अपने किनारा कर लेते हैं

कविता


प्रदीप'नवीन'


साथ नहीं देती पर छाई


इतनी बात समझ ले भाई।


एक बार जो पड़ी दरारें


कितना पाटो मिटे न खाई।


अपने किनारा कर लेते हैं


सब हो जाते हैं हरजाई।


कौन आकलन करे नाश का


किसने की आकर भरपाई।


देखके अपनों की करतूतें


अपनी तो बुद्धि चकराई।


 किसको कह दें हक से अपना


दिखती है हर चीज़ पराई।


चुप रहने से क्या है बेहतर ?


"नवीन" बात समझ में आई


कटी आरव और हाथ अनेकों


एक रोटी और हाथ अनेकों


उसे झपटने साथ अनेकों।


भूले भटके जीत किसी दिन


वरना हर दिन मात अनेकों।


रोटी के भी टुकड़े करने


लगा के बैठे घात अनेकों।


दिन की भूख को ऐसा लगता


कटी आंख में रात अनेकों


अलग अलग जब चेहरे सबके


रोटी की भी जात अनेकों।


क्या गुनाह रोटी चर्चा?


रोज ही बनती बात अनेकों।


'नवीन' कैसे क्या रोकेगा


रोज ही फूटे माथ अनेकों।।