प्रभाकर श्रोत्रिय की आरिवरी किताब

आलेख


बलराम 


आलोचक-सर्जक प्रभाकर श्रोत्रिय ने मीडियाकर्मी कथाकार मनोहरश्याम जोशी के असामयिक निधन पर उनके बारे में जो लिखा, एकदम सही लिखा था: "वे (मनोहरश्याम जोशी) बोर्खेज (स्पैनिश कथाकार) के किसी पात्र की तरह अदृश्य हो गए। पहले तो यही समझ में न आया कि यह यथार्थ है या वायवी यथार्थ । जब तक समझ में आया, वे गंगा में नहाकर यमुना में बिखर चुके थे। वे सिर से पांव तक मनोहर थे, श्याम की तरह नटखट, चुटीले-चुटकी-ले, जोशी-ले अलग से, हरदम किसी विचार से दमकते। विडंबना और छल-छद्म भरी दुनिया के बीचोबीच अपनी तर्जनी पर सुदर्शन चक्र घुमाते। पता नहीं, उससे कभी कोई मरा भी या यों ही वह उनकी मुद्रा भर थी, लेकिन उनकी उस मुद्रा से चमका हर कोई। मनोहर श्याम-यथा नाम तथा गुण । मनोहर और श्याम । एक साथ।


"हद है कि धर्म-कर्म, पूजा-पाठ, श्राद्ध-व्रत से गुरेज नहीं, कुछ हद तक आस्थावान कहें तो हर्ज नहीं, क्योंकि हद से ज्यादा इसलिए नहीं कहते बनता कि लेखन में सामिष, किसी हद तक पांडेयबेचन शर्मा 'उग्र' की जात के घामड़ और धाकड़ 'हमजाद' और 'हरिया हरक्यूलीस...' के सर्जक और इश्क के बिल्कुल पेज थ्री फार्मूले की गांठ खोलने में माहिर आध्यात्मिक आत्मिक-अदैहिक जैसा कोई फर्जी प्रेम नहीं। दिमाग चकरा देने वाली विविधता। आधुनिक 'मॉल' मॉल' की तरह यथार्थवादी. अति जनक, विखंडनवाद आविष्कृत करते हरिया तक, सब दुकानें कि 'मॉल' की तरह की जाए तो लगेगा तो बेतुका, मगर साहब, जोशी जी इतने यथार्थवादी. अति आधनिक. हिंदी में सोप ऑपेरा से उत्तर आधनिक रचनाओं तक के जनक, विखंडनवाद के साथ 'बैठी होली' जैसा अभिनव विखंडनवाद दिल्ली में आविष्कृत करते ठहरे। किस विधा, किस फन में माहिर नहीं? राष्ट्रपति से लेकर हरिया तक, सब उनकी दुकान में और हां, हजारीप्रसाद द्विवेदी भी। भाषाओं की इतनी दुकानें कि जो चाहें, जहां से उठा लें।


"पिछले पचास बरस में हिंदी ने प्रतिभा का ऐसा अजबा नहीं देखा. अर्से तक लगता रहा कि 'प्रज्ञा' की यह 'प्रतिभा' वाली पारंपरिक सूक्ति विफल है-'प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा' यहां तो ऐसा है कि अगर गलती से भी कहीं से कुछ नया आ जाता है तो उसके नवोन्मेष की बात तो छोड़ दें, लोग उसका ही घोंटघोंटकर कचूमर बनाते रहते हैं। नए विचार और जमाने भर की लप्प-गप्प तो ठीक है, भीतर कोई चीज रचे, तब तो रचना में बसे । मनोहरश्याम जोशी ऐसे आत्म मग्न नहीं रहते थे। चीजों को पचाते और फिर हिम्मत से उसे रचते थे। शायद इसीलिए तमाम गिरोहबंदियों के बावजूद हिंदी साहित्य में मनोहरश्याम जोशी देर तक बने रहेंगे।


"हिंदी का जातीय चरित्र है कि जो जिन्दा है, उसमें हजार खोट, बल्कि 'नारकीय' और जो चल बसा, वह निश्चित ही 'स्वर्गीय'। लोग कल तक तो हर मान-सम्मान, आलोचना-समालोचना, पुरस्कार-पद में टांग अड़ाते रहे और 73 साल की उम्र तक साहित्य अकादेमी पुरस्कार को घसीटकर आगे ले जाते रहे। बाद में कहने लगे कि वे महान, अप्रतिम, विलक्षण, घिसे-पिटे यथार्थ को मटियामेट कर हिंदी साहित्य में नई हवा लाने वाले लेखक रहे। विडम्बना के लेखक के साथ विडम्बना देखिए कि 73 की उम्र में उन्हें 37 साल का समझ कर साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया गया, लेकिन इसके लायक तो वे न जाने कब के हो चुके थे।


___ "बहरहाल, जो है, सो है, जितने नए थे, थे जितनी तरह के कौतुक और विडंबनाएं लिखते थे, खुद उससे कम खुदा नहीं थे। जितने अच्छे थे जितने स्वीकार्य थे, थे जितने अस्वीकार्य थे, थे जीवित मनोहरश्याम जोशी के साथ जो अव्याप्ति की गयी, वह अगर दिवंगत जोशी की अतिव्याप्ति में बदलेगी तो वे खुद खिल्ली उड़ाने के लिए आ धमकेंगे और पूछेगे, "आपकी सेहत तो ठीक है न बौज्यू?"


___ "मनोहरश्याम जोशी की लैंड लाइन कट गई, मगर मोबाइल चालू रहेगा। वे इलेक्ट्रॉनिक कानों से सुनते रहेंगे और जादुई आंखों से चित्र भी उतारते रहेंगे। अतियों से परे जब उनकी प्रतिभा के अवदान का ईमानदार मूल्यांकन होगा तो शाबासी देते हुए कहेंगे, "चलो, अब तो तुम्हें अकल आयी?"


आप मुस्करा रहे हैं न जोशी जी, हमारा प्रणाम लें।"


प्रभाकर श्रोत्रिय ने यह प्रणाम साहित्य अकादेमी पुरस्कार घोषित होने के तत्काल बाद गुजर गए मनोहरश्याम जोशी के लिए लिखा था। विडंबना के सर्जक को ऐसी श्रद्धांजलि अर्पित करने वाले प्रभाकर श्रोत्रिय के जीवन की भी विडंबना देखेंगे तो तकलीफ होगीजोशी जी से भी बड़ी त्रासदी में फंसे वे। जैसे जोशी जी बहुत पहले साहित्य अकादेमी पुरस्कार पाने लायक हो गए थे, वैसे ही प्रभाकर श्रोत्रिय भी, बल्कि उनके लिए तो उनसे भी ज्यादा अवसर बनते थे। उन्हें संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार भी मिल सकता था, मोहन राकेश की तरह। दोनों अकादमियों के पुरस्कारों के लिए उनका नाम बार-बार आया, लेकिन एक भी उन्हें मिला नहीं।


जिस वर्ष नासिरा शर्मा के उपन्यास 'पारिजात' को साहित्य अकादेमी मिला, जूरी ने प्रभाकर श्रोत्रिय और रमेशकुंतल मेघ के नामों पर भी विचार था। मेघ को तो अगले वर्ष मिल गया, लेकिन प्रभाकर श्रोत्रिय चले गए, बिना बिना पाए। उन्हें वह मिल सकता था, बशर्ते जिंदा रहते और 'समकालीन भारतीय साहित्य' का संपादन छोड़ देते । अस्पताल से हुई फोन वार्ता में उन्होंने ऐसा इरादा जाहिर किया भी था। चाहते थे कि उनकी खाली जगह खाकसार भरे, पर लोकायत' गले पड़े रहने से उनकी वह चाह उन्हीं के साथ चली गयी। रणजीत साहा और ब्रजेंद्र त्रिपाठी ने खाली की हुई उनकी जगह को देर तक अच्छी तरह भरा।


सब मनोहरश्याम जोशी की तरह भाग्यशाली नहीं होते। वे साहित्य अकादेमी पुरस्कार लेकर गए और प्रभाकर श्रोत्रिय यह संतोष लेकर कि उस पुरस्कार के लायक वे समझे तो गए आखिर! ऐसा ही 68 बरस के कामतानाथ के साथ हुआ, जब 38 बरस की अलका सरावगी का अपेक्षाकृत क्षीणकाय 'कलि काल' उनके महाकाय 'काल कथा' पर भारी करार देकर पुरस्कृत कर दिया गया और 'मेले में अकेले' पड़ गए रमेशचंद शाह को उदय प्रकाश के 'मोहनदास' से अशोक वाजपेयी की ताकत पाकर मात खानी पड़ी। कुछ बरस बाद शाह भी शहंशाह हो गए, रमेशकुंतल मेघ की तरह, लेकिन प्रभाकर श्रोत्रिय उस प्रभा से वंचित रहते रहे और चले गए।


_ 'भारत में महाभारत' के लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ का 'मूर्तिदेवी पुरस्कार', बिड़ला फाउंडेशन का 'व्यास सम्मान' और उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का हिंदी गौरव सम्मान' तक सब मिल सकते थे। वे इन सभी पुरस्कारों-सम्मानों के लायक थे, सुपात्र, लेकिन भरपूर मेधा और अकूत सृजन के बावजूद उन्हें कुछ मिल नहीं सका!


प्रभाकर श्रोत्रिय ने भारतीय ज्ञानपीठ वाले दिनों में अपनी किताब 'कथा का सौंदर्य शास्त्र' की रूपरेखा बनाने के लिए एक दिन साउथ दिल्ली वाले अपने घर खाने पर आमंत्रित कर लिया। मूल रूप से कविता के आलोचक होने के नाते कथा आलोचना की अपनी इस किताब के प्रकाशन को लेकर वे कभी बहुत उत्सुक नहीं दिखे। वह तो बार-बार के मेरे आग्रह का मान रखने के लिए कथा साहित्य पर लिखेअपने आलेख उस दिन अलग फाइल में रख लिये, लेकिन किताब को प्रकाशन के लिए देना लगातार टालते रहे, क्योंकि वैसे दो-चार और लेख उन्होंने लिखे थे, जो कहीं छपे भी थे, पर छपे-अनछपे किसी भी रूप में उन्हें मिल नहीं पा रहे थे। चालीस बरस के विभिन्न कालखंडों में तात्कालिकता के दबाव में लिखे गए लेखों को पुस्तक रूप देने से पहले उन्हें अच्छी तरह संपादित कर अपडेट कर देना चाहते थे। पहले भारतीय ज्ञानपीठ और फिर साहित्य अकादेमी में संपादन की दुस्सह जिम्मेदारियां संभालते हुए उन्हें न तो अनुपलब्ध को उपलब्ध करने का अवकाश मिल सका, न ही पांडुलिपि को संपादित और अपडेट करने का। और फिर असाध्य बीमारी ने उनसे काम करने की शक्तियां ही छीन लीं। सो, उनके जीते जी यह किताब छपने से रह ही गयी, हमारे आग्रह की निरंतरता के बावजूद। नीरज मित्तल इस किताब को छापने के लिए उत्सुक थे। वे भी बार-बार आग्रह कर उन्हें परेशान करने लगे। तब शायद पीछा छुड़ाने के लिए उन्होंने उन्हें कुछ और दे दिया, हृदयेश की उपन्यास त्रयी 'तिक्की' की कड़ी में अपनी नाटक त्रयी। उसे प्रभाकर श्रोत्रिय के 'तीन नाटक' के रूप में छापकर नीरज तो संतुष्ट हो गए, लेकिन हमें असंतुष्ट छोड़कर श्रोत्रिय जी चले गए।


प्रभाकर श्रोत्रिय जब तक भोपाल रहे, वहां हमारा दिल बसता रहा। मनीषराय के समय भी हमारा दिल वहां रहता रहा, लेकिन उस शहर में आत्महत्या कर मनीष ने हमारे दिल के उस शहर को ध्वस्त कर दिया। फिर अरुण तिवारी, संतोष चौबे और उर्मिला शिरीष ने हमारे दिल के लिए भोपाल को नए सिरे से आबाद किया तो आना-जाना फिर शुरू हुआ, अन्यथा सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी, सूर्यकांत नागर, राकेश शर्मा, सतीश राठी और चरणसिंह अमी के इंदौर ने हमें भोपाल की कमी कभी खलने नहीं दी। इंदौर में तो हमारा दिल न जाने कब से बस रहा है. शायद सन 1984 से, जब सतीश दुबे और विक्रम सोनी ने देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के एक सेमिनार में इंदौर बुलवाया था। राजकुमार गौतम भी साथ थे। तभी सतीश राठी ने हम दोनों से लघुकथा पर एक अच्छी-सी वार्ता रेकॉर्ड कर 'क्षितिज' में छापी थी


भोपाल में साहित्यिक पत्रकारिता पर हुए सेमिनार में एक सत्र की अध्यक्षता के लिए संतोष चौबे ने बुलाया था। 'जनसत्ता' के ओम थानवी और 'कथादेश' के हरिनारायण पहुंचे थे। सेमीनार के अगले दिन 'प्रेरणा' के संपादक अरुण तिवारी ने कथेतर गद्य की किताब 'माफ करना यार' पर दुष्यंत संग्रहालय में विचार गोष्ठी रखकर मेरे नए सफर को यादगार बना दिया था। किताब का यह नाम भोपाल की यादों से ही जुड़ा है, जब शानी ने मध्य प्रदेश साहित्य परिषद में एक नए लेखक के रूप में हमें शहर के प्रमुख लेखकों से मिलवाने के लिए आनन-फानन में हाई टी का आयोजन ही नहीं कर डाला था, 'साक्षात्कार' के अगले अंक में 'अनचाहे सफर' छापने की घोषणा कर मान भी बढ़ा दिया, लेकिन उन्हीं शानी ने दिल्ली में साहित्यअकादेमी में रहते हुए ऐसी गुस्ताखियां कर डालीं, जिनकी सच्चाई जानने के बाद उन्हें कहना पडा-'माफ करना यार'। वैसी ही एक और गलती होने पर उन्होंने शर्मिंदा होते हुए दोबारा कहा था, 'एक बार फिर, माफ करना यार'। शायद इसीलिए चाहता रहा कि भोपाल हमेशा मेरे दिल का शहर बनकर रहे, लेकिन दिल्ली से जब भी भोपाल पहुंचता हूं तो श्रोत्रिय जी की यादें पीछा करने लगती हैं। 'माफकरना यार' पर हुई गोष्ठी में संतोष चौबे, मुकेश वर्मा, सुधीर सक्सेना, बलराम गुमाश्ता और महेश आदि ने सराहना का प्रसाद देकर विदा किया था।


ठीक से याद नहीं, लेकिन वह शायद उन्नीस सौ चौरासी का 15 नवंबर थाजब न्यू मार्केट के होटल से प्रभाकर श्रोत्रिय को मिलने के लिए फोन किया। जाने किस प्रेरणा के वशीभूत फोन वार्ता में ही बोल गए, “सामान पैक कीजिए। होटल पहुंच रहा हूं।"


समझ में नहीं आया कि सामान पैक करने की बात क्यों कह रहे हैं। आधे घंटे बाद स्कूटर पर होटल आए और सामान समेट अपने घर 'उठा ले गए। अगले दिन जब दिल्ली के लिए चले तो रेलवे स्टेशन पर विदा करते हुए बोले, “अब से जब कभी भोपाल आइए तो होटल में ठहरने की बात सोचिएगा भी नहीं।" ऐसा कहते उनके चेहरे पर मचलती उस मृदुल मुस्कान की स्मृति अब भी दिल में हलचल मचा देती है। वे सचमुच वैष्णव मानुष थे, एकदम देव स्वरूप। ऐसी निश्छल और मृदुल हंसी के साथ रूप-सुरूप के मामले में उनके साथ सिर्फ और सिर्फ अज्ञेय को रख पाते हैं। जब तक श्रोत्रिय जी भोपाल रहे, दसियों बार वहां जाना हुआ और उनका आशियाना हमारा शरण्य हो जाता रहा। ज्योति जी ने कभी महसूस नहीं होने दिया कि मेरे आने से उन्हें किंचित असुविधा हुई, जबकि भोपाल का उनका सरकारी आवास छोटा ही था, लेकिन श्रोत्रिय दंपत्ति का दिल बहुत बड़ा था, जिसमें हमारे जैसे अनेक लोग आराम से बसे रहते रहे। भोपाल पहंचने पर ज्योति जी हमेशा एक से बढिया एक सुस्वादु भोजन परोसती, लेकिन भोजन से भी ज्यादा दिल को छूता था हमेशा मुस्कराता रहने वाला उनका सौम्य और सुंदर चेहरा।


अशोक वाजपेयी के 'संस्कृति पुरुष' बनने का घनघोर काल था वह, जब हम एक बार सोमदत्त से मिलने मध्यप्रदेश साहित्य परिषद गए। 'साक्षात्कार' में उन्होंने 'कारा' का एक लंबा अंश छापा और उसी के कारण सागर में हुए उपन्यासकार सम्मेलन में आमंत्रित कर लिया था, जबकि जाने में हमें हिचक हो रही थी, क्योंकि तब तक हमारा एक भी उपन्यास छपा नहीं था, लेकिन उन्होंने साधिकार कहा था कि 'कारा' का यह अंश ही तुम्हें उस समारोह में आने के लिए सुपात्र सिद्ध कर रहा है, जो तमाम सिद्ध उपन्यासकारों पर भारी पड़ेगा। सो, सोमदत्त से भी दिल का रिश्ता गठ गया था। वे भी सच्चे और अच्छे मानुष थे, एकदम खांटी और देसी। बातव्यवहार में कोई बनावट नहीं, दिखावा भी नहीं। दो-तीन घंटे की बैठकी के बाद जब चलने लगे तो उन्होंने ठहरने की जगह पछी। मैंने बेहिचक बता दिया, "श्रोत्रिय जी का आशियाना भोपाल आने पर मेरा शरण्य होता है।"


उन्हें मालूम था कि कानपुर में कामतानाथ के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ा रहा था। सो, विस्मय से उठकर जहां की तहां ठहरी पलकों वाली आंखों से घूरते हुए किंचित संकोच में पड़ गए, पर जल्दी ही खुद को संयत करते हुए बोले, "चलो, फिर उनके घर ही चलते हैं।"


हमें लेकर सोमदत्त अपनी जीप में प्रभाकर श्रोत्रिय के घर आए तो बैठक में देर तक गपशप होती रही। चाय-पान के बाद जब सोमदत्त चले गए तो विस्मय में डूबी खुशी का इजहार करते हुए श्रोत्रिय जी बोले, “सोमदत्त पहली बार मेरे घर आए। यह तुम्हारा ही प्रताप है साहब, अन्यथा भोपाल के प्रगतिशील लेखक तो मुझसे दूरी बनाकर रखते ही हैं, अशोक वाजपेयी के डर से सरकारी लेखक भी सब मेरे घर आने और मुझसे किसी भी रूप में जुड़े होने का खतरा मोल नहीं लेते, लेकिन कमाल है साहब, मान गए आपको।"


"इसमें ऐसा क्या है भाई साहब, बेवजह इसे इतना महत्व दे रहे हैं।"
"नहीं साहब, ऐसा बेवजह नहीं कह रहा। आप न तो किसी विचारधारा से आतंकित रहते हैं, न ही किसी बली-महाबली से, ऐसा हमने मित्रों से सुना था, लेकिन आज सोमदत्त के यहां आने और बेखौफ इतनी देर रुककर चाय पीने में उसे प्रत्यक्ष देख भी लिया। बरसों से भोपाल में होने के बावजूद उन्होंने हमसे कभी बात तक नहीं, लेकिन आपकी वजह से मेरे घर आकर इतनी देर रुके रहने की हिम्मत कर बैठे।"


इस घटना के बाद प्रभाकर श्रोत्रिय से आत्मीयता और भी गहरा गई, जो ज्यादातर लोगों की समझ में कभी आयी नहीं, लेकिन प्रभाकर श्रोत्रिय थे ही ऐसे लेखक-आलोचक, जिन्होंने वाम और दक्षिण, दोनों को अपने दो हाथों की तरह लिया। उनके पास कलावाद और प्रगतिशीलता, दोनों के लिए गुंजायश थी, पर दल-बल वाले लोग उनकी इस सदाशयता को कभी समझ ही नहीं सके। कोई भी सच्चा और अच्छा सर्जक विचारधारा की बेड़ियों को कभी मंजूर नहीं करता, न सच्चा लेखक इस मुगालते में जीता है कि विचारधारा उसे बड़ा लेखक सिद्ध कर देगी। सर्जक को बड़ा तो उसका सृजन ही बनाता है। हर खरा और खांटी लेखक यह सत्य जानता और मानता है। जो नहीं मानता, जल्दी ही अपनी रचनात्मकता खोकर 'ज्ञान भाई भंडारी' हो जाता है।


प्रभाकर श्रोत्रिय 'सारिका' और 'धर्मयुग' में छपते ही मेरी कहानियों के प्रशंसक हो गए थे और मेरे कथा आलोचक रूप की सराहना भी दिल खोलकर करते थे। जिस भी पत्रिका में रहे, लिखने के लिए निरंतर आग्रह करते रहे। 'अक्षरा' में उन्होंने 'सामना' और 'आवागमन' जैसी लंबी कहानियां छापीं, जिनमें से आवागमन' उस अंक में छपी थी, जिसमें शिवप्रसाद सिंह की लंबी कहानी थी। लंबी होने के कारण अंक में सिर्फ दो कहानियां अंट सकीं। अपने साथ मेरी कहानी के नत्थी होने से शिवप्रसाद सिंह ने श्रोत्रिय जी से किंचित नाराजगी का इजहार किया तो उन्होंने उनसे पूछ लिया, "आपने बलराम की कहानियां पढ़ी हैं?" इनकार करने पर कहानी पढ़ने के बाद ही कोई राय जाहिर करने का अनुरोध उनसे किया था श्रोत्रिय जी ने। उसके बाद तो अपन शिवप्रसाद सिंह के प्रिय पात्रों में शुमार हो गए। बनारस जाने पर अक्सर मिलने आ जाया करते।


जिन दिनों प्रभाकर श्रोत्रिय मानसिक रूप से हाल-बेहाल थे, हमने उन पर केंद्रित मंडला (मध्य प्रदेश) के नैनपुर में 'कान्हा प्रसंग' किया था। उस पर केंद्रित किताब 'कान्हा प्रसंग' भी निकाली थी, जो प्रभाकर श्रोत्रिय के जीवन और सृजन पर केंद्रित पहली किताब थी।


वह चाहे 'अक्षरा' के संपादक रहे, 'वागर्थ' या 'नया ज्ञानोदय' के, हमेशा पत्रिकाओं के सम्मानार्थ अंक भिजवाते रहे। हमने उनकी पत्रिकाओं में चाहे लिखा या नहीं लिखा, लेकिन महीने दो महीने में कुछ भी भेज देने के आग्रह भरे पत्र निरंतर आते रहे। एक बार साहित्य अकादेमी के अपने कक्ष में चाय पिलाने के बाद झुंझलाकर पूछ बैठे, “साहब, आप कमाल के आदमी हैं। इतनी चिट्ठियां लिखने के बावजूद आपसे हमें कुछ मिलता-मिलाता नहीं और आपके दोस्तों की रचनाएं मेरी फाइलों को मोटा किए रहती हैं। उनकी ज्यादा पूछताछ से कभी-कभी झुंझला भी जाता हूं। आज तो आप हमें यह बता दीजिए कि अपनी रचनाएं देते क्यों नहीं?"


__ तब हमने उनसे कहा था कि इन दिनों ज्यादातर कथेतर गद्य लिख रहा हूं, जो 'नया ज्ञानोदय' या 'समकालीन भारतीय साहित्य' जैसी निरामिष पत्रिकाओं में आप छापते तो संकट में पड़ जाते और नहीं छाप पाते तो लौटाते हुए संकट महसूस करते। मैं आपको किसी भी तरह के संकट में फंसाना नहीं चाहता रहा।


सुनकर फिर उनके चेहरे पर वैसी ही मृदुल मुस्कान खिली थी, जिसे देखकर दिल में कुछ-कुछ होने लगता था। 'समकालीन भारतीय साहित्य' में 'गोआ में तुम', 'माफ करना यार' और 'धीमी-धीमी आंच' जैसी मेरी कई किताबों की समीक्षाएं छापी थीं। उनके आग्रह की रक्षा करने के लिए उनकी दी हुई कुछ किताबों की समीक्षाएं लिखकर उन्हें दीं, जिन्हें उन्होंने सहर्ष छापा, लेकिन उनसे लाकर कुछ और किताबें बुक सेल्फमें सजा तो लीं, लेकिन उन पर लिखकर उन्हें दे नहीं सका। जिन लेखकों की किताबें मेरे पास हैं, उनके साथ तो भारी अन्याय हो गया न!


अरविंद वाजपेयी से प्रभाकर श्रोत्रिय की इस अप्रकाशित किताब की चर्चा हुई तो मेरे साथ ज्योति जी से मिलने के लिए तैयार हो गए, लेकिन श्रोत्रिय जी की लैंड लाइन ही नहीं, उनका तो मोबाइल तक मूक हो गया था। उनकी बीमारी के दौरान बार-बार फोन कर बात करने की कोशिशें की तो रिंग बेशक जाती रही. पर फोन नहीं उठा। कभी-कभी हालात ही ऐसे हो जाते हैं कि चाहकर भी आदमी कछ कर नहीं पाता। जीवन के आखिरी दिनों में उनकी स्थिति कछ ऐसी हो गयी थी कि कब दिल्ली में हैं, कब भोपाल में, कब घर में हैं और कब, कहां और किस अस्पताल में, उनसे मिलने जाते तो कहां जातेअपना स्वास्थ्य भी उन दिनों कुछ ऐसा ही चल रहा था कि धूप में आना-जाना एकदम मना था। चाहते हुए भी आखिरी दिनों में उनसे मिल नहीं सके। भोपाल में इलाज करवाने की खबर लखनऊ में मुलाकात होने पर ज्ञान चतुर्वेदी ने दी थी, लेकिन उसके बाद ब्लैक आउट । निधन के बाद पता चला कि उनकी इच्छानुसार अंत्येष्टि हरिद्वार में होनी है और उन्हें लेकर परिवार के लोग वहीं चले गए हैं। सो, कमलेश्वर और कामता की तरह प्रभाकर श्रोत्रिय की अंत्येष्टि में भी हम शरीक नहीं हो सके। हां, साहित्य अकादेमी में हुई शोकसभा में शामिल होने का अवसर जरूर मिल गया।


एक दिन अरविंद वाजपेयी अकेले ही श्रोत्रिय जी के घर जाकर ज्योति जी से उनकी अप्रकाशित पांडुलिपि ले आए।ज्योति जी ने ऐसा कर हम कथाकारों पर बड़ा उपकार किया है। श्रोत्रिय जी होते तो शायद अभी भी अनुपलब्ध समीक्षाएं मिलने और पांडुलिपि को अपडेट करने के चक्कर में रुके होते। ऐसा होता तो निश्चित रूप से बेहतर होता। कम से कम अब जो है, इससे तो बेहतर ही, लेकिन जो नहीं हो सका, उसका क्या गम!


_हिंदी आलोचना के सिरहाने बैठे प्रो. प्रभाकर श्रोत्रिय का कथा पाठ उनकी कृति 'कथा का सौंदर्य शास्त्र' में ध्वनित हुआ है। अपने वृहत्तर आलोचना कर्म में उन्होंने कृति केंद्रित काम अपेक्षाकृत कम ही किए। कृति या रचनाकार केंद्रित कथा साहित्य में उनकी आलोचना इस प्रवृत्ति की द्योतक है कि उन्होंने नियमित रूप से कथा आलोचना का काम कभी नहीं किया, जिसे 'जमकर लिखना' कहते हैं। वैसे भी समकालीन साहित्य का प्रस्तुतीकरण उनके समग्र लेखन में कम ही हुआ, मगर सत्य और तथ्य यह भी है कि समकालीन कृतियों से वह हरदम बेखबर रहे। प्रेमचंद्र, जैनेंद्र, नरेश मेहता, गिरिराज किशोर, गोविंद मिश्र, राजेंद्र यादव, चित्रा मुद्गल और राजी सेठ जैसे सिद्ध सर्जकों पर उनकी कथा समीक्षाएं इस कृति में हैं तो सूर्यकांत नागर और राजेंद्र मिश्र जैसे लगभग अलक्षित कथाकारों पर भी उन्होंने लिखा है, जिसे आलोचना की ऊष्मा भरी अंतर्यात्रा कह सकते हैं। एक आलोचक की अंतर्दृष्टि और अचूक विश्लेषण क्षमता ने इस कृति को अत्यंत मूल्यवान बना दिया है।


हिंदी आलोचना के ढुलमुल रवैये के दलदल से दूर हिंदी कथा साहित्य का यह अध्ययन पारदर्शी आलोचना मूल्यों की पुनर्स्थापना जैसा गंभीर काम है। कृति से गुजरते हुए पाठक को अनुभव होगा कि किसी कृति की देह और आत्मा को देखने के लिए किस रंग, आयाम और दृष्टि की जरूरत होती है। यह तभी संभव हो पाता है, जब रचना की आलोचना भी 'रचना' होने लगती है। इस कति में प्रभाकर श्रोत्रिय की कलम से निकला हर वाक्य कृति और कृतिकारों पर निजी आभा फेंकता है। आलोचकीय आग्रह इतना भर है कि उन स्थितियों को पकड़ा जा सके, जिनके इर्दगिर्द रचनाओं का सृजन संभव हुआ और फिर उसके नख-शिख को समाज, राजनीति और अंतत: मानव मन के स्तर पर परखा जा सके। इसी के चलते प्रभाकर श्रोत्रिय अगर कहीं कटु और तुर्श भी हुए तो सिर्फ आलोचक की ईमानदारी को बचाए रखने के लिए। ऐसे समय में जब आलोचना पूर्वाग्रहों का बदशक्ल चेहरा बन चुकी है, प्रभाकर श्रोत्रिय की कथा आलोचना ईमानदार छांव की तरह संतोष की सांस लेने का उपक्रम रच रही है।


श्रोत्रिय जी की सुघड़ लिखावट के बावजूद पुराने कागजों पर आड़ी-तिरछी रेखाओं से इंगित वाक्यों को पढ़-समझकर यथास्थान समायोजित कर पाना ऑपरेटर, प्रफरीडर और संपादक के लिए बहुत मुश्किल साबित हुआ। हम पर खास तौर से. क्योंकि शब्द सत्ता के प्रति श्रोत्रिय जी के लगाव को हम जानते-समझते रहे। उनके कुल-गोत्र में बैठने की पात्रता हमारे पास नहीं है, लेकिन वे हमें उसका सुपात्र मानते रहे। सो, अब जब वे नहीं हैं तो उनकी त्वरा के करीब पहुंचने के लिए उनकी पांडुलिपि से महीनों जूझते रहना हमारी विवशता हो गई। बीस-तीस बरस पहले टाइप हुए पन्नों की स्याही इतनी उड़ी-उखड़ी-सी थी कि घंटों की मशक्कत के बावजद किसी-किसी वाक्य को सही-सही पढकर टाइप होने के बाद फिर से उसकी जांच करना बेहद कठिन हो जाता रहाइसलिए भी पांडुलिपि महीनों मेज पर अलसाई-सी पडी रहती रही, क्योंकि प्रभाकर श्रोत्रिय अब 'यहां नहीं. मनोहरश्याम जोशी के साथ 'वहां' हैं और 'यहां' मुझे टोकने वाले उनके लैंड लाइन और मोबाइल, दोनों ही मूक। सो, बेफिक्र होकर नींद के आगोश में मस्त रहे, लेकिन ज्योति जी बेचैन और अरविंद वाजपेयी निरंतर परेशान रहे। ऑफिस के अभाव और अस्वस्थता के चलते भी कुछ नहीं हो पा रहा था कि तभी वह हो गया, जिसके बारे में सोचा तक न था। स्वास्थ्य लाभ के साथ अचानक 'लोकायत' नाम का बैताल फिर कांधे पर आ बैठा तो श्रोत्रिय जी की इस किताब के तर्पण के लिए उनके अंत्येष्टि नगर हरिद्वार से सचिन नाम के पंडे को बुला लिया। लगातार पांडुलिपि में सिर खपाते हम दोनों अंततः इसे 'छपने के लिए तैयार' वाली स्थिति में ले आए।


कथाकार मित्र राजकमार गौतम भी प्रभाकर श्रोत्रिय के प्रिय पात्रों में रहे। सो, उनसे अनुरोध किया तो सब काम छोड़कर उन्होंने भी तत्परता से किताब के पुनरीक्षक की भूमिका निभा दी तो कुछ और संशोधनों के बाद अंततः पांडुलिपि रिषभ को मेल कर देने का समय आ गया। उसी रात बारह बजे अचानक अपनी सदाबहार मुस्कान के साथ धवल वस्त्रों में श्रोत्रिय जी प्रकट हुए और हाथ जोड़ते हुए बोले, “साहब, मेरी जिस किताब को आपने इतने आग्रह से तैयार करवाया था, अब तो उसे फाइनल कर दीजिए। और हां, उसकी भूमिका भी आपको ही लिखनी है, जैसे कभी कमलेश्वर की किताब 'प्रश्नों का प्रजातंत्र' के लिए लिखी थी।"


___ "प्रणाम भाई साहब, निश्चित रहें। कल सुबह फाइनल फाइल मेल हो जाएगी और किताब अगले महीने तक आ जाएगी।" अचकचाकर उठते और आंख मलते हुए मैंने उनसे विराजने के लिए कहा। “धन्यवाद साहब, बहुत-बहुत धन्यवाद।" उन्होंने कहा। 'वहां' उनके साथ रह रहे मनोहरश्याम जोशी के हालचाल पूछने के लिए हम जैसे ही मुड़े, श्रोत्रिय जी अदृश्य हो गए, बोर्खेज के किसी पात्र की तरह।