूनूं जौलां गदाए बे सरोपा हैं


है सर-पंज-ए मिशगाने आहू पुश्तो खार अपना...


इन मुश्किल अल्फाज के बावजूद जो लय, जो गति और जबान के लिए हमवार जमीन यहां है, वहीं इसमें शेरियत भी पैदा करती है।


वैसे हिंदी में गजल लिखने की शुरूआत द्विवेदी युग से ही हो जाती है। श्रीधर पाठक, मैथिलीशरण गुप्त, केशवप्रसाद मिश्र, मन्नन द्विवेदी, सत्यनारायण कविरल, माधव शुक्ल, बदरीनाथ भट्ट, ठाकुर गोपाल शरण सिंह, राय देवी प्रसाद पूर्ण, रामनरेश त्रिपाठी, ताला भगवानदीन, बगैरह से यह सिलसिला चला है और आज भी बलवीर सिंह रंग, चंद्रसेन विराट, सूर्यभान गुप्त, माहेश्वर तिवारी और अन्य कवि हैं जो इस सिलसिले को चला रहे हैं लेकिन इनके लिखे हुए का कितना अंश गजल की शर्तों को पूरा करता है।


बात यह कि जैसे हर भाषा की अपनी एक प्रकृति होती है, उसका एक रचनात्मक सरगम होता है वैसे ही कुछ काव्यरूप भी कुछ खास भाषाओं के ही अधिक अनुकूल होते हैं। दूसरी भाषाओं में उनसे मिलते जुलते प्रयोग तो हो सकते हैं लेकिन ऐसे प्रयोग मुकम्मल तभी होंगे जब वे उस भाषा के रचनात्मक सरगम को भी साध सकें।


__ शमशेर को यह सिद्धि हासिल है, इसीलिए उनकी गजलें इतनी मुकम्मल हैंशमशेर के चंद अंशआर पेश हैं :


इल्मो हिकमत, दीनो ईमां, मुल्को-दौलत, हुस्नो इश्क


आपको बाजार से जो चाहिए ला देता हूं मैं


वो जल्वे लौटते फिरते हैं, खाको-खूने इंसा में


तुम्हारा तूर पर जाना, मगर नाबीना होना है


जमाने भर का कोई इस कदर अपना न हो जाए


आज फिर काम से लौटा हूं बड़ी देर गए


ताक पर ही मेरे हिस्से की रखी है शायद


शमशेर की गजलें मुकम्मल इसलिए भी हैं कि वो उर्दू की भाषिक संरचना और मिजाज से न केवल वाकिफ बल्कि उसमें रचे बसे भी हैं और संगीत की बुनियादी संवेदना और प्रभाववादी चित्रकारों की सी बिंब लय के वो मालिक हैं। शमशेर विशिष्ट अनुभूतियों के कवि कहे गये हैं लेकिन उनकी गजलों की अपील सार्वजनिक है। बकौल फजल ताबिश गजल के अशआर अपने मिजाज के मुताबिक उमूमी नुअइयत के होते हैं जबकि नज्म का मिजाज खुसूसी इजहार के लिए होता है। शमशेर की नज्मों और गजलों में मिजाज के इस फर्क को बखूबी देखा जा सकता है


___हिन्दी गजल में इधर दुष्यन्त का नाम भी खासा चर्चित रहा है। उनकी भी वो ही गजलें और उनके वही अशआर काबिले दाद हैं उर्दू की रवानी, उसके मिजाज और लोच की कद्र की गयी खला है:


मैकदे का रास्ता अब भी खुला है


सिर्फ आमद रफ्त ही जियादा नहीं है


उठाकर फैक दो खिड़की से ये सागरो-मीना


ये तिश्नगी जो तुम्हें दस्तयाब न हो जाए...


लेकिन जहां उन्होंने गजल से अधिक छेड़छाड़ की है वहीं रचनात्मकता की दरारें साफ-साफ झलकती हैं। मसलन :


तुमको निहारता हूं सुबह से ऋतम्भरा


अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा


या


मत कहो आकाश में कोहरा घना है


यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है


या


कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए


मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है


यहां ऋतंभरा के साथ भरा और घना के साथ आलोचना का अंत्यातुप्राप्त जहां मैथिलीशरण गुप्त की तुकबंदी की याद ताजा कराता है वहीं आखिरी शेर का 'तो' और 'कि' मौजूं नहीं बैठता। वो शेरे मंजूम की बजाय शेरे मन्सूर ज्यादा लगता है


फिर भी शेमशेर और किसी हदतक दुष्यंत में वो नजाकत और भाषा की रवानगी और मुहावरेदानी है जो मुकम्मल गजल की शर्त है, लेकिन फिर उनकी मुकम्मल गजलों को हिंदी गजल क्यों कहा जाए? सिर्फ गजल क्यों नहीं?-क्या महज इसलिए कि उनको कहने वाले हिंदी के कवि हैं? तब फिर सैयद इब्राहिम रसखान के सवैयों को आप क्या कहेंगे? अब्दुर रहीम खानखाना के दोहे क्या कहलाएगें? जायसी के पद्मावत की चौपाइयों का क्या अलग वर्गीकरण किया जाएगा?.... इसलिए मेरा निवेदन है कि आप गजल को सिर्फ गजल ही रहने दीजिए उसके आगे हिंदी विशेषण की जरूरत ही क्या है? हिंदी गजल कहते ही मुझे भाषायी साम्प्रदायिकता की बू आती है। बेशक! आप हिंदी में भी वही लोच, वही रवानगी, वही मुहावरेदानी वही नाजुक खयाली और अंदाजे बयां की सूबसूरती पैदा कीजिए और गजल की संरचना, मिजाज और लय के करीब से करीबतर पहुंचिए। यह हिंदी के हित में होगा। हम उसकी कद्र करेंगे लेकिन तब भी क्या उसे गजल कहने से ही काम नहीं चल सकता? उसमें एक अलग-विशेषण लगाना, अलगाव की मानसिकता का ही सबूत होगा।