अकेले शुक्र तारे का हम सफर

ওলেন


प्रमोद त्रिवेदी


शाम उतर आई है। सफर थमा नहीं। पांव थक गए, पर टिकने का कहीं ठिकाना नहीं मिल रहा। न मिले ठिकाना, विश्वसनीय हम सफर मिल जाए, पर मुश्किल लग रहा है। हर कोई ऐसा ही साथी चाहता है। घिरती शाम में तो औरभी जरूरी हो जाता है। शाम के पीछे-पीछे रात चली आती है।...दिन के उजाले में तो रास्ता भी साफ नजर आ रहा था और लोगों के चेहरे भी। भीड़ थी आसपास और कोलाहल भी था। उसी भीड़ में था-उस भीड़ का हिस्सा। भीड़ के चरित्र के अनुरूप। लोग आये, मिले, साथ-साथ चले। बातों का सिलसिला चल पड़ा कुछ में अपनापन भी झलका तो अच्छा लगा, पर वे सब सफर के साथी थे। सफर के रिश्ते सफर तक ही कायम रहते हैं। कभी कभी उतने भी नहीं। इसीलिए लोगों के बीच भी आप अकेले ही रहते हैं। कम से कम मुझे तो ऐसी भीड़ से डर ही ज्यादा लगारास्ते के किनारे फुटपाथ इसीलिए बनाये जाते हैं कि चलने वाले के लिए खतरे कम हों। मैं हमेशा किनारे-किनारे ही चला। साहसी जो सोचना चाहें, सोचे। में उनके जैसा नहीं हूं तो उनकी नकल क्यों करूं?


....अभी तो शाम है। पर रात भी शाम के पीछे लगी-लगी चल रही है। रात याने अबूझ पहेली। पहेलियां इम्तहान लेती हैं और इम्तहान से मुझे आज भी डर लगता है। रात के साथ नींद और नींद के साथ सपने। सपनों में जिन्दगी और उलझ जाती है। न सपनों का अन्त और न ही उलझनों का...। जिन्दगी ऐसे ही उलझ कर 138 • प्रेरणा समकालीन लेखन के लिए रह जाती है।


....अभी तो शाम है फिर मैं रात पर क्यों गया? शुक्र तारा नजर आ रहा है। जो साथ- साथ चल रहे थे, उनमें से कई उनकी मंजिल पर छूट गए। कइयों को किसी मोड़ पर छूटना था, वे उस तरह छूट गए। हर सफर इसी तरह से तय होता है। साथी छूट जाते हैं, उनकी यादें रह जाती हैं। कालांतर में वे यादें भी धुंधली पड़ जाती हैं। याद कुछ और करना चाहते हैं तो याद कुछ और ही आने लगता है ! मेरे साथ ऐसी दिक्कतें एक नहीं, अनेक हैं। उम्र के साथ कुछ ज्यादा झक्की हो गया हूं। इसलिए भी लोग मुझसे कतराते हैं। कोई मुझ पर दया दिखाए, मुझे मंजूर नहीं। दिक्कत यह है बल्कि असली दिक्कत ही यही है कि खुद मुझे ही पता नहीं है कि मैं चाहता क्या हूं। ऐसे झक्की आदमी के ये हाल ही थे और हुए...


ऐसे ही शाम में सफर तय करते हुए मुझे अपनी एक पुरानी कविता याद आ गई:


इस सराय से


उस सराय में


बस.


थोड़ा रहना है


#


कड़ी धूप को


भली छांह को


जीवन में,


पहना है।


#


कभी हवा-सा


कभी नदी-सा


ऐसे ही,


बहना है।


#


ठहर गए


दो घड़ी,


चल पड़ो


यहां से


क्योंकि


तुम्हें चलना है।


इस सराय से


उस सराय में


बस,


थोड़ा ही रहना है।


...उज्जैन में रहते हुए आधी सदी लगभग पूरी होने को है। जो समझ बढ़ी, विचारों में परिपक्वता (?) आई। इतने सालों में बड़े-बड़े लेखकों से मिलने, उन से सीखने और करने का अवसर मिला। इसी जगह ने अच्छा या बुरा, सफल या विफल-प्रमोद त्रिवेदी को 'प्रमोद त्रिवेदी' बनाया। इन सालों में दुनिया तेजी से बदली, सोच बदला, दुनिया में कितने असमाप्त-अघोषित युद्ध लड़े जा रहे हैं। रक्तपात थम नहीं रहे पर उज्जैन कुछ खास नहीं बदला। दुनिया ने तरक्की की पर उज्जैन में कभी पांच-पांच कपड़ा मिल हुआ करते थे, एक-एक कर सब बंद हो गए। सिंथेटिक धागे का अधुनातन कारखाना खुला था, बंद हो गया। फिर सोयाबीन तेल का बडा मिल डाला गया। एशिया का सबसे बड़ा प्लांट। उसकी भी वही गति..। मशीनों की घरघराहट से महाकाल की समाधि में खलल पड़ता होगा तो यह महाकाल की कृपा! आज इस इक्कीसवीं सदी में भी उज्जैन किसी बड़े कस्बे जैसा ही है। महाकाल, शिप्रा, "उत्तर कार्य" और इन से जुड़े व्यवसाय यही यहाँ का मुख्य आधार है। मालवा की कहावत है- “नछारा की नौलाई (बड़नगर) और अव गत्या (जिसकी गति-मुक्ति नहीं हुई) को उज्जैन।" इससे उज्जैन का चरित्र सामने आ जाता है।


अभाव में भी मस्त रहने वाले लोग हैं भी पारम्परिक-'उज्जैन के।-' मस्त रहो मस्ती में आग लगे बस्ती में।' सौ अभाव सहकर भी पारम्परिक 'उज्जैननियों' की मस्ती में फर्क नहीं पड़ता। सबेरे-सबेरे भोर-भ्रमण पर निकलो तो अपरिचितअनजाना आदमी आपके सामने पड़ा नहीं कि- 'हरि ओ...ऽऽ...म..' या 'जय श्री महाकाल' कहता गुजर जायगा। आप प्रत्युत्तर में 'हरिओ...ऽऽ...म' या जय श्री महाकाल न भी कहें तब भी वह बुरा नहीं मानेगा। दूसरे दिन वह फिर कोशिश करेगा।'हरिओम' या 'जय श्री महाकाल' उसके लिए-'गुड मॉर्निंग' का विकल्प हैबस । चिढ़ने वाले चिढ़ते भी है। कई रास्ता बदल लेते हैं। पर हैं तो आप उज्जैन में ही न और उज्जैन का चरित्र आप बदल नहीं सकते।इतने लम्बे अर्से से रहते हुए मुझे-'उज्जैनी' होने में दिक्कत नहीं हुई। और जैसा भी हूँ, वैसा ही बना रहा। मेरे संस्कार भी तो कस्बाई ही तो थे। इस सोच के साथ मैं उतना ही आधुनिक हो सका, जितना मैं हो सकता था। यही वजह है, मैं कभी हीन ग्रन्थि का शिकार नहीं हआ। इसीलिए किसी के लिए-'पण्डित', 'पण्डितजी'. 'पंडित शिरोमणि'- या कुछ और भी हुआ तो मुझे ज़रा भी असहज नहीं लगा। उज्जैन ने मुझे यही सब सिखाया और इसी तरह ही ढाला।


एक उम्र थी, जब मेरे स्वभाव में भी गरमी थी। कर गुजरने का हौसला था। चुनौतियां स्वीकार करने में मजा आता था। दुःसाहस की हदें भी पार की। गिरे तो उठ खड़े हुए, सम्भले और चलना शुरू किया फिर से। दोस्ती निबाही तो दुश्मनी निबाहने में भी उतना ही मजा आया। गरमी में तपे, बरसात में भीगे और सर्दी में कांपे, ठिठुरे और इसका भी मजा लिया। आगे बढ़ने की कोशिश में खूब भटके पर कहीं न कहीं पहुंच ही गए। न मिला उसका बहुत अफसोस भी नहीं किया। अच्छे की तो कोई सीमा नहीं होती, पर अपने जाने किसी का बुरा न हो, इसका ध्यान ज़रूर रखा। किस से नहीं होती गलतियां, मुझ से भी हुईं। पर गलती मानने में भी कभी संकोच नहीं किया। असहमतियां भी हुई पर मेरा दुश्मन कोई नहीं हुआ। यह भी कम उपलब्धि नहीं रही।


कविता से रिश्ता जब जुड़ा, कवि होने का मतलब स्पष्ट नहीं था। कवि होना बड़ी जिम्मदारी है, तब यह पता नहीं था। पर उज्जैन आ कर समझ बढ़ी और मतलब भी साफ होने लगे। इस के बाद कविता करने में ज्यादा मजा आने लगा। जिम्मेदारियाँ बढ़ी तो चिंताएं भी बढ़ी और कविता करना कठिन लगने लगा। वह भी समझ में आया कि मैं कुछ करता हूं तो उसका असर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पड़ता है तो उम्र के साथ गम्भीरता भी आने लगी। इसे मेरे कस्बाई संस्कार मान लें या घर का वातावरण, कवि होने के प्रयास में या अतिरेक में लोग क्या नहीं कर गुजरते, वैसा करने या होने का साहस न तब था, न आज है। स्वभाव से मैं भीरू व्यक्ति हूं। सबसे अच्छी बात तो यह रही कि मुझे अपनी सीमा का बोध था। इसलिए जो कुछ भी किया, उसी सीमा में किया। सीखने-समझने की कोशिश में आज भी लगा हूं, पर नकल करना मुझे कभी अच्छा नहीं लगता चाहे साधारण काम ही क्यों न हो, पर प्रामाणिक हो, अपनी नजरों में और अन्य सभी की नजरों में। परिष्कार के लिए मैंने हमेशा जगह छोड़ी हैं। यह सब इसलिए लिख रहा हूं मुझमें आज सुधार की बहुत गुंजाइश है। यह सब भी एक दिन में नहीं आया, उम्र के साथ आया। अब समझ में आ जाता है, कि गलतियां कब और कैसे हुई हैं।


पचास का हुआ तो बड़ा धक्का लगा। एक ख्याल आया- "ऊधो! सम्भालो अपनी गठरी।" सम्भलकर चलने और बोलने का समय शुरू हुआ तो लगा, अपनी प्राथमिकता-वरीयता तय करने का समय भी आज से शुरू हो गया है। बदलाव साफ-साफ नज़र आ रहे थे। पहले की अपेक्षा अब ज्यादा साफ नजर आ रहा था। कुछ अच्छा लगता था तो बहुत कुछ नागवार भी होता था। कुछ चौंकाने वाले निर्णय भी लिए। एक ही अनुगूंज सुनाई देती थी- "ऊधो! संभालो अपनी गठरी.." ऐसे ही विकल समय में मैं डॉ. धनंजय वर्मा के करीब आया। दोनों के पास अब फरसत थी। किसी को किसी से अपेक्षा नहीं थी। हम एक दूसरे को सुनने को तैयार एक-दूसरे के लिए स्पेस काफी थी। "खूब गुजरेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो।अब ऐसा ही हाल है हम दोनों का...। पर यह सब भी अचानक हो गया हो ऐसा नहीं है। अपने को ढीला करने में दोनों को वक्त लगा।... यह भी लम्बी दास्तान है


*


सपहलीबार में ही धनंजय जी के सुदर्शन व्यक्तित्व ने मुझे बांध लिया था। आधुनिक कविता के किसी पक्ष पर उनका व्याख्यान था। पश्चिम में कविता के रूप को लेकर कैसे कैसे प्रयोग हुए हैं या हो रहे हैं, यह उन्होंने बाकायदा ब्लैक बोर्ड पर समझाया था। कुल मिलाकर सब कुछ चकित करने वाला था-व्याख्यान से लेकर व्यक्तित्व तक सब कुछ ! 'सुमन जी' ने भी उनके उस व्याख्यान पर टिप्पणी की थी इसलिए भी, डॉ. धनंजय वर्मा का वह भाषण हम लोगों में बाद में भी चर्चित रहा। आलोचक के रूप में वे अपनी जगह पा चुके थे, इसलिए भी वह प्रसंग अब तक याद है।


सन् 1964 या 1965 में कभी डॉ. धनंजय वर्मा उज्जैन के माधव महाविद्यालय में भाषण देने के लिए आये थे, तब मैंने पहली बार उन्हें देखा था। यह महाविद्यालय तब मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा महाविद्यालय था। स्वर्गीय डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' इस महाविद्यालय के प्राचार्य थे और उसी महाविद्यालय की भीड़ में मैं बी.ए. का विद्यार्थी था। कविता का चस्का तो लग गया था। तब उस कॉलेज में कितने ही छात्र थे जो, कवि के रूप में भी जाने जाते थे। मेरी गिनती तब शायद 'खद्योत सम' में भी नहीं थी।


पहलीबार में ही धनंजय जी के सुदर्शन व्यक्तित्व ने मुझे बांध लिया था। आधुनिक कविता के किसी पक्ष पर उनका व्याख्यान था। पश्चिम में कविता के रूप को लेकर कैसे कैसे प्रयोग हुए हैं या हो रहे हैं, यह उन्होंने बाकायदा ब्लैक बोर्ड पर समझाया था। कुल मिलाकर सब कुछ चकित करने वाला था-व्याख्यान से लेकर व्यक्तित्व तक सब कुछ ! 'सुमन जी' ने भी उनके उस व्याख्यान पर टिप्पणी की थी इसलिए भी, डॉ. धनंजय वर्मा का वह भाषण हम लोगों में बाद में भी चर्चित रहा। आलोचक के रूप में वे अपनी जगह पा चुके थे, इसलिए भी वह प्रसंग अब तक याद है।


 बी.ए. करके एम.ए. करने के लिए मैं अलीगढ़ चला गया। वहाँ का वातावरण पूरी तरह से मध्यकालीन था, भिन्न मानसिकता और परिवेश में ढलना मेरे लिए कठिन था और उन दो वर्षों में कविता से लगभग अलग-थलग ही रहा । जिन बड़े सपनों के लिए मैंने उज्जैन छोड़ा था, नियति मुझे फिर उज्जैन ले आयी और इस बार हमेशा-हमेशा के लिए। हां, उन दो वर्षों में लेखन का रास्ता स्पष्ट हो गया था और दो-चार कदम बढ़ा भी दिये थे। अलीगढ़ की टकराहटों ने मुझ में क्या जोड़ा या कितना तोड़ा यह अलग विषय है। हां, उज्जैन बड़ी शिद्दत से याद आता था वहां और मुझे अकेला कर देता था।


उज्जैन में रहते हुए डॉ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य से मेरा रिश्ता केवल क्लास रूम विद्यार्थी जैसा ही नहीं रहा। हालांकि मैं एक सामान्य विद्यार्थी ही बना रहा। सपने जरूर थे पर वे भिन्न किस्म के सपने थे। ऐसे स्वप्दर्शियों को खाद-पानी देने में डॉ. प्रभातकुमार भट्टाचार्य हमेशा आगे रहे। उनके 'दरबार' में भीड़ की रेलमपेल कम नहीं थी। (हालांकि-'दरबार' केवल 'सुमन जी' का ही लगता था और डॉ. भट्टाचार्य भी उस दरबार के- 'रत्नों' में से एक थे।) तय हो गया कि अब उज्जैन मेरे लिए 'जीना यहां-मरना यहां. इसके सिवा जाना कहां।' जैसा हो गया तो प्रभात जी से और कालांतर में 'सुमन जी' से भी मेरे रिश्ते प्रगाढ़ होते चले गए। काफी हद तक परिवारिक । यही नहीं, डॉ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य ने तो मुझे, उन्हें 'प्रभु' कहने की छूट भी दे दी। यह मालवा की मिट्टी की तासीर है कि गीली हुई कि पैरों में चिपक गई ! 'सुमन जी' या भट्टाचार्य जी के लिए मालवा पराया रहा हो कभी, पर मालवा ने किसी को भी, कभी पराया नहीं माना। 'सुमन जी' ने तो लिखा भी है- “सौ 'सुमन' मिटें पर जिये अवंती नगरी।"


*


डॉ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य सागर से उज्जैन आये थे। इसीलिए उनमें सागर का 'नमक' आज भी बोलता है-"ऊधौ ! मोहे ब्रज बिसरत नाहीं।" की स्थिति बनी हुई है! इन्ही के परम मित्र डॉ. धनंजय वर्मा भी संस्कारतः उतने ही बुंदेलखण्डी! ये दोनों जब भी मिलते हैं दुनिया का नक्शा सागर की भौगोलिक सीमाओं में सिमट जाता है। उस सँकरी प्रेम-गली' में ये दोनों एक हो कर समा जाते हैं तो 'तीसरे' की गुंजाइश ही नहीं बचती। जब ये दोनों दो से एक हो कर अद्वैत की स्थिति में हों और वह "तीसरा", (दूसरा) हमेशा- 'दूसरा' ही रहा! इसीलिए धनंजय जी जब-जब उज्जैन आये, प्रभात जी के लिए या उनकी वजह से ही आये, आते रहे। यदा कदा मिलना हुआ भी तो देखना ही ज्यादा हुआ। वैसे ही जैसे पहलीबार हुआ था। वे कई सीढ़ियाँ चढ़ गए थे और ऊँचाइयों से मुझे हमेशा डर लगता रहा है, मैंने ज़मीन पर रहना ही उचित समझा- सुरक्षित और निश्चित । ऐसी कोई उल्लेखनीय बात भी नहीं हुई वर्षों तक जो मुझे या धनंजय जी को याद रहती । कहा जाता है कि सत्पुरूषों के आगे-आगे उनकी “कीर्ति" चलती है। डॉ. धनंजय वर्मा की"कीर्ति" भी उनसे दो कदम सदा आगे चली है। इसलिए उन से बात करते या सहज होते हुए मेरे मन में हमेशा भय बना रहा(आलोचक का रौब तो यों भी लेखक पर तारी रहता है और उज्जैन जैसे कस्बाई मानसिकता वाले लेखक तो यों भी हमेशा डरे-सहमे ही रहते हैं।)


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पहले डॉ. वर्मा की बेटी डॉ. निवेदिता वर्मा से निकटता हुई और कब मैं उसका- "प्रमोद चाचा" हो गया, पता नहीं। जल्दी ही वह स्थायी रूप से उज्जैन आ गई तो प्रभात जी के "माधवी" की तरह ही हमारा घर “मन्वन्तर" भी उसका घर हो गया। बाद में धनंजय भी लगभग यहीं के हो गए, तो हमारे बीच भय और संकोच की जो अदृश्य और काल्पित दीवार थी, टूट गई। (इस भय और संकोच को भी शायद मैंने ही पोसा) पर जब दीवार ढही तो लगा कि जिसे मैं, अलंघ्य और अभेद्य मानता रहा, वह दीवार तो बस होने भर को ही थी! दीवार नहीं रही तो हम अब बेहद सहज थे और पारदर्शी भी। हमारी उड़ान के लिए अब असीम आकाश था। न ही मेरे मन में ऊँचाई पर होने का भय था न ही किसी "दुर्घटना" की आशंका। अब हम जब भी मिलते हैं, खुल दिल और खुली बांहों से मिलते-भेंटते हैं। कब और कैसे मैं उनके लिए- 'पण्डित शिरोमणि' और 'प्यारे भाई' हो गया, पता ही नहीं चला! कई बार मैं सोचता हूँ- जिन्हें मैं (और पूरा हिन्दी जगत डॉ. धनंजय वर्मा के रूप में जानता है।) जानता रहा हूँ, धनंजय वर्मा के रूप में वे कहीं अब भी भोपाल में तो नहीं हैं और हू-ब-हू वैसा ही कोई और वो यहाँ आकर नहीं बस गया?


*


वस्तुतः हम जिस से मिलते हैं, उसके व्यक्तित्व से ही मिलते हैं। मैं खुद से पूछता हूं, पहले मैं कब-कब उनके तमाम विशेषणों, सक्रियता और उपलब्धियों को परे करके 'धनंजय वर्मा' नामधारी एक व्यक्ति से मिला और उनमें, उनको थाहने और पाने की कोशिश की? जब मैं खुद अपने खोल में बना रहा तो वे क्यों अपने सारे जिरह-बखतर उतारते! हम तो पहले से ही एक अदृश्य रेखा खींचे होते हैं और कोई किसी को भी उस 'रेखा' को लांघने की इजाजत नहीं देता। किसी गढ़ी के विशाल प्रवेश द्वार में एक छोटी खिड़की होती है, हम भी अपने को उतना ही खोलते हैं। वो अपने लबादे में तो मैं क्यों अपने लबादे से बाहर आऊँ? इसीलिए हम नहीं, लबादा लबादे से भेंटता है ! गजब तो यह कि हम खुद अपने को लबादा मान लेते हैं। और तब खुद के लिए खुद की पहचान गायब नहीं तो धमिल जरूर हो जाती है । यह लबादा हमें डरों से बचाता है। और तो और वह खद अपने खिलाफ भी एक पक्की व्यूहरचना हो जाता है! इसकी ओर मैं खुद से भी महफज !! मैं भी किसी से मिला तो हमेशा अपने लबादे पर दो-चार तमगे और टांककर ही मिला।


धनंजय जी से जो भी मिलता है, इसी आशा-अपेक्षा से मिलता है कि वे उसका 'उद्धार' कर दें और वे सोचते होंगे- मैं किस-किस का उद्धार करत उन्हें अहंकारी मान लेने की वजह यह भी रही है। मेरे लिए उनके निकट आना इसलिए भी आसान रहा कि मैंने उनसे ऐसी कोई अपेक्षा की ही नहीं। मेरे कस्बे की दुकानों पर अक्सर एक बोर्ड पर लिखा मिलता था- 'उधारी, मोहब्बत की कैंची है।' मैंने लेखन के संदर्भ में इसको संशोधित किया- "समीक्षा या मूल्यांकन करनाकरवाना अपनत्व की कैंची है।" लेखक चाहता भी है कि उसका या उसकी कुतियों का मूल्यांकन हो और यदि ऐसा होता है तो वह आलोचक की धारणाओं से सहमत नहीं होता। लेखक यदि आत्ममुग्ध नहीं है तो उसे अपनी कद-काठी का पता होता है, पर वह चाहता है कि आलोचक उसकी कदकाठी तय करें और उसके वास्तविक कद में वांच्छित इजाफा कर देउसका (लेखक का) सारा ध्यान सृजन पर न हो कर यशोकांक्षा पर हो जाता है और इसकी सीमा नहीं होती है।.... हैं, बहुतेरे है जो-“यजमान का माथा देखकर टीका" लगाने में माहिर हैं। यही क्यों 'यजमान' भी उसी घाट पर पहुंचते हैं जहां उनका पण्डा' होता है। (अब तो घरानों ने इस काम को और आसान कर दिया है।) - "लूट सके तो लूट.." यही नजारा हर तरफ नजर आता है। न तो शर्मिन्दगी और ही संकोच।


___धनंजय जी न तो कभी 'तारनहार' नदी के किनारे पटा लगा कर किसी को तारने या कुपित हो डुबाने के कर्मकाण्ड में सक्रिय नजर आये और न आलोचना के क्षेत्र में अन्य "मण्डलेश्वर महामंडलेश्वरों" की तरह अपने-अपने 'अखाड़ों' की अगुआई करते "शाही स्नान' के जुलूस में अपनी पताका फहराते जय घोष में डूबे मुदित मन दिखे। वे लिखते हैं- "इधर साहित्य के क्षेत्र में भी एक खास नस्ल की आमद तेजी से हुई है। वह है-साहित्य के आढ़तियों की। उनमें से कइयों का साहित्य से रिश्ता महज इतना है कि वो अपना संगठन, भवन या समिति, सम्मेलन या परिषद या फिर पत्रिका आपको मुहैया करवा देते हैं। और लेखकों-कवियों की भीड़ इनके इर्द-गिर्द मंडराने लगती है। वो समझते हैं कि वो कवियों-लेखकों को बना मिटा रहे हैं। उन्हें राजपाट दे रहे हैं या फिर कत्ल कर रहे हैं। यदि कोई आढ़तिया किसी केन्द्र में हुआ तो उसका दर्जा साहित्य या संस्कृति पुरुष का नहीं, साक्षत् प्रभु का हो जाता है। (“शिलाओं पर तराशे मजमून" पृष्ठ-169) यहां मैं डॉ. धनंजय वर्मा से इतना और कहना चाहता हूं कि-"यश:कांक्षी कवियों-लेखकों" भक्त और कीर्तनियाँ मंडली" ऐसे ही -"प्रभुओं" के इर्द-गिर्द खुद जुड़ जाती हैं।


एक खरे आलोचक की तरह डॉ. धनंजय वर्मा भी इस बात से इत्तफाक नहीं रखते कि- "सच बोलो पर प्रिय सत्य ही बोलो और सत्य प्रिय या कटु है तो मौन धारण कर लो।" उनका आलोचना-कर्म चिकनी-चुपड़ी बातों में यकीन नहीं करता। अपनी मान्यताओं और अपने सच के साथ वे वो दुश्मनी की हद तक भी जा सकते हैं। यही आलोचना के प्रति उनका न्याय है और आलोचना की प्रतिबद्धता भी। एक आलोचक और व्यक्ति के रूप में उनकी यही छवि है। "सत्यम् ब्रूयात् प्रियम् ब्रूयात्' में शुद्ध डिप्लोमेसी है। यह आलोचना का चरित्र नहीं है, न ही आलोचना का गुण। डॉ. धनंजय वर्मा का बचपन बस्तर जैसे सभ्यता से दूर अंचल में बीता है। तब बच्चों को घर और स्कूल में सिखाया जाता था- 'सच कह, डर मत।' इस सूत्र को उन्होंने समझा और रटा ही नहीं, जीवन में भी उतारा और अपनी आलोचना का आधार बनाया। आप उसे पसंद करें तो ठीक, न करें तो आपकी मर्जी। इसीलिए उनके मित्र भी उनसे ख़फ़ा हो गए या दूर चले गए। उन्होंने इसकी चिंता भी नहीं की। इस तरह उन्हें अपने दोस्त और दुश्मनों की पहचान भी हो गई।


*


डॉ. धनंजय वर्मा ने लेखन की शुरूआत तो काव्य-रचना से ही की थी और यह सिललिा काफी लम्बा चला(अब तो इनका एक काव्य संग्रह "नीम की टहनी" भी प्रकाशित हो गया है।) कुछ कहानियां और रम्य रचनाएँ भी उनके नाम हैं। याने, ये चाहते तो इस सृजन से भी वे थोड़े अलग पर धनंजय वर्मा जरूर होतेकुछ उद्धरणों से इनके काव्य की गहराई की थाह ली जा सकती है। शायद ही कोई कवि हो, जिस की कविता में मां न हो। (मैंने तो कई बार अपनी मां को याद करते हुए भावुक भर नहीं अति भाबुक होते उन्हें देखा है।) धनंजय जी ने अपनी माँ के संघर्ष को भी देखा है और उनके साहस को भी। उनकी कविताओं में पिता का चेहरा साफ नजर नहीं आता, जब कि बस्तर का ख्याल आते ही अपनी माँ की हजार छवियाँ उनके मन-पटल पर तैर जाती हैं।


-" इन पहाड़ों, घने जंगलों और नदियों में लौटना


लौटना होता है. हमेशा माँ की गोद में।"


xxx


-"गोद भी तो नहीं रही


माँ की यह धरती


दूर-दूर तक तार तार हो गया है।


वह हरा-भरा आँचल


जाने कहाँ समा गई


उमगते वक्ष से पहाड़ों से


फूटती नदियों की वह दुग्ध-धवल धार।"


xxx


- "घर पहुंचकर


जंगल की क्यों याद आती है....!"


(नीम की टहनी पृष्ठ : 76:77)


xxx


-"इतनी भी जल्दी क्या थी जाने की माँ


जल्द लौटने का कहकर गईं


तो ऐसी गईं कि फिर लौटने का नाम तक नहीं।


याद नहीं आती क्या तुम्हें अपने उन दो बिरबों की


रोपा था तुमने जिन्हें अपनी गोद में- से


आंखों के जल से सींचा और पसीने की बूंदों से नहलाया


(नीम की टहनी : 94)


xxx


यहां वर्मा जी के कविता संग्रह की विवेचना करने का इरादा कतई नहीं हैबस, इतना भर यहां संकेत करना है कि उनके पास कितना गहरा भावुक मन और व्यापक कवि-दृष्टि रहीऔर यह अन्य कविताओं से भी सिद्ध किया जा सकता हैपर उन्होंने दूसरा रास्ता पकड़ लिया और इस रास्ते को लगभग छोड़ दिया। शायद उन्होंने मुक्तिबोध की ये काव्य पंक्तियां पढ़कर अपने कर्तव्य का बोध हुआ हो।


- "इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए


पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए


वह मेहतर मैं नहीं हो पाता


पर रोज कोई भीतर चिल्लाता है


कि कोई काम बुरा नहीं


बशर्ते कि आदमी खरा हो


फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता।"


(चाँद का मुँह टेढ़ा है: पृष्ठ 198-109)


Xxx


शर्त बस इतनी कि - "आदमी खरा हो।" फिर चाहे


- "मस्तिष्क के भीतर एक मस्तिष्क


उसके भी अंदर एक और कक्ष


कक्ष के भीतर


एक गुप्त प्रकोष्ठ और


कोठे के साँवले गुहान्धकार में मजबूत संदूक


भारी भरकम


और संदूक के भीतर कोई बंद है


यक्ष


या कि औरांग उटांग हाय।"


(वही पृष्ठ : 18)


xxx


हमारे भीतर हमेशा परेशान करने वाले सवाल उठते रहे हैं। सवालों की प्रकृति भिन्न रही पर हम सब उन सवालों से बराबर टकराये और हमारी पहचान बनी। हाँ, यह भी सच है, हम में से ही लोगों ने उन सवालों को अनसना भी किया। यों तो कविता भी न केवल सवाल खड़े करती है, बल्कि सवालों से अपनी जमीन तलाशती भी है। परन्तु वह कितनी ही यथार्थवादी क्यों न हो, इसकी भावुकता हमें मुद्दों से कभी कभी भटका भी देती है। तब एक ही रास्ता बचता है, मुद्दों से सीधे टकराना और नतीजा पाने की कोशिश करना। कइयों ने आरम्भ तो कविता-सृजन से ही किया बाद में वे सत्य की खोज में अलग-अलग रास्तों पर चल पडे। कविता को उन्होंने दसरों के लिए छोड दिया। डॉ. धनंजय वर्मा भी कभी कविता की रम्य वीथियों में थोडा जरूर रमे. पर उन्हें भी कभी लगा. बहत हआ यह कवि-कर्म । इससे कुछ भी हासिल नहीं होना और वे छान-बीन के रास्ते पर चल पडे। चल पड़े, नये जोश के साथ नई जमीन पर नए औजारों से उत्खनन के लिए। हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण कवि मुक्तिबोध को भी तो कभी इसी तरह चुनौती मिली थी।


-"ओ मेरे आदर्शवादी मन,


ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,


अब तक क्या किया?


जीवन क्या जिया!!


(चाँद का मुँह टेढ़ा है पृष्ठ-277)


xxx


यह सवाल किसी और से नहीं, खुद से पूछा जा रहा है-"गलत नहीं भी किया हो पर मुक्तिबोध अपने किये से संतुष्ट नहीं थे। उन्हें इसी सवाल में से एक अलग रास्ता दिखाई दिया। इस पर चलकर जो कुछ मिला उन्हें भी बेहतर की दरकार थीइसलिए उनकी भूमिका भी बदल गई। स्पष्ट हो जाता है वह क्या करना चाहते हैं इसी तरह उनकी भूमिका भी स्पष्ट हो जाती है। सफाईः हर स्तर पर सफाई । दुनिया की झाड़-पोंछ। इस अभियान में तोड़-फोड़ होगी, तभी उपलब्धि हासिल होगीनक्शा साफ होता जा रहा है। संकल्प दृढ़ हो रहे हैं।


"अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे


उठाने ही होंगे


तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब


पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार


तब ही देखने को मिलेंगी बांहें


जिस में प्रतिपल कांपता रहता


अरूण कमल एक


ले जाने उसको धंसना ही होगा


झील के हिम-शीथ सुनील जल में।"


(चांद का मुंह टेढ़ा है: पृष्ठ-299)


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यहां हमें डॉ. धनंजय वर्मा और मुक्तिबोध की तुलना नहीं करनी है। तुलना हो भी नहीं सकती किसी की किसी से। आशय बस इतना ही है कि हर सजग व्यक्ति कभी न कभी ऐसी आवाज सुनता जरूर है, कई सुनकर, अनुसुना कर देते हैं उनकी ऐसे बीहड़ों में घुसने की हिम्मत सब में नही होती। 'खतरे' उठाने को हर कोई तैयार नहीं होता। कइयों को लगता है, अकेले से यह काम संभव नहीं है इसलिए वे संगठन का हिस्सा हो जाते हैं। मालवी कहावत है 'दूर से डूंगर हमेशा रलियावने (रमणीय) लगते हैं' पर पास पहुंचने पर जन्नत की हकीकत सामने आ जाती है। इस 'हकीकत' से जब उनका सामना हआ तो मोह भंग भी हआ। यह दसरी तरह की टेजेडी।


अपनी सक्रियताओं में डॉ. वर्मा का दायरा कितना बड़ा और फैला बनाबिगड़ा, इसका प्रमाण-उज्जैन (म.प्र.) से प्रकाशित होने वाली पत्रिका - "समावर्तन" में उनके कॉलम "खतों से नुमायां हम दम" से जाना जा सकता है। इससे यह भी पता चलता है कि संबंधों का यह दायरा कितना बढ़ा, कैसे फला, कब तक निभा और कैसे उनके कई हमदम दुश्मन हो गए? वे भी सहयात्री थे हम ख्याल थे। पर अधिकांश की धनंजय जी से अपेक्षाएं रही। वे चाहते थे कि वर्मा जी उसी तरह रिश्ता निबाहें जैसा वे चाहते थे। जाहिर दोस्तों की मंशाएं उजागर हो गईं और पाठकों को भी इस कॉलम के माध्यम से बड़े-बड़े लोगों की नीयत का पता चला। आलोचना का काम यदि रचना को उसकी वाजिब जगह दिलाना है तो, लेखकोंसर्जकों पर पड़े महानता के आवरण को हटाना और वास्तविकता को सामने लाने का काम भी आलोचक का ही है। डॉ. धनंजय वर्मा की पहचान रचना और रचनाकार को सही जगह पर देखने और उन्हें सही जगह दिखाने के रूप में ज्यादा बनी है और जब-जब ऐसा हुआ, उनकी लानत-मलामत भी कम नहीं हुई।


सहिष्णुता और असहिष्णुता के मुद्दे पर आज सारा देश बंट गया है। सारी राजनीति अब इसी के आसपास हो गई है। सारी मर्यादाएं और राजनीतिक शिष्टाचार ओझल हो गए हैं। सभी राजनीतिक दल अपनी साख खो चुके हैं। मर्यादा रसातल में चली गई है। "फूट डालो और राज करो" का जिन्न बाहर आ गया है। इसी अ-नीति में सब को अपना भविष्य नजर आ रहा है। विवेक और जिम्मेदारी से सबने किनारा कर लिया है। यह मानने को कोई तैयार नहीं कि यह देश सबका है। मध्यकाल में राज्य जैसे बादशाहों की मिल्कियत हुआ करता था, आज इस प्रजातांत्रिक समय में हर नेता खुद को किसी बादशाह से कम नहीं समझता। संवाद के लिए जगह लगातार सिमटती जा रही है। कभी एक हिन्दू कवि ने कहा था "इन मुसलमान हरिजनन पै कोटिन हिन्दू वारिए।" यह कोई राजनीति से प्रेरित वक्तव्य नहीं था। सोचा जाना चाहिए कि आज इतने दिखावे क्यों बढ़ गए और विश्वसनीयता का दायरा क्यों कम हो गया। हममें यूं ऐसा समा गया कि अपने-अपने दड़बों-कुनबों में ही अपने को सुरक्षित मानने लगे। तिलक-छापे और टोपियां हमारे कवच-कुण्डल हो गएइक्कीसवी सदी में दाखिल हुए तो किस तंगदिली से हुए।


__ इसी देश में कभी अमीर खुसरो, कबीर, मलिक मोहम्मद जायसी, नानकमीरा, रैदास, रसखान, दादू जैसे कवियों की परम्परा रही। "हरि को भजै सो हरि का होई।" यह कम बड़ी क्रांति नहीं थी। राजरानी मीरा को रैदास को गुरू मानने में तनिक संकोच नहीं हुआ। यही हमारी उदारता और सभ्य होने का प्रमाण था। यही नहीं संगीत, चित्रकला, नाटक और अन्य कलारूपों में भी सबने योगदान किया और कलाओं को विश्व स्तर पर मान्यता दिलवाई। इन गुणियों के सामने देश, बिना किसी भेदभाव के झुका। यही हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति रही। पर जब स्वार्थ और महत्वाकांक्षाओं का जुनून सवार हुआ, देश टूट गया !


स्थितियां वैसी ही भयानक हैं। मज़हबी उन्माद में दुनिया तबाह हो रही है। ऐसे ही विषाक्त वातावरण में डॉ. धनंजय वर्मा ने उसी 'साझी विरासत' के कुछ सुनहरे पृष्ठ- "समावर्तन" में खोले हैं। यकीनन उन्होंने बतलाया कि इसी "संगम-स्नान" में सबकी मुक्ति है। रास्ता साफ है, पर हम अपनी-अपनी "गंगा-जमुनाओं" के लिए लड़ते रहे और इस सांस्कृतिक धारा को प्रदूषित करते रहे तो हमें बिखरने टूटने से कोई बचा नहीं पाएगा। यह विरासत केवल गर्व करने की चीज नहीं है। न ही तकरीरों का हिस्सा बनाने की। यही भारत की असली ताकत है। इसमें यकीन करने वालों की संख्या आज चाहे कम हो पर आगे बढ़ने का सही रास्ता यही विरासत हमें देखाएगी। इसी आईने में हमें अपना असली चेहरा नज़र आएगा और हम बचेंगे तो इस साझी विरासत की वजह से बचेंगे-


“क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।


सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा।"


उज्जैन रहते हुए धनंजय जी ने अपनी साझी विरासत पर जो परिश्रम और शोध किया, आपसदारी को मजबूत करने वाले तत्वों को जिस तरह सहेजा, अपनी संस्कृति संपदा को जिस तरह से पेश किया यह सब अचानक हो गया काम नहीं है। यह पहल जीवन को समझने में तो मदद करती है। जीवन जीने की तमीज और हौसला भी देती है। जैसे-जैसे स्थितियाँ विषम से विषमतर होती जाएँगी, विषाद बढ़ेगा, हमें इन सफों को पलटने की जरूरत ज्यादा महसूस होगी।


__ "समावर्तन" अब अपने सौवें अंक की तैयारी कर रहा है पर भविष्य में इसके विपुल जखीरे में भविष्य में जो नायाब चीजें बची रहनी हैं, उनमें, "साझीविरासत" के आलेख भी होंगे। किसी पत्रिका का महत्व इससे नहीं होता कि वह अपने समय को क्या दे रही है, बल्कि इससे होता है कि उसने भविष्य के लिए क्या संजोया?


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एक बार बातचीत के दौरान मैंने डॉ.धनंजय वर्मा से पूछा था- 'एक खास उम्र में व्यक्ति भविष्य के सपने देखता है-' अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर। 'उस उम्र में आपके सपने क्या थे? क्या आपके सपनों का भी कोई स्वर्ग था? क्या आप उसे जमीन पर उतार सके?' मैंने शायद गलत सवाल पूछ लिया था या गलत समय में सही सवाल पूछने की हिमाकत कर बैठा था। उनका उस समय अपने अतीत में उतरना बहुत पीड़ा दायक था। वापस लौटने पर भीतर जो गुबार जमा था फेफड़ों में जमा ढेर सी कार्बनडॉय ऑक्साइड, नाइट्रोजन और पता नहीं कौन-कौनसी गैसों का संपुजन बाहर आता रहा। (इनके बाहर निकलने पर उतनी ऑक्सीजन उनके फेफड़ों में पहुंची या नही, पता नहीं।) उस कंटकवन से वे बाहर आये तो उस अंतर्यात्रा की थकान को मेरी आँखें पढ़ गई। वे अपने को समेटकर खुले, तब भी कोई पीड़ा बराबर उन्हें घेरे रही। वे बोले।


-"प्रमोद भाई, खुदा के वास्ते, कृपया यह न समझें कि मैं हमदर्दी बटोरने के लिए कह रहा हूं, मैं तो महज अपने अहवाले वाकई बयान कर रहा हूं कि मेरी जिंदगी में सपने देखने की उम्र कभी आई ही नहीं। होश संभालते ही जिन कठिनकठोर और कड़वी सच्चाइयों का सामना करना पढ़ा, उन्होंने 'सपने' और 'स्वर्ग' की 'कल्पना' ही छीन ली।"


"आप एक ऐसे बच्चे का तसव्वुर कीजिए जिसे पिता का चेहरा तक याद नहीं है, जो अपने ननिहाल में पला-बढ़ा और जिसे शुरू से तिरस्कार और अपमान ही नहीं, प्रताड़ना और उत्पीड़न का शिकार भी होना पड़ा, उसकी क्या तो 'कल्पना' होगी और क्या होगा 'भविष्य' या उसका 'सपना'। इसीलिए गालिब का यह शेर मुझे इतना अपना लगता है:


- "आतिशे दोजख में यह गर्मी कहाँ


सोजे-गहमाए निहानी और है..."


(नरक की आग में भी वो ताप कहां जो मेरे अन्तरतम में निहित दुःखों के दाह में है।)


मैं अपने संक्षिप्त आत्मवृत्तांत- ‘धिक जीवन को, जो पाता ही आया विरोध' और बन्धुवर डॉ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य से हुई लम्बी बातचीत- 'हम भी क्या याद करेंगे कि खुदा रखते थे मैं अपने जीवन की परिस्थतियों का जिक्र विस्तार से कर चुका हूं। उन्हें दोहराने की अब न तो हिम्मत है न ही जरूरत । प्रसंगवश याद आया। कविवर हरिनारायण व्यास ने एकबार कहा था कि मैं अपनी आत्म कथा लिखें । मैंने उनसे कहा था- 'जो और जैसी जिन्दगी मैं जी चुका हूं, उसे फिर से जी सकने की अब न तो मुझमें शक्ति है और न साहस। मीर का एक शेर याद आता है:


-हम गिरफ्तार-ए-हाल हैं अपने/ताइर-ए-पर बुरीदा के मानिन्द


(हम अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों में इस तरह बंदी रहे हैं कि जैसे कोई पर कटा परिन्दा छटपटाता तो है, लेकिन उड़कर उनसे मुक्त भी नहीं हो सकता।)


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डॉ. धनंजय वर्मा को कभी 'करपात्री' कहा गया। पर उनकी रीढ़ की हड्डी में कभी खम नहीं आया । कोई ताकत या प्रलोभन उन्हें झुका नहीं सका। उनके करपात्र में आई हर उपलब्धि अगली उपलब्धि के आगे बौनी होती गई और यह इतना विशाल होता चला गया कि कइयों को रश्क होने लगा और वे सारी उपलब्धियां किसी से उन्हें 'दान' में नही मिलीं। जूझना इनका स्वभाव हो गया चाहें परिस्थितियों से हो या खुदा से....


"-खुदी को कर बुलंद इतना, कि हर ख्वाहिश के पहले


खुदा बन्दे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।"


उस अकेले शुक्र तारे का जिसका जिक्र मैं आरम्भ में कर चुका हूँ, को अपना अकेलापन नहीं सुहाया। अब आकाश धीर-धीरे तारों से सजने लगा था। ढलती शाम की लालिमा भी सिमट रही थी, पर सफर अभी भी जारी है। "थके पांव लेकिन बहुत दूर जाना..


- घर, कितना पुरसुकून ख्याल है। सूरज भी अपने घर अब लौट गया। कविता-सा नहीं लगता है यह ख्याल? सूरज को कहां नसीब उनका घर । वह तो अनादि काल से अपनी जगह खड़ा है। धरती घूम रही है। अपनी जगह स्थिर सूरज हमारी आंखों से ओझल हो गया है। धनंजय जी कह रहे- "तुम से तो ज्यादा सफर मैंने तय किया। अब और कितना?" "यही तो हमें पता नहीं न? यह भी नहीं जानते किसका सफर पहले पूरा होना है।....जितनी भी निभी, अच्छी ही निभी। भोपाल में तो अपना पूरा राज-पाट था, देखिए, जो करीब थे, अब उनकी निकटता प्रतीकात्मक रह गई और एक अनाम-सा नक्षत्र (?) करीब आ गया!" -"अनाम? कौन अनाम? दूरी थी पर अनाम तो तब भी नहीं थे हम एक दूसरे के लिए । हां, अब कुछ ज्यादा जानने लगे हैं। नहीं?""क्या पहले नहीं जानते थे? बातों के सिलसिले शुरू होते तो थमने का नाम नहीं लेते थे! हम भी कहां से कहां पहुंच जाते थे। साथ-साथ थे और किसी को पहुंचने की जल्दी नहीं थी। तारे आकाश में चमक रहे थे और जुगनू हमारे आसपास। कभी-कभी बेतकल्लुफ हो हम अपने पन्ने खोलते तो कभी इतिहास और उसके दबाव में आदमी की हरकतों हसरतो से रू-ब-रू होते। कभी-कभी उलझ भी जाते पर हमने गांठ नहीं पड़ने दी। इतना साथ-साथ चलते हुए दोनों को एक बात समझ में आ गई थी- वह यह कि हम दोनों ही मूल रूप से मास्टर हैं। यही हम कर सकते थे । कुछ महिनों के लिए मुझे जरूर प्राचार्य की कुर्सी पर बैठना पड़ा पर उसका चरित्र नहीं आया। धनंजय जी को बड़ी कुर्सी पर बैठना पड़ा पर हम दोनों को खड़े होकर पढ़ाने की आदत रही। और आदतें बदलती नहीं हैं। मैंने कहा -


"अच्छा तो आज के आनन्द की जय।"


वे चौंके- 'आनन्द? कहाँ- कैसा आनन्द ? फिर मेरा आशय समझ कर उन्होंने दोहराया- "हॉ भाई, आज के आनन्द की जय।"


*


आदतन मैने उन्हें कविता में ही देखा


और वह मुझे ऐसी नदी लगे


जिसे मैं जब चाहे अपनी ओक में ले सकता हूं


तब भी नदी, छोटी नहीं होती


मेरी ओक मेरी उम्मीद से बड़ी हो जाती है !


कल मैंने उन्हें नदी-सा पाया था


वही आज मुझे कंदील लगे!


अन्धेरे और अकेलेपन में


मेरा हौसला बढ़ाती


रौशन कंदील।


अन्धेरे को मात देता उजाला


कल जब फैलेगा


कन्दील यह, अपने पास ही रखूगा


क्योंकि रौशनी ही कल भी अन्धेरा पार करवाएगी।


वह मुझसे बोले- “यार!


तुम न मिलते तो खुलते ही नहीं इतने ताले


अनखुले!


और मैं अपनी छायाओं से टकराता रहता ।


उनके साथ हो कर आज मैंने जाना


पत्थर से पत्थर टकराने से हमेशा आग ही पैदा नहीं होती


कई बार उसमें छुपी रागमाला


औचक प्रकट हो कर चमत्कृत कर देती है


आज उन्होंने मुझे चौंकाते हुए कहा


तुम कुछ ज्यादा ही कवि हो


और कुछ भी ज्यादा होना खतरनाक होता है।"


मैं सोच रहा-


इतना हिसाबी-किताबी होना भी तो ठीक नहीं।


मेरे अग्रज कह चुके हैं काफी पहले


"अभिव्यक्ति के सारे खतरे


उठाने ही होंगे...