प्रेमी कहां जाएं

कविता


नरेश कुमार 'उदास'


इतनी बड़ी दुनिया में


नहीं बचा


कोई ऐसा कोना


जहां प्रेमीजन बैठ सकें


मन की बतियाएं


जी भर।


सोचते हैं वह अक्सर


कहां चले जाएं


अमीर लोग तो


जाते हैं विदेशों में


लेते हैं मजा।


लेकिन सब तो


नहीं जा सकते


बिना पैसे के


बस चांद को निहारते हैं


और पृथ्वी पर नहीं रही जगह


तिल रखने की भी।


पहले-पहल


खेत थे


पगडंडियां थीं


नदी-नाले थे


 झरने थे


जंगल थे।


अब सब नदारद हैं


नामोनिशान नहीं उनका


जहां खेलते हैं बच्चे


चलते हैं भागते रहते हैं


हर वक्त स्कूटर।


अब तो सब को


मकानों की छत तक नहीं मिलती


कुतुबमीनार से ऊँची मंजिलों के


बन रहे हैं अपार्टमेंट्स


ऐसे में छत पर होने वाली


मुलाकातों की मात्र कल्पना ही


कर सकते हैं


हां मोबाइल फोन


उनके लिए वरदान


साबित हो रहे हैं


उन्हें खूब बतियाने का


एक-दूजे से मौका मिल रहा है।


आसपास रहती है


हमेशा भीड़-भाड़


रहती है रेलम पेल


भागती रहती हैं


सरपट गाड़ियां


नहीं रहती खाली सड़क


नहीं रहता खाली पुल


इसलिए युवाप्रेमजन


एस.एम.एस. से काम चलाते हैं


तब बातें फोन पर


नहीं कर सकते


जब स्वयं को हर समय


भीड़ में घिरा पाते हैं।


अगर यही हाल रहा तो


प्रेम करना मुश्किल हो जाएगा


बस हमारा इतिहास


हीर-रांझा, सस्सी-पन्नू


तथा लैला मजनू के प्रेम की गाथा को


आगे नहीं बढ़ा पाएगा


कोई नया रांझा


कोई नई हीर को


पैदा न कर पाएगा।