'भावों की भिड़त':निराला से संबंधित एक दुरवद विवाद

आलेख


सधिनी अग्रवाल


कलकत्ता में महादेवप्रसाद सेठ के परिवार का पत्थरों का व्यापार था लेकिन महादेवप्रसाद का रुझान साहित्य की ओर था। कलकत्ते में उन्होंने 23, शंकर घोष लेन के अपने मकान में बालकृष्ण प्रेस खोल लिया था। जहां से 'समन्वय' निकलता था। मुंशी नवजादिकलाल 'समन्वय' से लेकर 'भूतनाथ' तक के मैनेजरी का काम करते थे। महादेवप्रसाद सेठ मुंशीजी से बहुत प्रभावित थे, क्योंकि वह अपना काम बहुत मुस्तैदी के साथ करते थे। सेठ जी की इच्छा थी कि वे हिंदी में एक साप्ताहिक निकालें। उन्होंने बालकृष्ण प्रेस और 'मतवाला' के प्रबंध का उत्तरदायित्व मुंशी जी को सौंप दिया। बाद में 'मतवाला मंडल' से निराला और शिवपूजन सहाय भी जुडे। 'मतवाला' का प्रकाशन 26 अगस्त, 1923 में हुआ। 'मतवाला' के प्रकाशन से बहुत सारे कलकत्ता के साहित्यकार भी जुड़े। बहुत कम समय में 'मतवाला' की पैठ हिंदी संसार में हो गई। 'मतवाला' के मुख्य पृष्ठ पर प्रायः निराला की कविताएं छपती थीं। 'मतवाला' के स्तंभ थे-मतवाला की बहक और कसौटी, जिसमें तत्कालीन पत्रपत्रिकाओं और पुस्तकों की धुनाई की जाती थी। 'मतवाला' की ग्राहक संख्या 10 हजार तक पहुंच गई थी। 'मतवाला' में हिंदी के नए-पुराने दोनों लेखक छपते थेनाथराम शंकर 'शर्मा' ही नहीं, मैथिलीशरण गप्त और समित्रानंदन पंत की कविताएं भी छपती थीं। सूर्यकांत त्रिपाठी का उपनाम 'निराला' 'मतवाला' के अनुप्रास पर ही था। फिर भी कुछ लोग 'मतवाला' से नाराज थे। उनकी नाराजगी का प्रमुख कारण 39• प्रेरणा समकालीन लेखन के लिए यह था कि 'मतवाला' में प्रकाशित कविताएं हिंदी की रुढ़िवादी, रीतिवादी तथा धार्मिक-नैतिक, राष्टवादी कविताओं को अपदस्थ कर रही थीं और इसमें निराला की प्रमुख भूमिका थी।


___'मतवाला' की लोकप्रियता के साथ-साथ उस पर आक्रमण भी शुरु हुए और निराला इसके केन्द्र में थे।


कलकत्ता के एक नामी साहित्यकार थे-जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी। वे अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का सभापतित्व कर चुके थे। ब्रजभाषा कविता से उनका बेहद लगाव था। वे घर में ब्रजभाषा ही बोलते थे। वे 'मतवाला' कार्यालय में आते थे। निराला से स्नेह करते थे लेकिन निराला की मुक्त छंद में लिखी कविताएं उन्हें पसंद नहीं थीं। दूसरे, निराला की लोकप्रियता भी उनके आड़े आ रही थी। उन्होंने निराला के मुक्त छंद की पैरोडी लिखी और उसे 'शिक्षा' पत्रिका में छपवा दिया। 'यदि उन्होंने उसे 'मतवाला'-संपादकों के पास भेजा होता, तो वे उसे सहर्ष प्रकाशित कर देते। जब वह 'शिक्षा' में छपी, तो मुंशी नवजादिकलाल ने 'मतवाला' का एक पूरा पृष्ठ भरके उसे पुनर्मुद्रित कर दिया। जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी का परिचय मोटे अक्षरों में छापा, मुक्तछंद की पैरोडी साधारण टाइप में-द्वादश हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति, सुप्रसिद्ध हास्यरस-रसिक हिंदी के 'मौजी' लेखक कविवर श्रीमान पंडित जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी का, हिंदी के युग प्रवर्तक कवि पं. सूर्यकांत त्रिपाठी'निराला'-लिखित 'अनामिका' पुस्तक के विषम छंदों में प्रथम प्रयास अनामिका!


आयी अनामिका अद्भुत/धन्यवाद देता हूं/करूं क्या आलोचना मैं और दूं क्या सम्मति भी। देखा पढ़ा सोचा किन्तु समझ में न आया कुछ/अद्भुत है आविष्कार/रचना भी नयी है।/ कविता है/छन्दोबद्ध;/ किन्तु नहीं/ गद्य है न पद्य है/दोनों का मिश्रण है। अजब अनूठी यह अकथ कहानी है/क्षम्य है बेतुका छंद/बोली बोलचाल की भी/ किन्तु अमाजेनीय;/ अमार्जनीय बद्ध है/छन्दच्युत पदावली/स्वेच्छाचारी अनुचित है/आदर के योग्य नहीं नियम विरुद्ध कार्य/नूतन भी निषिद्ध है।


कविता समझ में नहीं आती, छंद बेतुका है, पदावली छंदच्युत है, इस तरह की कविता नियमविरुद्ध स्वेच्छाचार है- छायावाद के संबंध में इस तरह के विचार प्रायः सभी रूढ़िवादियों के थे। चतुर्वेदी जी ने बड़े व्यवस्थित ढंग से उन्हें अपनी नकल में प्रस्तुत किया। नकल छापकर 'मतवाला'-मंडल ने निराला के प्रति अपनी दृढ़ आस्था का परिचय दिया, लेकिन यह तो शुरूआत भर थी।'


यह पैरोडी छपने भर की देर थी कि 'मतवाला' पर प्रहार होने लगे। लक्ष्य तो निराला ही थे। प्रयाग से 'मनोरमा' नामक एक पत्रिका निकलती थी, जिसके संपादकीय में एक टिप्पणी 'हिंदी कविता की गति' छपी जिसमें हिंदी कविता को बंगला और अंग्रेजी की नकल बताया गया। “जिन दिशाओं से यह नूतन लालिमा दृष्टिगोचर हो रही है वह बंगला और अंग्रेजी है... हमारे अधिकांश परिवर्तनवादी कवि बंगला के उत्कृष्ट कवियों की प्रतिभा से प्रतिभायुक्त, तपस्या से तपस्वी, और साधना से साधक बन रहे हैं।"


इस आलोचना का लक्ष्य निराला थे, यह इस बात से स्पष्ट हो गया कि नोट में निराला की कविता 'सिर्फ एक उन्माद' से उद्धरण दिया गया था। और भी रूप से निराला और 'मतवाला' का मजाक उड़ाते हुए 'मनोरमा' में कविता छपी-'भंगी की मौज'इसमें कहा गया था।


ब्रजभाषा कविता उन्मूलन/ जिस प्रकार सत्वर हो जाय/ बजे हमारी विजय-दुंदुभी/ नभ प्रतिभा-महिमा अधिकाय।/टांग तोड़ने में कविता की/ मैं ही सुभट निराला हूं/ मत्र सदा मैं भंग-रंग में/मग्न हुआ मतवाला हूं।"


___चूंकि निराला के बहाने 'मतवाला' पर यह दूसरा आक्रमण था इसलिए इसका उत्तर देना लाजिमी था 'मतवाला' के लिए। मंशी नवजादिकलाल ने लेख लिखा'अंध परम्परा' । 'निराला की कविताएं समझ में नहीं आतीं, यह कहने वाले को उन्होंने समझाया कि उनके भाव व्यापक, भाषा संयत और व्याकरण सम्मत होती हैथोड़ा ध्यान देने से कविता समझ में आ जाती है। मुक्तछंद के बारे में लिखा, “ जब कविता का वेग स्वभावतः अबाध गति से निकलता रहता है तब उसकी गति विषम हो जाती है।" मुंशी जी ने निराला की कविता के लिए उंचा दावा पेश किया“निराला जी की कविताएं उस हिंदी की सम्पत्ति हैं जो हिंदी राष्ट्रभाषा होगी। आपके भावों में कहीं भी प्रान्तीयता नहीं है।'... हिंदी साहित्य में निराला जी का स्थान कितना उंचा है, यह वही समझते हैं जो उनकी कृतियों को ध्यान लगाकर पढ़ते हैं और जो हिंदी तथा दूसरी भाषाओं के धुरंधर विद्वान समझे जाते हैं।


नयी कविता बंगला और अंग्रेजी की नकल है, इस आक्षेप का उत्तर देते हुए मुंशी जी ने कुछ अनावश्यक चुनौती के स्वर में कहा, "अच्छा होता यदि आप एक ही उदाहरण अपने वाक्य की पुष्टि में रख देते, बंगला की कविता और 'निराला' जी की कविता में साम्य दिखला देते। मैं हिंदी संसार से अनुरोध करता हूं कि वह 'निराला' जी की मौलिकता में प्रमाण देकर त्रुटि दिखलावे, इससे हिंदी संसार का बड़ा लाभ होगा। अन्यथा एक मौलिक और युगप्रवर्तक कवि पर इस तरह आक्षेप करने से लेखक की ही क्षुद्रता प्रमाणित होगी।"


_निराला की गरिमा की और भी उदात्त घोषणा करते हुए, उनके और 'मतवाला' के संबंध पर जोर देते हुए मुंशी जी ने लिखा, "निराला' जी क्या हैं, क्या नहीं, उनका स्थान उंचा है या नीचा, यह समय खुद जाहिर कर देगा। मैंने उन्हें देखा है, उनकी कवित्व शक्ति और उनकी भावुकता के मुझे यथेष्ठ प्रमाण मिल चुके हैं, और ऐसे युगप्रवर्तक कवि को प्राप्त करके 'मतवाला' अपने को धन्य समझता है। हम, मैं, पहले भी लिख चुका हूं और अब भी लिखता हूं कि 'निराला' जी किसी समाज या किसी प्रान्त के कवि नहीं, वे राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रथम कवि हैं।"


यद्यपि यह लेख 'मतवाला' में नवजादिकलाल श्रीवास्तव के नाम से छपा लेकिन इसमें दी गई युक्तियां और तर्क निराला के थे।


डॉ. रामविलास शर्मा ने इस प्रसंग पर 'निराला की साहित्य साधना खंड-1 में लिखा है-"मनोरमा" को जवाब मिल गया। पर इस जवाब में जो चुनौती थी, वह न केवल रीतिवादी कवियों को बुरी लगी, वरन् जो खड़ी बोली में धार्मिक और राष्ट्रीय कविता करते थे, उन्हें भी अखरी। 'मतवाला' कह रहा था, निराला राष्टभाषा हिंदी के प्रथम महाकवि हैं! मानो इनसे पहले खड़ी बोली के दूसरे कवि घास छीलते रहे हैं! खड़ी बोली के इन पुराने कवियों में अनेक हिंदी-उर्दू-संस्कृत के साथ बंगला के भी अच्छे जानकार थे। वे 'मतवाला' में निराला की रचनाएं ध्यानपूर्वक पढ़ रहे थे। ये एक प्रतिद्वन्द्वी की रचनाएं हैं, वे अच्छी तरह समझ रहे थे। मौके की तलाश में थे कि ऐसा दबोचें कि युगप्रवर्तक महाशय जमीन से फिर न उठ पायें। उन्हें निराला की दो ऐसी रचनाएं मिल गई जो रवीन्द्रनाथ की कविताओं के आधार पर लिखी गई थीं। जहां-तहां बहुत मामूली परिवर्तन किए गए थे। 'मतवाला' ने चुनौती दी थी कि जो समझता हो कि निराला ने बंगला से भाव उधार लिए हैं, वह प्रमाण-सहित मैदान में आये।


राष्ट्रवादी दल ने चुनौती स्वीकार की। निराला और रवीन्द्रनाथ के भावसाम्य पर एक लंबा लेख 'प्रभा' में प्रकाशनार्थ उसके संपादक बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' के पास पहुंच गया। 'नवीन' जी का एक पैर राष्ट्रवादी खेमे में था, दूसरा छायावादी खेमे में। लेख में जो बातें कही गईं थीं, उन्हें सत्य लगीं। पर वह 'मतवाला' के प्रशंसक थे, 'प्रभा' में निराला की कविताएं छप चुकी थीं, उन्हें सत्य लगीं। उन्होंने तय किया कि 'मतवाला' को पहले से बता देना चाहिए कि 'प्रभा' में निराला पर ऐसा लेख छपने जा रहा है।


मुंशीजी के पास 'नवीन' का पत्र पहुंचा। उन्होंने पत्र निराला को दिखायानिराला को यह न मालूम था कि कौन-सी कविताओं में 'प्रभा' के लेखक ने भावसाम्य दिखाया है, पर यह तो वह जानते ही थे कि उन्होंने कई कविताएं रवीन्द्रनाथ की रचनाओं के आधार पर लिखी हैं। उन्हें यह भी विश्वास था कि इस तरह की दोचार कविताओं से उनकी मौलिकता पर आंच नहीं आ सकती। उन्होंने मुंशीजी को समझाया, कुछ कविताएं रवीन्द्रनाथ को पढ़ने के बाद लिखी थीं, जहां-तहां कुछ भाव आ गए होंगे पर अधिकांश कविताएं मौलिक ही हैं। मुंशीजी आश्वस्त हुए। उन्होंने 'नवीन' को पत्र लिखा कि लेख 'मतवाला' में छपने भेज दीजिए, वह विरोधी आलोचना से डरता नहीं, उसे सहर्ष स्थान देगा। पर 'नवीन' लेखक का नाम गुप्त रखना चाहते थे, उन्होंने लेख 'मतवाला' में भेजना उचित न समझा। लेख मार्के का था, छपने पर खूब चहल-पहल रहेगी, 'प्रभा' का नाम होगा। उन्होंने मुंशीजी को सूचित किया कि लेख प्रेस में जा चुका है, उसे 'मतवाला' में छपने भेजना संभव नहीं है।"


स्पष्टतः निराला के खिलाफ प्रतिकूल हवा बहने की शुरूआत हो चुकी थी। अब 'प्रभा' में छपने वाले लेख की खबर से 'मतवाला' में हलचल मच गई। यह विचार किया गया कि 'प्रभा' में लेख छपने से पहले ही 'मतवाला' में भावसाम्य का स्पष्टीकरण प्रकाशित हो जाना चाहिए। मुंशीजी का सुझाव था कि निराला ही इस संबंध में कुछ लिखें। निराला ने 'मतवाला' में प्रकाशनार्थ मुंशीजी के नाम पत्र लिखा-


"श्रद्धेय मुंशीजी,


'मतवाला' के गत किसी अंक में आपने मेरे संबंध में जो कुछ लिखा है, उस पर मैं आपसे कुछ निवेदन करना चाहता हूं। आशा है, आप मेरा पत्र 'मतवाला' में प्रकाशित करा देंगे।


मेरे कुछ मित्रों का आग्रह है, अपनी कविता की मौलिकता और अमौलिकता के संबंध में मैं स्वयं कुछ लिखू, अतएव स्वतंत्र रूप से विशेष कुछ न लिखकर मैं आपके पत्र में ही उनके संबंध में कुछ निवेदन करूंगा।


आपके पत्र में मेरी जितनी कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं, उनमें मौलिक कविताओं की संख्या ही अधिक है। उन अधिक-संख्यक कविताओं का नामोल्लेख मैं निष्प्रयोजन समझता हूं। अतएव मैं केवल उन्हीं कविताओं का उल्लेख करूंगा, जिन्हें मैंने पहले डॉक्टर टैगोर की कविताएं पढ़ लेने पर, दो भिन्न रूपों के चित्रण में सादृश्य देखने के अभिप्राय से, लिखा था। मेरी 'क्यों हंसती हो, कहां देश है' कविता की 43 लाइनों में 7-8 लाइनें डॉ टैगोर की हैं। मेरी 'प्रिय से' और 'क्षमा प्रार्थना' में डॉ. टैगोर के ही भाव अधिक हैं। कविवर की 'जीवन-देवता' का उद्देश्य दूसरा है, मेरा दूसरा, उनकी कविता में वही भाव दूसरी ओर झुकाए गए हैं, मेरी में दूसरी ओरमेरी यह कविता उन्हीं के भावों पर लिखी गई है। तट पर' में 4-5 लाइनें महाकवि की हैं। 'ज्येष्ठ' के भाव में उनके वैशाख के कुछ भाव आए हैं। संभव है, और किसी कविता में उनका कोई भाव आ गया हो, परन्तु उसके लिए मैं कुछ कह नहीं सकता। इस संबंध में बहुत कुछ लिखने की इच्छा थी। परन्तु किसी विशेष कारण से आज यहीं तक।


एक बात और। मेरी 'अनामिका' पुस्तिका की 'लज्जिता' कविता को सुनालखनऊ के कोई साहित्यसेवी मेरे एक मित्र से रविबाबू की कविता का अनुवाद या ऐसा ही कुछ बतलाते थे। सौभाग्य से 'केन जामिनी ना जेते जागाले ना नाथ बेला होलो मरी लाजे' मैं भी गाता हूं। मैंने अपने मित्र को दोनों के पद सुनाये। न जाने क्यों, उन्होंने उसे न अनुवाद माना और न भावापहरण।


'कवीन्द्र' में मेरी एक कविता निकली है, मुझे उसका नाम याद नहीं। कोई सज्जन उसमें भी रविबाबू के काव्य की छाया पाते हैं। कलकत्ते में मेरे एक मित्र से उन्होंने कहा भी था-यह चोरी मेरी समझ में नहीं आई। रविबाबू की कविता के साथ उसका उद्धरण करने से, संभव है, मेरी समझ में आ जाए। “विनीत-सूर्यकांत"


30 अगस्त 1924 के 'मतवाला' में निराला का पत्र इस संपादकीय टिप्पणी के साथ प्रकाशित हुआ, "यह पत्र निराला जी ने मुंशी नवजादिकलाल को लिखा था। पत्र का संबंध उनके लेख से है। इसलिए प्रकाशित किया गया।"


___अंततः जिसका डर था, वही हुआ। रामविलास जी लिखते हैं- "प्रभा" का सितंबर वाला अंक आया। लेख का शीर्षक था-'भावों की भिड़न्त', लेखक श्रीयुत भावुक'। निराला की मौलिकता के लिए जो दंभपूर्ण-सा लगने वाला दावा किया गया था, 'भावुक' ने उसे प्रमाण-सहित तहस-नहस कर दिया था। खास बात यह कि 'मतवाला' को जवाब उसी शैली में मिला था, जिसमें वह 'माधुरी', 'सरस्वती' आदि की आलोचना किया करता था।


__ लेख के आरंभ में भावुक ने भाव-साम्य के अनेक प्रकार बताये और ऐसी गंभीरता से उनका वर्गीकरण प्रस्तुत किया मानो नया लक्षण ग्रंथ रच रहे हों। "छंद की कैद नहीं, भावों पर ही दार-मदार नहीं, भाव, शब्द, पद, अनुप्रास जो कुछ लेते बने-सभी लिया जा सकता है! हां, थोड़ी-सी तोड़-मरोड़ की आवश्यकता अवश्य रहती है। करना चाहें तो यत्र-तत्र कुछ परिवर्तन भी कर सकते हैं। सबसे बड़ी खूबी इसमें यह होती है कि अर्थ-संगति पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता नहीं रहती!"


भाव-साम्य के प्रति लोगों के विभिन्न दृष्टिकोणों की चर्चा करते हुए भावुक ने लिखा, "भावों की इस भिड़न्त, लड़न्त या टक्कर का वर्णन लोग भिन्न-भिन्न भांति से किया करते हैं। सीधे लठ्ठमार लोग कहते हैं-यह चोरी है, डाकेजनी है। शांतिप्रिय लोग इतना ही कह देते हैं कि इस कविता का भाव अमुक कविता से मिलताजुलता-सा है और जिन्हें आलोच्य कविता के कवि से प्रेम और उसकी कविता के प्रति पक्षपात होता है, वे चतुर जन कहते हैं कि उस कवि से-जिसका भाव लिया गया है-यह बात इस तरह कहते नहीं बनी जिस तरह इसने कही, जिस बात को कहने के लिए उसने इतना बड़ा पद्य बनाया उसे इसने इतने छोटे पद्य में कर दिया, यह ले उड़ा, उसने उससे मजमून छीन लिया! इत्यादि।"


इस भूमिका के बाद 'भावुक' ने दो कविताएं लीं। एक 'बंगला के विश्व विख्यात कवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर की' और दूसरी 'कलकतिया' 'मतवाला' के शब्दों में-'हिंदी के युगप्रवर्तक श्री सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की'। पहली कविता का नाम है 'विजयिनी'. दसरी का नाम है 'तट पर' जो 2 फरवरी सन 24 के 'मतवाला' में प्रकाशित हुई थी। दोनों कविताओं से काफी अंश उद्धृत करने के बाद भावुक ने लिखा, "रविबाबू की कविता में आच्छोद सरसी का वर्णन है। निराला की कविता में क्षीणकटि तटिनी है। बंगला-कविता में रमणी सुनील-वसना है, हिंदी कविता में वह वसंती रंग के कपड़े पहने है। अन्य उपकरण एक-से हैं, वसंत का वर्णन, सुखद वायु, शिलाखंड, सारस का जोड़ा, रमणी का स्नान के बाद सजल चरण-चिह्न रखना, लावण्यपाश में बंधा यौवन इत्यादि। बंगला-कविता में सूर्य का प्रकाश रमणी के नग्न अंगों पर पड़ता है, हिंदी कविता में वायु उसके विभिन्न अंगों को पोछ देती हैबंगला कविता में कामदेव अपना पुष्प-धनु बाण रमणी के चरणों में रख देता है, हिंदी-कविता में वसंत अपना मुकुट रखता है।"


इसके बाद 'भावुक' ने 3 मई, सन् 24 के मतवाला' में प्रकाशित 'क्यों हंसती हो? -कहां देश है?' कविता और रवीन्द्रनाथ की 'निरुद्देश्य यात्रा' में साम्य दिखाया। मूल बंगला कविता में 84 पंक्तियां हैं, हिंदी कविता में 43! "परन्तु इन थोड़ी ही पंक्तियों में मजमून साफ छीन लिया गया है! गागर में सागर इसी को कहते हैं।" रवीन्द्रनाथ और सूर्यकांत इन दोनों नामों के अर्थसाम्य की ओर संकेत करते हुए 'भावुक' ने लिखा, "दोनों कविताओं में से अधिक पंक्तियां उद्धृत न करके केवल उतनी ही उद्धृत की गई हैं जितनी रवि और सूर्य की भांति एक ही मालूम होती हैं।" दोनों कविताओं में कुछ छोटे-मोटे भेद भी दिखा दिए जिससे यह मालूम हो कि भाव-साम्य छिपाने के लिए लेखक ने कारीगरी की है। इसके बाद अंत में बड़ी शालीनता से 'भावुक' ने लिखा, "इस प्रकार मिलान करने से यह मालूम हो गया कि 'हिंदी के युग प्रवर्तक कवि' श्री सूर्यकांत जी त्रिपाठी की 'तट पर' और 'क्यों हंसती हो? कहां देश है?' ये दोनों कविताएं श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर की 'विजयिनी' और 'निरुद्देश यात्रा' नाम की कविताओं की टक्कर की है! क्या हिंदी संसार, हिंदी की इस गौरव-वृद्धि के लिए, श्री त्रिपाठी जी महाराज को बधाई या धन्यवाद न देगा? और क्या कोई भव्य-भावुक इस बात का अन्वेषण न करेगा कि इसी प्रकार उनकी और कविताएं भी रविबाबू या अन्य किसी की कविताओं से टकराती हैं या नहीं?"


'प्रभा'-संपादक बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने लेख का महत्व जताने के लिए उस पर एक संपादकीय नोट भी लिख दिया। उसमें मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव को शिक्षा दी कि पंक्तियां उद्धृत करके मौलिकता का दावा गलत साबित करने की चुनौती न देते तो अच्छा था। मुंशी जी को ललकारते हुए तार दिया, लेख का जवाब दीजिए।


'प्रभा' का अंक आने के बाद 'मतवाला'-कार्यालय में सन्नाटा छा गयामहादेवप्रसाद सेठ और मुंशी नवजादिकलाल अब तक निराला की मौलिकता के प्रति आश्वस्त थेबालकृष्ण शर्मा के पत्र और निराला की बातचीत से इतना ही समझे थे कि रवीन्द्रनाथ के भावों से मिलते-जलते दो-चार भाव कहीं आ गए होंगे। निराला ने कई कविताएं पूरी की पूरी रवीन्द्रनाथ की रचनाओं के आधार पर लिखी हैं. इसका उन्हें गमान न था। खैर. 'प्रभा' के लेखक को जवाब तो देना ही था। निराला से अधिक 'मतवाला' की इज्जत का सवाल था। निराला से सलाह-मशविरा करने के बाद मुंशीजी ने लेख लिखा-'निराला बनाम रवीन्द्र'।


अब मामला मौलिकता को लेकर उठा। निराला के बचाव में उतरे नवजादिकलाल श्रीवास्तव निराला की मौलिकता के संबंध में दावा तो कर रहे थे लेकिन उनके मन में भारी उधेड़बुन थी। अपने पत्र में मुंशीजी ने 'भावुक' से पूछा, "आप मौलिकता का क्या अर्थ लगाते हैं?" यह प्रश्न इस विचार से किया था कि मौलिकता के दार्शनिक विवेचन में 'भावुकजी' फंस जाएं। फिर यह प्रस्ताव किया कि 'भावुक' मौलिकता का जो भी अर्थ करेंगे, उसी को कसौटी मानकर 'मतवाला' 50 से अधिक निराला की मौलिक कविताएं देगा।


___मुंशीजी ने लेख तो लिख दिया लेकिन 'प्रभा' संपादक को कठघरे में खड़ा कर दिया। वस्तुस्थिति यह थी कि 'प्रभा' संपादक ही आवेश में नहीं थे बल्कि खुद मुंशीजी भी आवेश में थे। निराला की मौलिकता के बारे में मुंशीजी ने व्यक्तिगत जानकारी तथा बंगला और हिंदी के विद्वानों के मतों का उल्लेख किया। “निरालाजी की मौलिकता के संबंध में मुझे अनेक प्रमाण मिल चुके हैं। आप 15 साल की उम्र में संस्कृत-कविता करते थे। स्थानाभाव है, फिर कभी उन कविताओं को प्रकाशित करूंगा। मैंने अपनी आंखों देखा है, कई पुस्तकों के प्रणेता-संसार का भ्रमण करने वाले-अंग्रेजी और बंगला के पत्रों के संपादक-बाबू यामिनी मोहन घोष के दूसरे विवाह में, कहने के साथ ही 'निरालाजी' ने बंगला में कविता लिख दी और बंगसमाज में उसका आशातीत आदर हुआ। तब से यामिनी-बाबू-जैसे बंग-भाषा के आचार्य जब कोई कविता लिखते हैं तो निरालाजी को अवश्य दिखाते हैं। मैंने देखा है, निरालाजी ने किसी मित्र के विवाह में हिंदी और बंगला दोनों भाषाओं में कविताएं लिखीं, हिंदी की कविता लोगों की रुचि का विचार करके लिखी गई थी, इसलिए उसके भाव बंगला की कविता तक पहुंच नहीं सके। पढ़कर कई बंगाली सज्जनों ने आपसे बंगला लिखने का अनुरोध किया। इस पर आपने अपनी दोनों कविताएं पूज्यपाद विद्यावयोवृद्ध श्रीमान पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी की सेवा में भेजकर बंगला में कुछ लिखने की आज्ञा-प्रार्थना की। मुझे विश्वास है, कमर्शल प्रेस के पास रहने के कारण 'प्रभा'-संपादक को मालूम होगा, 'निरालाजी' द्विवेदीजी महाराज के पवित्र स्नेह के पात्र हैं। अस्तु, द्विवेदीजी महाराज ने हिंदी में ही लिखते रहने की आज्ञा दी। यद्यपि आपने उनकी बंगला कविता को ही हिंदी की अपेक्षा अच्छी बतलायामैंने देखा है, अंग्रेजी पर भी 'निरालाजी' का उतना ही अधिकार है जितना अवगत अन्य भाषाओं पर।"


मौलिकता के समर्थन में इतने प्रमाण देने के बाद कविताओं में सादृश्य का कारण बताया। वह इस प्रकार: “निरालाजी के रवीन्द्र बाबू की कविताओं का अनुरूप खींचने का उद्देश्य भी मुझे मालूम है। आप हिंदी और बंगला में सादृश्य देखना चाहते हैं। बंगालियों के सामने जिस आदर्श के रखने से उनके लिए हिंदी की शिक्षा सुगम होगी-हिंदी पढ़ने में उत्साह बढ़ेगा, उसकी चेष्ठा करते हैं, परन्तु इससे कोई यह न समझे कि वे हिंदी को बंगला बनाना चाहते हैं या बंगला उनका आदर्श है। 'निरालाजी' की हिंदी की प्रशंसा द्विवेदीजी महाराज जैसे स्पष्ट वक्ता भी कर चुके हैं।" मुंशीजी ने हिंदी के प्रति बंगालियों के उपेक्षा भाव का उल्लेख किया। उन्हें हिंदी की ओर खींचने के लिए ही निराला ने रवीन्द्रनाथ के कुछ प्रतिरूप प्रस्तुत किएफिर यह दावा दोहराया कि उनकी मौलिकता सिद्ध करने के लिए पचासों कविताएं पेश की जा सकती हैं।


लेख मुंशीजी ने लिखा, उसमें युक्तियां निराला की दी। मौलिकता का अर्थ पूछने वाला दांव निराला का था। स्वयं आवेश में आने पर विरोधी पर आवेश का आरोप लगाना उन्हीं की कला थी। पन्द्रह साल की उम्र से ही वह संस्कृत में कविता करने लगे थे, अपने बारे में यह जानकारी निराला ने ही मुंशीजी को दी। मेरी विद्वता का प्रमाण मेरा संस्कृत-ज्ञान है, मैं बंगला में कविता ही नहीं कर लेता, हिंदी से मेरी बंगला कविता ही अच्छी होती है, द्विवेदीजी की आज्ञा से मैं हिंदी में लिखता हूं, वर्ना अब तक बंगला का प्रतिष्ठित कवि होता, बंग-भाषा के आचार्य भी इस्लाह के लिए मुझे अपनी कविताएं दिखलाते हैं-यह सारी तर्क-योजना हिंदी में अपने विरोध से चिढ़े हुए निराला की थी।


हिंदी का युग-प्रवर्तक कवि अपनी मौलिकता प्रमाणित करने के लिए विवाहादि अवसरों पर लिखी कविताओं का हवाला दे, बीते युग के वृद्ध आचार्य के स्नेह और सम्मति की दुहाई दे-इसमें न उसका गौरव था, न 'मतवाला' का। 'मतवाला' का व्यंग्य आक्रामक होता था, अभी तक वह दूसरों की खिल्ली उड़ाता रहता था। 'भावों की भिड़त' के प्रकाशन के बाद लोग उसकी खिल्ली उड़ाने लगे। 'मनोरमा' ने मुंशीजी के लेख पर मजाक करते हुए 'चोरी की सफाई' प्रकाशित की। मुंशी नवजादिकलाल के नाम का रूपान्तर किया-हाल पैदालाल, निराला का अनोखेजी और 'मतवाला' आफिस का पागल-आफिस।


अनोखजी की चोरी का भंडाफोड़ हुआ तो उन्हें यह हिकमत बतलाई गई: " साहित्यिक चोरी के मामले में सबसे पहली बात तो यह करनी चाहिए कि उसे उच्च उद्देश्यों द्वारा प्रेरित कुछ इस प्रकार का प्रयत्न बतलाना चाहिए जो अपनी गरीबी या अमौलिकता के कारण नहीं बल्कि किसी भाषा के हित में किया गया है। अनोखेजी के संबंध में अब आप जब कभी समर्थन-लेख लिखें जब उसमें यह लिखियेअनोखेजी हिंदी और बंगला में सादृश्य देखना चाहते है...लेकिन यह याद रहे कि मौलिकता के दावे में जरा भी शिथिलता आने देना ठीक न होगा। मौके पर असर डालने और काम निकालने के लिए 'अनोखे कविजी' को संस्कृत और फारसी आदि भाषाओं का मर्मज्ञ कवि कहने में नैतिक दृष्टि से कुछ भी बुराई नहीं है। मेरा तो ख्याल यह है कि जिस तरह अपद्धर्म में मनु महाराज ने चमड़े के बेग में रखकर रोटी हाली के मुसद्दस से प्रभावित होकर उन्होंने 'भारत-भारती' लिखी थी, माइकेल मधुसूदन दत्त के 'वीरांगना' काव्य का हिंदी अनुवाद कर चुके थे।


ज्यादा अच्छा होता कि राष्ट्रवादी कवि छायावादियों के साथ मिलकर नायिकाभेद और समस्यापूर्ति वाली परम्परा का मूलोच्छेद करते। पर उन्हें लग रहा था कि छायावादी कवि उनकी गद्दी छीन ले रहे हैं। उन्होंने रीतिवादियों के साथ मिलकर छायावाद पर आक्रमण किया। 'भावों की भिड़न्त' छायावादी कविता पर एकांगी आक्षेप थाउसमें छायावादी कविता के पक्ष में कुछ भी न कहा गया था। उससे 'मनोरमा' जैसी पत्रिकाओं को बल मिलता था जो सारी नयी कविता को बंगलाअंग्रेजी की नकल कहकर बदनाम कर रही थी। सत्य का आभास देने वाला यह लेख निराला के प्रति भी अन्याय था। भावापहरण की बात सही थी पर इस सही बात से यह गलत नतीजा निकाला गया था कि निराला का समस्त कवि-कर्म बंगला की नकल है, युगप्रवर्तन का दावा ढोंग है, उनकी मौलिकता की चर्चा धोखा है।


निराला को एक तेज झटका लगा। उन्हें अपने मित्रों की निगाह बदली हुई दिखाई दी। शायद उनकी प्रतिभा के विकास के लिए यह झटका जरुरी था। वह हिंदी-भाषियों में अपने को बंगला का अद्वितीय पंडित मानते थे। उनके मन में यह भ्रम पैदा हो गया था कि उनकी रूपांतर-कला किसी की पकड़ में न आयेगी। अब उन्हें मालूम हो गया कि बंगला जानने वाले और भी हिंदी लेखक हैं। भले ही वह बंगला के अद्वितीय पंडित न हों किन्तु वे उनके रूपांतर का मूल रूप ढूंढ़ सकते हैं, यह वह समझ गए। रूपांतर द्वारा बंगाली बंधुओं को हिंदी की ओर आकर्षित करने का वह तरीका छोड़ना आवश्यक था। निराला के बंगला-पांडित्य का एक परिणाम यह हुआ था कि गद्य में तो वह महावीरप्रसाद द्विवेदी को अपना गुरु कहते थे पर पद्य में भी उन्हें दूसरों से कुछ सीखना है, यह वह न मानते थे। 'भावों की भिड़न्त' ने उन्हें हिंदी कविता को अधिक आदर की दृष्टि से देखना सिखाया।


___कुछ समय के लिए हर तरफ 'भावों की भिड़न्त' की ही चर्चा रही। छायावाद के विरोधी बहुत ही प्रसन्न थे। नयी कविता के खोखलेपन का इससे बड़ा सबूत उनकी समझ में दूसरा न हो सकता था। अभी तक वह टेढ़े-मेढ़े छंदों और दुरुह शब्दावली की शिकायत करते थे, अब उनके हाथ एक मंत्र और लगा-यह सब बंगालियों की नकल है। छायावाद और निराला पर व्यंग्य कविताएं रची जाने लगीं। रीतिवादियों की सरस्वती मुखर हो उठी।"


इस विवाद से निराला क्षुब्ध और मर्माहत ही नहीं थे बल्कि अपने साथ किया गया उन्हें यह घोर अन्याय लगता था। वे सोचते थे, दो-चार कविताओं में यदि रवीन्द्रनाथ के भाव आ गए तो ऐसा क्या आसमान फट पड़ा। खुद रवीन्द्रनाथ ने कबीर, कालिदास और शैली का माल हजम नहीं किया? पर वह ठहरे प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर के नाती ! उन्हें कोई कुछ थोड़े ही कहेगा! स्वयं तुलसीदास ने नाना पुराण निगमागम सम्मतं के साथ क्वाचिदन्यतोपि कहकर सभी कवियों के लिए रास्ता साफकर दिया है। बड़े-बड़े कवियों का तो यह हाल है, ये मौलिकता बघार रहे हैं! 'मतवाला' में पचीसों कविताएं और छपी हैं, बताएं जरा, उनमें भाव कहां से लिए गए हैं। विवेकानंद का अनुवाद किया है, 'मतवाला' में प्रकाशित हुआ है। उसके साथ नोट छपा है कि यह स्वामी विवेकानेद की कविता का अनुवाद है। रवीन्द्रनाथ की 'विजयिनी' वगैरह के आधार पर जो कविताएं लिखीं, वे अनुवाद नहीं, रूपांतर हैं। उनके साथ यह नोट नहीं छपा कि वे रूपांतर हैं लेकिन 'प्रभा' का अंक निकलने से पहले 'मतवाला' में स्पष्टीकरण छप तो गया। तब और क्या चाहिए?


डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं- "महादेवप्रसाद सेठ इस तर्क-पद्धति से संतुष्ट न थे। निराला को लेकर कलकत्ते में न जाने कितनों से बैर मोल ले चुके थे। अभी तक चुनौती देकर कहते थे, जिसमें हिम्मत हो दिखाए, निराला ने भाव कहां से लिए हैं। 'मतवाला' की हेकड़ी मशहूर थी। अब लोग निराला पर, 'मतवाला' पर, महादेवप्रसाद सेठ पर हंसते थे।


महिषादल के बाद निराला ने कलकत्ते में जो एक स्नेह की दुनिया बसाई थी, वह जैसे अचानक उजड़ गई। कल तक जो उन्हें महान प्रतिभाशाली और युगप्रवर्तक कवि मानते थे, अब उन्हें संदेह की निगाह से देखने लगे। 'मतवाला' के लिए गद्य, पद्य, आलोचना, व्यंग्य, कहानी क्या नहीं लिखा। कम्पोजीटर मैटर के लिए सामने खड़ा है, मशीन की घड़घड़ाहट के बीच निराला ने मुखपृष्ठ के लिए जल्दी से कविता पूरी करके दी। निराला ने अपनी मेहनत का सौदा नहीं किया। दोस्त की तरह काम किया। जितनी इज्जत पाई, उससे ज्यादा महादेवप्रसाद को दी। शिवपूजन सहाय इसी में मारे गए। अब निराला की बारी है।


___'मतवाला' में काम करते निराला को लगा था, और सब हिंदी लेखक उनके कंधे तक हैं, उनका सर सबके उपर है। वह ऊंचा सर क्या इन मित्रों को अब नहीं दिखाई देता? कहते थे, निराला को पाकर 'मतवाला' अपने को धन्य समझता है। अब क्या हो गया? यह वही युग-प्रवर्तक निराला है या कोई दूसरा? कोई बात नहीं।


उत्पस्यते च मम कोअपि समानधर्मा


कालोहयं निरवधिविपुला च पृथ्वी।


बहत-सा काम करना है। लेकिन अब 'मतवाला' के लिए कविताएं न लिखेंगे। पर 'मतवाला' के लिए न लिखें तो लिखें किसके लिए?


निराला मुंशी नवजादिकलाल के पास आये। चालीस रुपये लिए और गढ़ाकोला के लिए रवाना हो गए।"


'भावों की भिड़न्त' पर उठे इस विवाद की अनुगूंज देर तक बनी रही। इस विवाद ने निराला के कवि को क्षत-विक्षत कर दिया। उन पर लगे नकल के आरोप के कारण उनके कवि की विश्वसनीयता खत्म हो गई। 'मतवाला' से भी उनकी छुट्टी हो गई बल्कि अब कलकत्ता में रहना उनके लिए दूभर हो गया। इसके बाद निराला का वनवास काल आता है। निराला को अपने प्रिय जनों की मृत्यु से जिस तरह सदमा पहुंचा था, कुछ-कुछ वैसा ही इस लेख के छपने से पहुंचा सबसे दुखद बात तो यह है कि अभी तक ठीक से यह पता नहीं चला कि 'भावों की भिड़न्त' का लेख का असली लेखक कौन था-मुंशी अजमेरी या मैथिलीशरण गुप्त ।


संदर्भ1-रामविलास शर्मा-निराला की साहित्य साधना 2- नंदकिशोर नवल-संपादक-निराला रचनावली 3- कर्मेन्दु शिशिर-सं.मतवाले का मत 4- नंदकिशोर नवल-निराला कृति से साक्षात्कार 5- नामवर सिंह-छायावाद 6-मतवाला