प्रभाकर श्रोत्रिय : समय में विचार का साधक

आलेख


रमेश दवे


प्रतिभाएं संघर्ष के अग्निपथ पर चलकर, समय में विचार की साधना करते हुए जब अनंत में विलीन होकर स्मृति-शेष हो जाती हैं तो इतिहास हो जाती हैं। जीवन के इस विषम भूगोल के सीमान्तों से टकरा-टकरा कर ही वे अनन्त की कालयात्रा करती हैं। प्रभाकर श्रोत्रिय हिन्दी साहित्य की एक ऐसी ही प्रतिभा के रूप में स्थापित हुए, जाने, पहचाने और समझे गए। 15 सितंबर, 2016 अनन्त चतुर्दशी की संध्या में एक ओर गणेश विसर्जन हो रहा था, दूसरी ओर प्रभाकर श्रोत्रिय अपनी सुदीर्घ बीमारी के बाद अपनी हर श्वास काल देवता को समर्पित कर रहे थे।


प्रभाकर जी ने जो जीवन जिया वह अनेक प्रतिभाओं को भविष्य के लिए आलोक बनकर प्रेरणा देता रहेगा। मध्यप्रदेश के रतलाम जिले के नवाबी नगर जावरा में जन्मे प्रभाकर को अपने संस्कृत-आचार्य पिता से जो सांस्कृतिक अवदान मिला था, उसी सांस्कृतिक मनोभूमि पर कायम रहकर उन्होंने जो समालोचना, नाटक एवं वैचारिक रचनाएं लिखीं, वे उनके प्रगाढ़ चिन्तन और अनथक परिश्रम का उत्कृष्ट प्रमाण बनीं। अतीत उनके लिए व्यतीत नहीं था, बल्कि अतीत में पूर्वज पीढ़ी के अवदान का उन्होंने जब लेखन किया तो लगा एक समालोचक की तीसरी आंख कबीर, तलसी, सर, मीरा, मैथिलीशरण गप्त, प्रसाद, पंत, निराला, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, वीरेन्द्रकुमार जैन से लेकर हमारे समय के सर्जकों, कवियों, कथाकारों, नाटककारों को किस प्रकार जांचती परखती है और कितने तटस्थ एवं निरपेक्ष-भाव से उनके रचना-संसार का उद्घाटन करती है।


प्रभाकर श्रोत्रिय ने अपने सर्जनात्मक जीवन-काल में लगभग पचहत्तर पुस्तकों की मौलिक रचना की। वे सतत और सदैव अपने को नवीन करते रहे और यही कारण है कि वे समय में विचार की हर आहट सुन सके, फिर चाहे वह साहित्य रचना की राग ध्वनि हो या विज्ञान के कम्प्यूटर-लोक से निःसृत रोशनीमयी वाणीकविता की तीसरी आंख, संवाद, कालयात्री है कविता, रचना एक यातना है, जयशंकर प्रसाद की प्रासंगिकता से लेकर कवि-परम्परा अर्थात तुलसी से त्रिलोचन तक यदि उनके आलोचनात्मक लेखन की प्रखर एवं प्रमाण-पुष्ट कृतियां हैं तो सर्जना का अग्निपथ, प्रजा का अमूर्तन, समय में विचार, सौंदर्य का तात्पर्य जैसी अनेक कृतियां उनका समय में विचार से सीधा साक्षात्कार है। इला, फिर से जहांपनाह, और सांच कहूं तो, ये उनके तीन नाटक हैं जो सफलतापूर्वक मंचित हुए और इला तो अपने समय में ही क्लासिक होकर भारत की अनेक भाषाओं में अनुदित होकर मंचित भी हुआ और पढ़ा भी गया।


श्रोत्रिय का सर्वोत्कृष्ट अवदान तो उनके संपादन में है। अक्षरा, साक्षात्कार, पूर्वग्रह, वागर्थ, नया ज्ञानोदय और समकालीन भारतीय साहित्य जैसी पत्रिकाओं का जिस श्रम-निष्ठा और निर्भावुक वस्तुनिष्ठता से उन्होंने संपादन किया उससे वे साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादन के शिखर पुरुष बन गए। उन्हें अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले और अपने अंतिम दो ग्रंथ 'शाश्वतोयं' एवं 'भारत में महाभारत' से उन्होंने हिन्दी साहित्य की सांस्कृतिक रागभूमि का ऋण-शोध किया।


प्रभाकर श्रोत्रिय जिस संघर्ष के अग्निपथ की यात्रा करते हुए साहित्य सर्जना के शिखर पर पहुंचे वह उनके अकेले का श्रम और समर्पण था। मित्रों और छद्ममित्रों ने तो उन्हें कभी वामपंथ के पंथ पर पटका तो कभी भाजपा का केसरिया दुपट्टा उड़ाने की कोशिश की। उनका स्वयं उनकी तरह किसी साहित्यकार या संपादक ने तटस्थ, गुणवत्ता आधारित और दल-निरपेक्ष मूल्यांकन नहीं किया। ईर्ष्या और शिकायतों के कंकड़-पत्थर उन पर उछाले गए लेकिन जो लोग सत्ता-केंद्र में रहे और उनके आसपास उनके नकली प्रशंसक रहे, उन लोगों ने सत्तातंत्र से प्रभावितहोकर श्रोत्रिय की सदा उपेक्षा कीयहां तक कि जब वे मध्यप्रदेश में साहित्य परिषद के पहली बार सचिव बने तो लोगों ने उनपर भाजपाई स्टेम्प लगा कर उनसे बातचीत तक बन्द कर दी थी लेकिन श्रोत्रिय ने अपने दो-दो सचिव कार्यकाल में जो कार्यक्रम किए, जो संपादन किया और प्राध्यापक के रूप में जो समालोचनाएं लिखीं, नाटक लिखे उनसे वे देशभर के अग्रणी रचनाकार की भूमिका में आ गए, भले ही मध्य प्रदेश के ईर्ष्यालु साहित्यिक समाज ने उन्हें न स्वीकारा हो। श्रोत्रिय की यह भी विडंबना रही कि उनकी उपस्थिति में सामुख्य होने पर तो हर किसी ने उन पर प्रशंसा-पुष्प बरसाये लेकिन छद्म रूप से वे उनके विरुद्ध बोलते रहे और उन्हें मीडियाकर मानते रहे। जिन लेखकों को उन्होंने छापा, उनके लिए श्रोत्रिय श्रेष्ठ हो गए और जिनकी रचनाएं उन्होंने आमंत्रित नहीं की या गुणवत्ता के अभाव में नहीं छापी, उनके लिए वे अमित्र हो गए।


श्रोत्रिय को देशव्यापी सम्मान और लोकप्रियता मिली क्योंकि उन्होंने अपने हर संपादन-काल में नए लेखकों, युवा-प्रतिभाओं की खोज की, उन्हें छापकर उन्हें प्रेरित किया। श्रोत्रिय के कठोर संपादकीय निर्णयों से अनेक वरिष्ठ-कनिष्ठ लेखक उनसे क्षुब्ध हुए लेकिन श्रोत्रिय रचना का उसके स्तर के आधार पर ही चयन करते रहे। उनके अनेक निबंध-आलोचकों ने उनके उत्कर्ष को विचारधाराओं की कट्टर पोशाक पहनाने की कोशिश तो की, मगर श्रोत्रिय आलोचकों के प्रति भी उदार बने रहे। उनकी 'संवाद' पुस्तक के लेखों से अज्ञेय, धर्मवीर भारती और कुछ अन्य लेखक अपने मूल्यांकन से असहमत हुए, कुछ नाराज भी हुए मगर बाद में उन्हें श्रोत्रिय की तटस्थता और वस्तुनिष्ठता के प्रति कोई शिकायत नहीं रही। लोगों ने श्रोत्रिय के अंदर के मनुष्य में कभी नहीं आंका। उन्होंने 13-14 वर्ष की उम्र में पिता को खोकर, अपनी मां का जो संघर्ष देखा, जो दर्द देखा, उससे उनके मन में जो कोमलता पैदा हुई, उसी ने उनके सृजन और आलोचना दोनों को जनोन्मुखी बनाया और साथ ही अपने सांस्कृतिक धरातल के प्रति संवेदित भी किया। आंसू पीपीकर, समय के यातना-शिविर में जी जीकर भी श्रोत्रिय ने स्वाभिमान का आत्मसमर्पण नहीं किया। यह बात अलग है कि उनकी विनम्रता, व्यक्तित्व और सहज-संबंध बनाने के कारण लोगों ने उनका सही आंकलन नहीं किया।


हिन्दी का साहित्यकार समाज अत्यन्त संकीर्ण, अनुदार एवं अनेक प्रकार की वैचारिक कट्टरताओं से ग्रस्त समाज है। वह किसी का भी उत्कर्ष बरदाश्त नहीं करता बल्कि उसके विरुद्ध आरोपों की खोज करता रहता है। श्रोत्रिय इसलिए बड़े बने कि उन्होंने सबके प्रति बड़प्पन दिखाया। वे आज हमारे बीच नहीं हैं। अनंत चतुर्दशी की रात्रि में वे अनंत यात्रा पर चले गए और गंगाराम अस्पताल में अंतिम श्वास लेकर गंगातट पर हरिद्वार में विसर्जित हो गए लेकिन उनकी स्मृति की शब्दगंगा सदैव प्रवाहित होती रहेगी और हिन्दी जब भी बीसवीं इक्कीसवीं सदी के इतिहास की रचना करेगी श्रोत्रिय उस इतिहास का एक महत्वपूर्ण पृष्ठ होंगे। इन शब्दों के साथ साहित्य जगत की ओर से उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि।