मेरे हमनवा और हमदम

आलेख


धनंजय वर्मा


ग़मख्वार-ए-जान-ए-दर्दमंद आयाः


पहले मेरे लिए उज्जैन का मतलब सिर्फ प्रभात (कुमार भट्टाचार्य) था, अब प्रमोद (त्रिवेदी) भी हो गया है। जबसे प्रभात पर 'समावर्तन' के सम्पादन-समन्वयक का अतिरिक्त कार्यभार आया है, तब से भी 'अक्सर ही' में भी तब्दील होने लगा है।


प्रमोद से पहली मुलाकात कब, कहाँ, किस प्रसंग में हुई, यह तो याद नहीं। लेकिन गालिबन प्रभात की वजह से जब उज्जैन आने का सिलसिला शुरू हुआ, लगभग तभी से प्रमोद से मिलने-जुलने का भी आगाज हुआ। प्रभात, बाकायदा प्राध्यापक रहे हैं- प्रमोद के, चुनांचे हमारी आरम्भिक मुलाकातों में प्रमोद की ओर से एक संकोच, औपचारिकता और लिहाज की दूरी स्वाभाविक रूप से रही है। उनके रचनाकार से परिचय तो रू-ब-रू मुलाकात से पहले भी था लेकिन नरेश मेहता के प्रसंग में आयोजित संवादों और प्रमोद द्वारा संपादित पुस्तक : 'नरेश मेहता दृश्य और दृष्टि' के माध्यम से उनसे कुछ निकटता बढ़ी।... फिर 2007 में छोटी बेटी निवेदिता के उज्जैन आने के बाद हमारे उज्जैन प्रवास के फेरों और अवधि में जैसे-जैसे इजाफा होता चला गया उसी अनुपात में रफ्ता-रफ्ता प्रमोद से भी नजदीकी बढ़ती चली गयी। प्रभात और उसके पूरे परिवार ने निवेदिता को अपनी बेटी-बहन तो बना ही लिया है. प्रमोद भी न केवल उसके आदरणीय चाचा हैं बल्कि सौ. वसमति की भीवह प्यारी बेटी है और उन्होंने हमें यह सुखद एहसास दिया है कि उज्जैन में भी हमारा एक परिवार और है। दरअसल हम लोग इक्कीसवीं सदी की इस उत्तर आधुनिक और भूमंडलीकृत दुनिया में आज भी अपने स्वभाव और प्रकृति में ही नहीं आचरण और व्यवहार में किसी हद तक ग्रामीण और ठेठ कस्बायी हैं। जिनसे मेल-जोल बढ़ता है उनसे हमारा एक रिश्ता भी बन जाता है, एक पारिवारिकता विकसित होती जाती है और हम लोग एक-दूसरे के सुख-दुख, हारी-बीमारी में पूरी निष्ठा और शिद्दत से शरीक होते हैं।


प्रमोद स्वभाव से ही संकोची और 'रिजर्व' हैं। वे किसी से यक-ब-यक नहीं खुलते और न बेसाख्ता किसी के बगलगीर हो जाते। वे तौलते और परखते हैं फिर किसी के करीब आते हैं।


2007-2008 से मुसलसल मिलने-जुलने, एक दूसरे के घर आने-जाने और मिल-बैठने के बावजूद 2013 में भी वे लिखते हैं: “मैं आज भी उन्हें बस जानता भर हूं। सच बात तो यह है कि उनकी जो छवि बनी या बना दी गयी है, वे जिस तरह ढले या ढाल दिए गए हैं- एक खास तरह के मिथ में, उसका भेदन कर पाना मुझ जैसे ठेठ मालवी व्यक्ति के लिए सम्भव ही नहीं।... वे मुझे अच्छे लगते हैं और शायद उन्हें मैं भी। मेरे लिए इतना काफी है कि उन्होंने मुझे पास बैठने लायक मान लिया। उससे ज्यादा 'खुले रिश्ते' की न उन्हें दरकार रही न मुझे। हम नहीं मिल पाते तो फोन पर बात कर लेते हैं। हमारी बातों में विवाद जैसी स्थिति अब तक तो नहीं बनी। ऐसा न आ. वर्माजी ने चाहा और न मैंने।' (आलोचना के अमृत पुरूष : संपादक : प्रमोद त्रिवेदी: भूमिका : पृष्ठ 6-7) यहाँ तक कि 2015 में भी उन्होंने लिखा: “वह इतने प्रेम से गले लगाते हैं कि मुझे यह शक होने लगता है- ये कोई और व्यक्ति तो नहीं हैं, धनंजय वर्मा के चोले में ? क्योंकि मैंने उनके स्वभाव और व्यवहार के बारे में इतनी बातें सुनी है कि उनसे मिलने में मुझे हमेशा संकोच हुआ। इसी वजह से मैं अपनी हद में ही रहा।... उनकी यह छवि बनाने में खुद उनका हाथ ज्यादा रहा या उनके मित्रों का, यह मेरे लिए खोज का विषय है।" (समावर्तन : जुलाई: 2015 : पृष्ठ 48)


उम्मीद करता हूं (और यह उम्मीद बेबुनियाद नहीं है) कि प्रमोद अब मुझे, पूरी तरह न सही, कुछ-कुछ पहचानने भी लगे हैं। मेरी जिस 'छवि' और 'मिथ' से पहले उनका साबिका पड़ा था, वह किसी हद तक गायब न सही, धूमिल जरूर हुई होगी। उनका यह एहसास भी अब पुख्ता हुआ होगा कि 'अच्छे लगने' की हमारी भावना में प्रगाढ़ता आयी होगीअब हम एक-दूसरे के पास बैठने लायक' की हदबन्दी से आगे निकल कर एक-दूसरे के दिलों के करीब सरक कर सहचर और मित्र भी बन गये हैंविवाद हमारे बीच भी कभी-कभी होते हैं लेकिन मतभेद कभी मनभेद में तब्दील नहीं होते। एक दूसरे को गले लगाने की क्रिया-अनुक्रिया में औपचारिकता से अधिक अब दोनों ओर हार्दिकता आ गयी है


दरअसल मेरी आंखों के मोतियाबिन्द के आपरेशन (2015-2016) के दौरान प्रमोद से नजदीकी और आत्मीयता दोनों बढ़ीं। मैं तब न लिख सकता था, न पढ़ सकता था। दिनभर तन्हा-अकेले बैठे-बैठे कैसी तो एक ऊब और झुंझलाहटप्रभात भी अपने मुम्बई-सूरत की लम्बी अवकाश-यात्रा पर। उन दिनों प्रमोद अक्सर आ जाते थे। बातों में वक्त कब सरक जाता, पता ही नहीं चलता। उनके जाने के बाद फिर सन्नाटा। मैं उनके फिर आने की प्रतीक्षा करने लगता। मुझे खुद पर गुस्सा और तरस भी आता कि मैं जब चाहूं उनसे मिलने क्यों नहीं चला जातादरअसल बढ़ती उम्र और ढेर सारी बीमारियों के चलते अब मेरा कहीं भी अकेले जाना-आना मुमकिन नहीं है। प्रमोद इतने संवेदनशील और उदार तो हैं ही कि मेरी मजबूरियों की न केवल उनमें समझ है बल्कि हमदर्दी भी है। ऐसा तो कम ही हुआ है कि तनहा उदासी में मैंने उन्हें शिद्दत से याद किया हो और वो न आये हों।


"-आओ प्रमोद, अभी तुम्हें ही याद कर रहा था"।


"-शैतान को याद करो और शैतान हाजिर।"


"-तुम तो अब मेरे लिए उस फरिश्ते की मानिन्द हो जो पलक झपकते मुझे अपने अकेलेपन के अंधे-गहरे कुंए से निकाल लाता है।" और हम लोग शुरू हो जाते हैं-कहीं से भी, किसी से भी। हमारी बातचीत में विषयों की कमी कभी नहीं खटकी। कहा गया है कि लोगों की तीन किस्में हैं-एक, वो जो जब मिलते हैं तब विचारों, मूल्यों, सिद्धान्तों और अवधारणाओं पर चर्चा करते हैं, दूसरे जो घटनाओं, प्रसंगों, स्थितियों, हादसों पर बतियाते हैं और तीसरे, जो व्यक्तियों (दोस्तों-दुश्मनों, पात्रों, चरित्रों) की बातों में मशगूल हो जाते हैं। हम लोग थ्री-इन-वन हैं। हम तीनों किस्मों में फिट बैठते हैं। पता नहीं, पंडितों ने रसों में निन्दा-रस की गिनती क्यों नहीं की जबकि वह सबसे अधिक आनन्ददायी है। उससे हमें भी परहेज नहीं है।


इस इत्ते बड़े उज्जैन में इत्ते सारे कवि-लेखक हैं, दो-दो विश्वविद्यालयों के नामी-गिरामी ढेर सारे स्वनामधन्य प्रोफेसरान हैं लेकिन अपनी पटरी बैठती है तो सिर्फ प्रमोद से क्योंकि अब प्रभात भी (जब वो यहां होते हैं तब भी) 'अक्सर' की बजाय 'कभी-कभार' ही मिल-बैठ पाते हैं। किसी रविवार या छुट्टी के दिन मैं प्रमोद से फोन पर पूछ लेता हूं कि शाम को 'वो लोग कहीं जा तो नहीं रहे हैं' या 'उनका कोई पूर्व निर्धारित कार्यक्रम तो नहीं है' (जो कि अमूमन नहीं होता) तो बिटिया मुझे प्रमोद के घर पहुंचा देती है और डेढ़ दो घंटे हम लोग वहीं अपनी बैठक कर लेते हैं। ऐसी बैठकों में सौ. वसुमति भी शामिल होती हैं। वो श्रोता और पाठक दोनों एक साथ और प्रथम श्रेणी की हैं चुनांचे हमारी बैठक (बतर्ज संगीत की जुगलबन्दी) में उनकी संगत बराबर की होती है।


कवियों-लेखकों की एक लगभग आम बीमारी हम दोनों में नहीं है कि मिलते ही अपनी ताजा रचना एक-दूसरे को सुनाने बैठ जाँय । हाँ, एक दूसरे का लिखा हुआ हम पढ़ते ज़रूर हैंऔर उस पर खुलकर चर्चा भी करते हैं। प्रमोद ने प्रसंगवश मुझ पर कई बार लिखा ज़रूर है। मेरे पचहत्तरवें जन्म दिन के अवसर पर विद्यार्थियों और खैरख्वाह दोस्तों द्वारा भोपाल में आयोजित अमृत महोत्सव के प्रसंग और तारतम्य में प्रभात और रमेश सोनी (इन्दौर) द्वारा प्रकाशित पुस्तक का सम्पादन भी उन्होंने किया है लेकिन उन्होंने आज तक मुझसे अपनी किसी रचना पर लिखने की फरमाइश, इशारतन भी नहीं की। इस मुआमले में अपनी अब तक जीवन और साहित्य यात्रा में प्रमोद अकेले ऐसे दोस्त हैं जिन्होंने मुझसे यह उम्मीद कभी नहीं की और यदि की भी हो तो उसे अभी तक तो जवां नहीं दी। वो कुबूल भी करते है "मैं वैसा बेखौफ कभी नहीं हो सका जैसा होना चाहिए। बस इसी कोशिश में रहा कि जो हैं रिश्ते याचीजें वे छूट न जाय । अब जो थोड़े से आत्मीय हैं, सच्चे मित्र वे ही हैं । बस वे दूर न हो जायें, यहीं चिन्ता बनी रहती है।"... "मेरे कस्बे की दुकानों में अक्सर एक बोर्ड लिखा मिलता था- 'उधारी, मोहब्बत की कैंची है।' मैंने लेखन के संदर्भ में इसको संशोधित किया 'समीक्षा या मूल्यांकन करना-करवाना अपनत्व की कैंची है।'... और सौ. वसुमति इस बात की ताईद करती हैं "अपने प्रति लापरवाह हैं परन्तु सम्बन्धों के निर्वाह में सदैव सजग रहे हैं।" (समावर्तन : मार्च 2013)


हम दोनों के विचारों और अवधारणाओं, सिद्धान्तों और मुद्धों पर अलगअलग या किसी हद तक मुख्तलिफ राय हो सकती है, होती भी है लेकिन घटनाओंप्रसंगों-हालात और हादसों पर ही नहीं व्यक्तियों (कवियों-लेखकों-दोस्तों-दुश्मनों) की जानिब हमारी वैचारिक और भावात्मक, भावनात्मक और संवेदनात्मक अनुक्रिया और प्रतिक्रिया में इतनी समानता होती है कि कई बार हमें खुद अचरज होता है।


हम दोनों के विचारों और अवधारणाओं, सिद्धान्तों और मुद्धों पर अलगअलग या किसी हद तक मुख्तलिफ राय हो सकती है, होती भी है लेकिन घटनाओंप्रसंगों-हालात और हादसों पर ही नहीं व्यक्तियों (कवियों-लेखकों-दोस्तों-दुश्मनों) की जानिब हमारी वैचारिक और भावात्मक, भावनात्मक और संवेदनात्मक अनुक्रिया और प्रतिक्रिया में इतनी समानता होती है कि कई बार हमें खुद अचरज होता है।


कहते हैं दोस्ती एक दरख्त के मानिन्द होती है। उसका पैमाना यह नहीं होता कि वह कितना लम्बा (या ऊंचा) हो सकता है बल्कि यह कि उसकी जड़ें कितनी गहराई तक फैली हैं।


कभी-कभी खुद से बात करो, कभी-कभी खुद से बोलोः


प्रमोद की खुद्दारी काबिले एहतिराम है। वे कहते हैं: “मैं दो दिन भूखा रह सकता था, पर भिक्षा मांगना गवारा नहीं था इतनी खुद्दारी तब भी थी। वह आज भी है।"...भिक्षा तो छोड़िए, किसी भी किस्म की याचना प्रमोद की फितरत में ही नहीं है। एक प्रसंग का जिक्र जरूरी है। ...भोपाल की पावस व्याख्यान माला में वे आमंत्रित थे। एक अच्छे वक्ता और प्राध्यापक की तरह वे सभा-संगोष्ठियों में पूरी तैयारी के साथ जाते हैं। उस सत्र में तो उन्हें आलेख भी प्रस्तुत करना था। उन्होंने शुरू ही किया था कि सत्र के अध्यक्ष महोदय ने कहा- 'बन्धुवर, आप पूरा आलेख प्रस्तुत करने की बजाय उसका सार संक्षेप ही बता दें।'...प्रमोद ने बिना किसी उत्तेजना के कहा- “समय का मूल्य मैं जानता हूं। मुझसे आलेख मांगा गया थाउसमें निर्धारित समय सीमा में ही है यह आलेख लेकिन लगता है अब समय की और भी कमी हो गयी है। मैं यह आलेख संयोजक महोदय को सौंप रहा हूं। आपने मुझे आमंत्रित किया। मैं आपका आभारी हूं।"...और वे बैठ गये। अध्यक्ष-संयोजक सकते में। मान-मनौवल...प्रमोद नहीं माने सो नहीं माने।


___ घटना या प्रसंग यह बहुत मामूली है लेकिन स्वाभिमान के मुआमले में खासा अहम! किसी सभा-संगोष्ठी के आयोजक-संयोजक या अध्यक्ष-संचालक क्या यह समझते हैं कि लेखक को आमंत्रित कर वे उस पर कोई एहसान कर रहे हैं। हमने खुद तो आपसे कोई दरख्वास्त तो की नहीं थी, आपने हमें 'सादर' आमंत्रित कियासमय-प्रबंधन आपका सरदर्द है। हमें समय-सीमा जता कर, बीच में टोककर, हमारा अपमान करने का क्या हक है आपको? निश्चय ही अध्यक्ष का वह हस्तक्षेप प्रमोद को अपना अपमान लगा और उनकी प्रतिक्रिया वाजिब ही नहीं लाजिमी भी थी। मैं जानता हूं हम जैसे लोंगों पर 'तुनुक मिजाजी' की तोहमत तराशी जाती है। प्रमोद कहते भी हैं..."मेरे मित्र भी यही मानते है कि मैं जल्दी नाराज हो जाता हूंअब जो जैसा है, है। अब इस उम्र में भला क्या और कैसे बदलूंगा अपने आपको। यों कोई भी बदलता नहीं है अपने को। केवल नकाब । ये नकाब किस लिए और कितने सारे एक साथ जीवन में (और लेखन में भी)। सफलता की सीढ़ी-दरसीढ़ी चढ़कर कामयाबी की मंजिल पाने के लिए ही न। लेकिन जो शख्स ऐलानियां कह रहा हो "हां मैं सफल व्यक्ति नहीं हूं, होना भी नहीं चाहता।" उसे सफलता अभिमुख इस उत्तर आधुनिक समाज में किस नजर से देखा जाता है, मैं जानता हूंयाद आता है- प्रमोद वर्मा को याद करते हुए मैंने एक खुले खत में लिखा कि "ऐसा है अक्षय बाबू कि प्रमोद जी जानते थे, मैं भी जानता हूं और आप भी जानते हैं (और प्रमोद त्रिवेदी भी जानते हैं) कि सफलता का राजमार्ग क्या है और उसके लिए कितनी और कैसी-कैसी कीमत चुकानी पड़ती हैं। सारे सफल लोगों ने चुकायी हैखुशामद और चापलूसी के लिए जिस भाषा की जरूरत होती है, जिस अभिनय की दरकार होती है, वह हम भी कर सकते थे, और बेहतर ढंग से कर सकते थे, लेकिन हमने वह रास्ता चुना ही नहीं। जिस रास्ते पर चले ही नहीं, उसकी मंजिल हमें कैसे और क्योंकर नसीब होती? वक्त की नजाकतों को हम भी समझते हैं लेकिन वक्ती तकाजों पर सज्दा करना हमें मंजूर नहीं, तो नहीं। 'यां तो हर जर्फ के मयकश हैं, हर कैफ की सहबा है।'


प्रमोद की शख्सियत में यह खुद्दारी ही है जो उनसे कहलवाती है: “मैं उन व्यक्तियों में से नहीं हूं जो बहुत साहसी होते हैं, दु:साहस की हद तक। वे साहसी होते हैं तो बहादुर भी हैं। मैं वैसा बिल्कुल नहीं हूं।"...हमने जीवन और साहित्य में उन बहादुर शूरवीरों को भी देखा है जो पर्दे के पीछे पुरस्कार और सम्मान के लिए जोड़-तोड में लगे हुए हैं और अनुकूल आलोचना की कतार में पेश-पेश हैं। सफलता के लिए हर समझौता उन्हें कुबूल हैं। उसके लिए वे किसी भी हद तक झुक-गिर-और रेंग सकते हैं। प्रमोद को ऐसा कोई समझौता कभी गवारा नहीं हुआ। किसी बड़े-से-बड़े प्रलोभन ने उन्हें झुकने की कहे कौन उधर देखने तक को मजबूर नहीं किया। वे बड़े फख से कहते हैं: “विवशता में तो मैं कुछ भी नहीं करूंगा। अब कोई दबाव नहीं है। लेखन से मुझे न तो अपना और न अपने परिवार का पेट पालना है और न कोई लक्ष्य सिद्ध करने हैं।" ऐसे खुद्दार शख्स को अक्सर ही गलत समझा जाता है। उसे अहंकारी, घमंडी, नकचढ़ा और 'स्नाब' तक कहासमझा जाता है। उस पर ये तोहमतें तराशने वाले उसकी विनम्रता और शालीनता, शाइस्तगी और सलाहियत को क्यों भूल जाते हैं। जो व्यक्ति यह कह सकता है: "आज भी कुछ नया सीखने या जानने को मिलता है तो बहुत खुशी होती है" या "मैंने खुद को और अपनी ख्वाहिशों को भी सदा 'लो प्रोफाइल' में ही रखा। कुछ वजहें भी रहीं, कुछ बचपन के अनुभव। इससे लाभ भी हुआ, नुकसान भी।"


नुकसान का न तो प्रमोद ने जिक्र किया और न ही कभी उसकी फिक्र की हां, लाभ और उपलब्धि का यह उल्लेख काबिले गौर, है: "न मैं किसी का शत्रु हूं और न कोई मेरा शत्रु । मेरे लिए तो यह बहुत बड़ी बात है। कह सकता हूं मेरी अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि" और इससे बड़ी विजय और क्या होगी कि “ठेठ मुझ गावदू के मन में दिल्ली का कभी आकर्षण नहीं रहा। वह इसलिए कि कभी कोई महत्वाकांक्षा ही नहीं पाली । यात्राएं कभी रास नहीं आयीं। दौड़ने का दम नहीं था तो दौड़ में कभी शामिल नहीं हुआ। उज्जैन में बैठकर जो हो गया उसे उपलब्धि मान लिया।"


यह कोरी-ढोंगी विनम्रता नहीं है। इसके पीछे एक गहरा आत्मनिरीक्षण हैलगता है प्रमोद ने अपने मामा कविवर प्रदीप की प्रसिद्ध कविता-एक निवेदन-को अपने अन्तरतम में जज्ब कर लिया है। चार-चार पंक्तियों के तीन पदों की यह कविता हर कवि लेखक को एक बार तो जरूर पढ़ना और अपने भीतर उतारना चाहिए। इसकी आरम्भिक पंक्तियां (टेक) हैं:


कभी-कभी खुद से बात करो, कभी-कभी खद से बोलो


अपनी नजरों में तुम क्या हो, ये मन की तराजू पे तोलो।।


अपने मन की तराजू पर खुद को तौलकर ही प्रमोद कह सके हैं: “मुझे मेरी औकात का पता है और अपने लेखन की व्याप्ति के बारे में कतई गुमान नहीं है।" आमतौर पर हमारे कवि-लेखकगण भी आत्म-सम्मोहन, आत्म-आलोचना के नाम पर आत्म-मुग्धता में मुब्तिला होते हैं। वो जो अतिरिक्त संवेदनशीलता और जागरूकता या प्रखर चेतना संपन्न होने के दावे करते हैं वो भी अपने आईने में खुद को देखने से कतराते हैं, या फिर...


उम्र भर गालिब भूल ये करता रहा


धूल चेहरे पे थी, साफ आइना करता रहा ।


अपने चेहरे की धूल के साथ अपने आइने को भी साफ करने के बाद आत्मसाक्षात्कार से जो एक आत्म-विश्वास आता है उसी से एक ऐसा स्वत्वाग्रह भी उपजता है जिसमें यह वाजिब एहसास होता है कि "जो ठीक लगा, किया और वह ठीक भी अपनी समझ और क्षमता के अनुरूप जितना और जैसा कर सकता था, किया। जब मैं करने में स्वतंत्र हूं तो आप भी कहने और मेरे बारे में धारणा बनाने के लिए स्वतंत्र हैं।"...इस मनोबल में दो बातें गौर-तलब है: अव्वल तो 'अपनी समझ और क्षमता' ओर दोयम 'मेरे बारे में धारणा बनाने के लिए स्वतंत्र'। अपनी समझ ओर क्षमता की संकल्प शक्ति से ही प्रमोद में लीक से हटकर, प्रचलित और स्वीकृत से भिन्न होने और फैशन और रूढ़ि से अलग लिखने का माद्दा आया है। हमारे समकालीन कितने कवि-लेखक डंके की चोट पर यह कह सकते हैं कि "चलना तो अपने पैरों से ही पड़ता है। सहारे से चलना, चलना नहीं होता"... इस दृढ़ता में यह जागरूकता और चेतना अन्तर्निहित है कि "बहस और कई बार सुनियोजित ढंग से खड़े किए गए विवाद ज्यादा नहीं टिकते और एक समय बाद ऐसी बहस और लांछन भी अपना ताप खो देते हैं। रह जाता है वही जो आपने निष्ठा से किया है।"'बहस' और 'विवाद' की जगह, इस वाक्य में, आप 'प्रायोजित चर्चा' और 'मूल्यांकन' भी रख सकते हैं कि उनका हश्र भी वही होता है। सच तो यही है कि बिना किसी सहारे, अपने ही पैरों पर चलने का दमखम ही व्यक्ति और कवि लेखक को 'एकला चलोरे' की प्रेरणा और हौसला भी देता है। उसी से यह दृढ़ निश्चय भी आता है कि "किसी मंडली में शामिल नहीं हुआ, तो नहीं हुआ।"... गौर करें तो हमारे समकालीन ही नहीं लगभग पूरे आधुनिक साहित्यिक परिदृश्य में लगभग हमेशा ही कई-कई 'भजन' और 'कीर्तन' मंडलियां सक्रिय रही हैं जो 'अपने-अपनों' की जय-जय कार में मगन रहती हैं। मसलन एक ओर व्यक्ति स्वातंत्र्यवादियों की मंडली थी (है) तो दूसरी ओर प्रगतिशीलों की! इस दूसरी मंडली की जानिब प्रमोद के निगाह-औ-नजरिए पर गौर करें : "मार्क्स को भी थोडा पढ़ा समझा (ही) नहीं, उस तरफ झुकाव भी था। अब भी है पर आपातकाल में कम्युनिस्ट पार्टी और प्रगतिशील लेखक संघ की जो भूमिका रही (वह) वैसी नहीं होती तो मैं भी इसी लेखक संगठन में दिखाई देता।" और इस या उस या किसी भी मंडली में शामिल न होने वाले कवि लेखक की स्थिति और नियति हम देख ही रहे हैं और हममें से अधिकांश उसका खमियाजा भी भोग रहे हैं। इसीलिए प्रमोद अपने लेखन के मूल्यांकन के प्रति ही नहीं अपने बारे में किसी के द्वारा कोई धारणा बनाये जाने के प्रति भी उतने ही उदासीन और लापरवाह रहे हैं: "जैसा मैं करना चाहता था, वैसा यदि नहीं हो सका तो यह मेरी ही अक्षमता है और इसका दोषी मैं और केवल मैं ही, पर कोई किन्हीं और वजहों से 'ऐसा' कह रहा है तो मुझे इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए।" इसी चिन्ता न करने का ही क्या यह नतीजा है कि इतनी लम्बी काव्य और उपन्यासों की रचनायात्रा में न तो उनकी कविता का समुचित मूल्यांकन हुआ और न उनकी औपन्यासिक रचनात्मकता का।


__इस स्थिति' को प्रमोद ने अपनी नियति नहीं मान लिया है इसीलिए तो इसे लेकर उनमें न कोई अवसाद है और न हताशा। वे मुतमईन है: "मैं यह भी नहीं कहूंगा कि मेरा सारा किया धरा सब व्यर्थ गया क्योंकि चाहे थोड़े से ही सही पर मुझे कुछ पाठक तो मिले ही। मैंने जो भी लिखा, पाठकों के लिए ही लिखा। उन्हींने मेरे लेखन को यदि पसंद किया है तो मुझे जानकर या मेरी वजह से नहीं किया। तो मुझे अपने लेखन पर भी संतोष है और अपने काम के प्रति मेरा विश्वास कुछ अधिक दृढ़ हुआ है। पहले लेखक को खुद अपने काम पर भरोसा होना चाहिए, तभी पाठक उसके काम पर भरोसा करेगा।"


प्रमोद की इस बात पर मुझे बेसाख्ता एक शेर याद आ गया जाने किस शायर का है, पर है कमाल का :


जुगनूं हूं, नूर-ए-खुदा का जमाल


जलता नहीं हूं, सूरज की खुदनुमाई से


(मैं जुगनूं हूं तो क्या, हूं तो मैं भी प्रकाश के ईश्वर का ही सौन्दर्य । सूरज के आत्म-प्रकाश से मैं जलता नहीं हूं। उससे मुझे कोई ईर्ष्या नहीं।) अपनी खुदनुमाई से आस्मान को कुछ वक्फे के लिए रौशन करने वाले धूमकेतुओं के मानिन्द साहित्याकाश के कई पुच्छल तारों का हश्र हम देख चुके हैं। ...प्रमोद में अपनी रचनात्मकता को लेकर जो वाजिब गर्व और दर्प है वह खुद परस्ती या खुदबीनी नहीं हैवह खुदशनासी और खुदइत्मीनानी है। उसमें गालिब के नाज की यह कैफीयत भी है:


है कहां तमन्ना का दूसरा कदम यारब


हमने दश्त-ए-इम्कां को, एक नक्श-ए-पा पाया


(अय खुदा! कामना का दूसरा कदम कहां है? हमने तो संभावना के इस संपूर्ण क्षेत्र को एक ही पदचिन्ह के मानिन्द पाया।) रचनात्मक संभावना के क्षेत्र को एक ही कदम में नापने की सृजनेच्छा से समृद्ध कवि-लेखक ही कह सकता है: "कभी-कभी अपने लेखन से संतोष अवश्य मिला पर हमेशा वह भी नहीं। अभी भी नया कुछ लिखते हुए मन में धुकधुकी बनी रहती है कि पता नही..." या "अच्छा गद्य लिखना अच्छी कविता लिखने से कठिन काम है। गद्य लिखते हुए अभी भी घबराहट होती है।" इसे ही कहते हैं लगातार बेहतर और बरतर लिखने की उत्कंठा (यार्निंग) जो निरन्तर रचनात्मक विकास. श्रेष्ठता और पर्णता की आकांक्षा और शर्त दोनों हैं।


कहते हैं शान्तिनिकेतन के कला विद्यार्थियों ने जब अपनी शिक्षा पूरी कर ली तब वे अपने कला गुरू-आचार्य नन्दलाल बसु से आशीर्वाद लेने पहुँचे। गुरू ने उनसे कहा- "मैं तुम्हारे जीवन की सफलता नहीं चाहता.."। विद्यार्थी सन्न् । यह गुरू ने कैसा आशीर्वाद दिया? ! गुरू ने वाक्य पूरा किया- "मैं तुम्हारे जीवन की सार्थकता की कामना करता हूँ।"


प्रमोद भी कहते हैं-"लम्बे लेखन और सार्थक लेखन में फर्क है..."लम्बा लेखन तो कर सका और सार्थक लिख सकूँ, यह कोशिश जारी है।" इस दूसरे वाक्य में शब्द 'और' की ध्वनि मात्रात्मक से अधिक गुणात्मक है, परिमाण की बजाय परिणाम की चिन्ता है, श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर लिखने की आकांक्षा है।


लेखन की सार्थकता और सार्थक लेखन की निरंतर कोशिश में प्रमोद की निष्ठा और समर्पण को उनके इस आत्म कथ्य में भी देखा जा सकता है: "मैंने शब्दों में सपने देखे हैं और मैं अब तक इन सपनों में बना हुआ हूं या इन सपनों ने मुझे जैसा भी अच्छा या बुरा बनाया। इन सपनों में मैं (ही) नहीं हूं-पूरी दुनिया है-रंगी और बेरंगी। थोड़ा बल्कि बहुत ही थोड़ा चित्रकला का अभ्यास रहा तो रंगों को संतुलित करने का स्वभाव रहा। इसीलिए शब्दों में जो स्वप्न देखे-आधे-अधूरे, बेमेल, अव्याख्येय उन्हें अपनी तरह से संतुलित करने का प्रयास किया।"


प्रमोद का 'थोड़ा बल्कि बहुत ही थोड़ा चित्रकला का अभ्यास', 'समावर्तन' के मार्च 2013 के अंक में ही प्रकाशित उनके आधा दर्जन रंगारंग चित्रों में बखूबी देखा जा सकता है। इनमें न केवल रंग संतुलन वरन प्रभाववादी चित्रकला और उत्कृष्ट 'लैण्डस्केप' का रंगसंगीत भी देखा-सुना जा सकता है। वे इस बात के भी पर्याप्त सबूत हैं कि प्रमोद यदि इसी दिशा में एकाग्र होकर आगे बढ़ गए होते तो निश्चय ही वे देश के उल्लेखनीय चित्रकारों की पहली पांत में होते। रंग समन्वय और संगति की उनकी कुशलता उनकी शब्दचेतना और शब्द मैत्री में सफल ही नहीं सार्थक भी हुई है। उनकी कविताएं तो इसका प्रमाण हैं ही, उनका गद्य भी इसका गवाह है। वे कहते जरूर हैं कि "गद्य लिखते हुए अभी भी घबराहट होती है" लेकिन उनका गद्य केवल एक 'कवि का गद्य' भर नहीं है बल्कि वह कथारस में पगे गद्य के साथ नाट्य-रस की रम्यता से समृद्ध गद्य भी है। उसमें भाषा की वहीं तमीज है जिसे तुलसीदास ने 'भाषा निबन्ध मति मंजुल मातनोति' कहा था। जो कवि-लेखक कह सकता है "शब्दों के उस संकुल में मैं अकेला नहीं हुआ" जो ऊग रहे दो कोमल पत्तों की तरह।"... (प्रमोद की कविता (क्रमश:) 'पुराने खतऔर 'बच्चे के चित्र में'.. (सारे उदाहरणः समावर्तन : मार्च 2013)


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दुनिया में हूं, दुनिया का तलबगार नहीं हूं:


प्रमोद की रचनायात्रा पर सिलसिलेवार तबसरा लिखने का यह मौका नहीं है लेकिन जितना मैंने उनका लिखा. पढा. उस सबके मुंजमिद असर का मुख्तसर बयान करूं तो सबसे पहले उनके उपन्यास 'तथापि', काव्यनाटक 'कापुरूष', काव्य-संकलन 'वन तुलसी की गंध' या फिर कहानी 'नई सदी का पंचतंत्र' पर नजर ठहरती है। इन पर बड़ी आसानी से 'अतीत-मोह' की तोहमत तराशी जा सकती है बल्कि तराशी भी गयी है। अतीत-व्यतीत से कथावृत्त लेने का मतलब क्या यह हो जाता है कि लेखक अतीत-जीवी है? आधुनिकता के आग्रह बल्कि दुराग्रह और उत्तर आधुनिकता के व्यामोहने 'इतिहास का अंत' और अतीत से मुक्त के नारे जरूर दिए लेकिन क्या अतीत को इस तरह नकारा या मिटाया जा सकता है? क्या कोई भी सार्थक रचना और रचनाकार इस तरह 'स्मृति-हीन' हो सकते हैं? जो आज अतीत है, वह कभी किसी का वर्तमान और किसी का भविष्य भी रहा है और आज जो हमारा वर्तमान है वह (आने वाली पीढ़ी के लिए ही नहीं हमारे लिए भी) कल, अतीत हो जाएगा। हम यह क्यों भूल जाते हैं कि अतीत, व्यतीत होकर हमेशा के लिए विद्यमान हो जाता है। आधुनिकता के पुरोधा टी.एस. इलियट की ही उक्ति तो है: 'पास्ट इज एण्हर प्रेजेन्ट'! भारतीय काल-चिन्तन और अवधारणा में अतीतवर्तमान-भविष्य-काल के जल-रोधी खाने नहीं हैं, वे एक-दूसरे से संबद्ध ही नहीं संपृक्त भी है। हमारा वर्तमान प्रतिक्षण अतीत में समा रहा है तो प्रतिक्षण भविष्य में प्रक्षिप्त भी हो रहा है। महाकाल की नगरी-उज्जैन-के संस्कारों में रचे-बसे एक जागरूक और सचेत लेखक के लिए काल के इसी सातत्य का बोध उसकी रचनात्मकता का केन्द्रीय परिप्रेक्ष्य है। रचनाओं के कथा-वृत्त की मूल संवेदना और अनुभूति-सरगम से उपजे प्रभाव संघात की पड़ताल की जाय तो उनकी वर्तमानता' और 'विद्यमानता' ही नहीं आधुनिकता और समकालीनता भी देखी-समझी और परखी जा सकती है। उपर्युक्त चारों रचनाएं मूलतः हमारे आज के मानवीय सरोकारों से ही उपजी हैं और उनकी चिन्ताएं ऐन हमारे समकाल की मानवीय चिन्ताएं है। अतीत के कथावृत्त से संयुक्त कर रचनाकार ने उनके मानव-सार और सातत्य को ही रेखांकित करना चाहा है।


उनके उपन्यासों- 'हंस अकेला,''कालेकोस' और 'इस सराय में भी आधुनिक ही नहीं, समकालीन और हमारे तात्कालिक समाज और इंसानी जिन्दगी की स्थितियों और विषमताओं, विसंगतियों और त्रासदियों का जितना उत्कट और गहन गंभीर साक्षात्कार है वही उन्हें हमारे समय की प्रासंगिक और प्रामाणिक आवाज भी बनाता है। अपनी कविता के तेवर, मुहावरे, शब्द विन्यास और 'डिक्शन' में प्रमोद अपने लगभग सभी समकालीनों में अलग से पहचाने जा सकते हैं, 'सुमन' और वीरेन्द्र मिश्र, शमशेर और नागार्जुन और सर्वोपरि नरेश मेहता के प्रति उनके रचना मानस में आकर्षण जरूर है लेकिन यह महज पसन्दगी तक ही महदूद है, उनके पदचिन्हों पर पग रखकर चलने में वह तब्दील नहीं हुआ है। कविता और उपन्यास दोनों में वे सबसे अधिक करीब नरेश मेहता के लगते हैं लेकिन दोनों विधाओं में उनकी अपनी वैयक्तिकता और रचनात्मक पहचान अलग दिपदिपाती है।


साहित्य के समकालीन परिदृश्य में उनकी अपनी अलग आवाज सुनी और उसकी खास पहचान महसूस भी की गयी लेकिन समकालीन आलोचना में उसका बाकायदा न तो उल्लेख हुआ और न समुचित मूल्यांकन ही हुआ। इसकी एक वजह तो यही है कि उज्जैन के ही अपने कई समकालीन कवियों-लेखकों की तरह खुद को प्रायोजित, करने के अन्यथा उद्यमों में प्रमोद कभी शामिल नहीं हुए। कालीदास की नगरी में रहते हुए भी, लगता है, उनका अकीदा भवभूति में निस्बतन ज्यादा है:


ये नाम केचिदिह नः प्रथयत्न्त्यवज्ञाम।


जानन्तु ते किमपि तान् प्रति नैषयत्नः।।


उत्पस्यतेऽस्ति मम कोपि समानधर्मा।


कालोऽह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी।।


(वे लोग, जो मेरी अवज्ञा-उपेक्षा कर रहे हैं, अच्छी तरह समझ लें कि मेरा रचनात्मक प्रयत्न उनके लिए नहीं हैं। काल निरवधि है और पृथ्वी विपुल है। कहींन-कहीं, कभी न कभी मेरा समानधर्मा अवश्य उत्पन्न होगा जो मेरे रचनाकर्म को समझेगा और उसका मूल्यांकन करेगा)


प्रमोद के प्रसंग में मुझे अपने प्रिय गायक कुन्दनलाल सहगल का एक गाना अकबर इलाहाबादी की गजल) अक्सर याद आता है:


दुनिया में हूं, दुनिया का तलबगार नहीं हूं


बाजार से निकला हूं, खरीदार नहीं हूं।


जिन्दगी की 'हाट' और साहित्य की 'मंडी' में प्रमोद लगभग हमेशा ही 'न ऊधौ का लेना, ना माधौ का देना' की धजा और बाने में ही बने रहे। उनमें मुझे काबिले- रश्क की हद तक एक लगभग अनासक्त का-सा भाव नजर आया। अनासक्त न सिर्फ नौकरी और लेखन में बल्कि मोहों और आकांक्षाओं, प्रलोभनों और उन बंधनों से भी जो लोगों को लोगों और चीजों से बांधते हैं। अब तो वे वानप्रस्थी भी हो गये हैं।