प्रदीप चौबेः ठहाकों का उद्घोष और गजल की संवेदना

आलेख


संतोष चौबे


अपने गुस्से पे फिदा रहता हूं


मैं ज़माने से खफा रहता हूं।


मझसे मिलना है तो तन्हाई में मिल


मैं अकेले में खुदा रहता हूं।


अभी अभी तो उनसे मुलाकात हुई थी। लगभग तन्हाई में।


होली के दो-तीन दिन पहले मैं उनसे मिलने ग्वालियर पहुंचा था। खबर थी कि वे बीमार हैं, पैर की तकलीफ कुछ ज्यादा बढ़ गई है। पिछले दिनों पैर को लेकर काफी कष्ट में रहे थे और लंबे समय तक अस्पताल में भर्ती भी रहे। हार्ट और लिवर भी साथ छोड़ रहे थे। सबसे ऊपर था बेटे आभास के असमय चले जाने का दुःख, जिसे उन्होंने कभी जाहिर नहीं किया पर जो भीतर ही भीतर गहराता जा रहा था।


वे अपनी उसी मस्ती से मिले जो उनकी पहचान थी। वे कपिल शर्मा के शो से हाल ही में लौट कर आये थे, उस पर मजे लेकर बात करते रहे। शो की देशभर में चर्चा थी। भोपाल के मित्रों के हालचाल पूछते रहे। अपनी छोटी कविताओं'आलपिन' के बारे में बताते रहे और अपनी गजलों की किताब 'खदा गायब है' का जिक्र भी किया। वे पढ़ने के बारे में गंभीर थे और लगभग सारा नया लिखा हुआ पढ़ते थे। मेरी सारी किताबें और अधिकतर कहानियां उनकी नजरों से गुजरी थीं। 'क्या पता कॉमरेड मोहन' और 'जलतरंग' के वे बड़े प्रशंसक थे। सो उनपर भी बातचीत हुई। भोपाल के मित्रों महेंद्र गगन, मुकेश वर्मा और ज्ञान चतुर्वेदी के हालचाल पूछते रहे और ग्वालियर के साथियों पवन करण, महेश कटारे तथा परितोष के हालचाल बताते रहे। वनमाली सृजन पीठ के कार्यक्रमों में वे नियमित रूप से भोपाल आते थे और उसके व्यवस्थित कार्यक्रमों के बड़े प्रशंसक थे। सी.वी. रामन विश्वविद्यालय, खंडवा के बनने में उनका भी कुछ योगदान था। सो उसके भी हालचाल लिये गये। पूरी बातचीत में वही मजाकिया अंदाज, बीच-बीच में गूंजते ठहाके और दुनिया को देखने की वही तिर्यक दृष्टि। इस बातचीत के दौरान उन्होंने कहीं जाहिर नहीं होने दिया कि वे कष्ट में हैं, हालांकि उनके बैठने के अंदाज से वह साफ जाहिर हो रहा था। सामने ड्राइंग रूम की दीवार पर लिखा आप्त वाक्य चमक रहा था- सब चलता है, यहां नहीं चलता है।


ऊपर से दिखने वाले हंसोड़ और लापरवाह व्यक्तित्व के पीछे एक गंभीर, अध्ययनशील और व्यवस्थित प्रदीप चौबे छुपे हुये थे। घर पूरी तरह साफ सुथरा और चाक चौबंद, घर में एक व्यवस्थित अध्ययन कक्ष जिसमें करीने से जमी किताबें, घर में ही एक छोटा सा स्टूडियो जिस पर प्रदीप खुद रिकॉर्डिंग और एडिटिंग करते थे। कम लोग ही जानते हैं कि प्रदीप की ध्वनि और संगीत को लेकर बहुत गहरी समझ थी। वे संगीत और रिद्म की बारीकियां भी समझते थे और रिकॉर्डिंग-एडिटिंग की टेक्नॉलॉजी भी। इस बार की यात्रा में विनीता जी भी साथ थीं जिन्होंने अपनी पत्रिका 'चतुर्वेदी चंद्रिका' में प्रदीप चौबे को कई बार रेखांकित किया और उनकी रचनाओं को स्थान दिया था। प्रदीप उन्हें अपना अध्ययन कक्ष और स्टूडियो दिखाते रहे, उन्होंने विनीता को खुद के द्वारा चयनित फिल्मी विवाह गीतों का कलेक्शन ऑडियो कैसेट के रूप में भेंट किया और एक बार धीरे से कहा-मैंने बहुत काम किया संतोष। मैं चाहता हूं कि मेरा अध्ययन कक्ष इसी तरह बना रहे। वे 'खुदा गायब है' की गजलों को अपना असली कविरूप मानते थे। उस किताब की भूमिका पढ़ना, उसमें तुम्हें मेरी गजल के करीब जाने की कहानी मिलेगी-उन्होंने कहा था।


ऊपर से दिखने वाले हंसोड़ और लापरवाह व्यक्तित्व के पीछे एक गंभीर, अध्ययनशील और व्यवस्थित प्रदीप चौबे छुपे हुये थे। घर पूरी तरह साफ सुथरा और चाक चौबंद, घर में एक व्यवस्थित अध्ययन कक्ष जिसमें करीने से जमी किताबें, घर में ही एक छोटा सा स्टूडियो जिस पर प्रदीप खुद रिकॉर्डिंग और एडिटिंग करते थे। कम लोग ही जानते हैं कि प्रदीप की ध्वनि और संगीत को लेकर बहुत गहरी समझ थी। वे संगीत और रिद्म की बारीकियां भी समझते थे और रिकॉर्डिंग-एडिटिंग की टेक्नॉलॉजी भी। इस बार की यात्रा में विनीता जी भी साथ थीं जिन्होंने अपनी पत्रिका 'चतुर्वेदी चंद्रिका' में प्रदीप चौबे को कई बार रेखांकित किया और उनकी रचनाओं को स्थान दिया था। प्रदीप उन्हें अपना अध्ययन कक्ष और स्टूडियो दिखाते रहे, उन्होंने विनीता को खुद के द्वारा चयनित फिल्मी विवाह गीतों का कलेक्शन ऑडियो कैसेट के रूप में भेंट किया और एक बार धीरे से कहा-मैंने बहुत काम किया संतोष। मैं चाहता हूं कि मेरा अध्ययन कक्ष इसी तरह बना रहे। वे 'खुदा गायब है' की गजलों को अपना असली कविरूप मानते थे। उस किताब की भूमिका पढ़ना, उसमें तुम्हें मेरी गजल के करीब जाने की कहानी मिलेगी-उन्होंने कहा था।


ग्वालियर से लौटते समय हम लोग यू ट्यूब पर उपलब्ध उनके वीडियो देखते रहे जिसमें उनके प्रशंसकों की संख्या लाखों में थी। प्रदीप कवि सम्मेलनों के नायक हआ करते थे। उनके खडे होते ही ठहाके शरू हो जाते थे। और फिर उनके चटीले संवादों. आलपिनों और कविताओं के बीच ठहाकों का उदघोष बढ़ता ही जाता था। चाहे वह उनकी शवयात्रा' नामक कविता हो चाहे 'भारतीय रेल' पर उनका व्यंग्य, वे श्रोताओं को ठहाके लगाने पर मजबूर कर देते थे। वह उत्तर प्रदेश का बाराबंकी हो या छत्तीसगढ़ का महासमुंद, देश के बड़े शहरों में शामिल मुंबई हो या राजधानी भोपाल, प्रदीप चौबे का आना कवि सम्मेलनों की सफलता की गारंटी था। उन्होंने अमेरिका, कनाडा, थाईलैंड, सिंगापुर, दुबई, बेल्जियम, स्विटज़रलैंड, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, मॉरीशस, इंग्लैंड जैसे अनेक देशों में भी अपनी कविताई की धूम मचाई जहां उनके हजारों प्रशंसक पाये जाते हैं।


मैं सोचता रहा कि ठहाकों के इस उद्घोष के पीछे गजल की उनकी संवेदना कैसे बची रही होगी? उनकी कविता की वास्तविक ज़मीन क्या है? कैसे उसका निर्माण और विस्तार हुआ? इसकी तलाश जरूर करूंगा। और यह तलाश करते हुये मैं उनके गजल संग्रह 'खुदा गायब है' तक पहुंचा, जिसके पहले पन्ने पर उन्होंने बहुत ही खूबसूरत हस्तलिपि में लिखा था-प्रिय भाई संतोष को सप्रेम, सादर। मैंने गजलें पढ़ना शरू किया। एक से एक शानदार गजलें। 'अपने गुस्से पे फिदा रहता हूं', 'इक कहानी और क्या, जिंदगानी और क्या', 'कैसी सौंधी खुशबू है, लगता है मिट्टी, तू है' जैसी सौ से अधिक गज़लें उनमें से कई छोटी बहर की गजलें जिन्हें कहना कठिन माना जाता है। गजल के अनुशासन में कहीं कोई कमी नहीं। कहन में वही बांकपनप्रदीप ने मुझे चकित कर दिया। फिर मैं उनकी भूमिका की ओर लौटा जिसका उन्हें जिक्र किया था और जहां सबसे पहले गुलज़ार साहब का अभिमत चमक रहा था।


चौबे जी हैरत में डालते हैं। उर्दू पर ऐसी पकड़, ऐसी साफ जबान हैरान करती है। खुशी इस बात की है कि वे गाढ़ी उर्दू की बजाए हिन्दोस्तानी लबो-लहजे वाली भाषा से काम लेते हैं। बेहद सलीस और महफूम को सीधे पहुंचाने वाली आसान जुबान । हिन्दी भाषी रीडर को भी लुगत (डिक्शनरी) उठाने की जहमत नहीं। मौजूदा वक्त के फिक्रो-फन से लबरेज उनके कई-कई अश्आर बेहद जदीद और सीधे जहन में उतर जाते हैं। कहीं बनावट नहीं, कोई दिखावा नहीं। मैं उन्हें ठीक से नहीं जानता लेकिन इन गजलों से उन्हें सरापा समझ तो रहा ही हूँ।    -गुलजार


अपनी इस गजल यात्रा के बारे में खुद प्रदीप बताते हैं:


"इत्तेफाक से मेरी किशोरावस्था एवं घनघोर जवानी (1958 से 1970) एक मुस्लिम बहुल इलाके में गुजरी। चारों ओर मुसलमान और मुस्लिम संस्कृति वाला छोटा-सा एक खंडहर नुमा विपन्न कस्बा। अधिकतम आबादी बत्तीस हजार। यह अतीत में एक मुस्लिम शासक द्वारा किले के परकोटे में बसाई गई मुस्लिम रियासत थी। आजादी आने के बाद रियासतें चली गईं और एक नए रूप में बस्तियां बसने लगीं। यह बस्ती भी अपने पारंपरिक रियासती नाम 'ऐलिचपुर' से हट कर अचलपुर' कहलाई जिसमें स्वातंत्र्योत्तर विकास के साथ ही हिन्दू और महाराष्ट्रीयन लोग भी शामिल होते गए। संक्षेप में जिस अचलपुर शहर में मैं अपने परिवार के साथ जी रहा था, वहां बहुत बड़े प्रतिशत में मुस्लिम समाज तथा बहुत छोटे प्रतिशत में हिन्दू और मराठी समाज के लोग थे। यह अचलपर शहर आज भी जस का तस महाराष्ट्र के अमरावती जिले में अवस्थित है। उतना ही विपन्न, खस्ता हाल और अबाध जिन्दगी जीता हुआ।


मेरे पिता मध्यप्रदेश से इस अचलपुर में एक सिनेमा टॉकीज के मैनेजर पदस्थ होकर आए थे। हमारा भरा-पूरा परिवार था। मेरी उम्र कोई 12 या 13 वर्ष । मुस्लिम समुदाय इस सीमा तक बहुसंख्यक था कि 'बियाबानी' नामक जिस मुहल्ले में हम रहते थे, वहाँ एक मात्र हिन्दू परिवार हमारा ही था। शहर में कुल जमा पाँच मन्दिर और लगभग तीस मस्जिदें थीं। सुबह की अजान सुनकर हमारी भी नींद खुलती थी। यह सामुदायिक सौहार्द्र से भरपूर नगर था। इतने लम्बे-चौड़े इतिहास में कभी, कहीं कोई जातिगत दुर्घटना न सुनी गई। एक बड़ा मीठा-सा माहौल चारों तरफ रहता था। हमारा परिवार विस्थापित होकर मध्यप्रदेश के एक बड़े शहर से आया था परंतु शहर की मिलनसार प्रकृति ने शीघ्र ही हमें अपना लिया और जिन्दगी मस्ती में कटने लगी।


यह मेरे हाई स्कूल के दिन थे। हाईस्कूल के तीन साल और बाद के कॉलेज के तीनों सालों में मेरी अत्यन्त आत्मीय मित्र मंडली उर्दू-भाषी मुस्लिम दोस्तों की ही रही। हालांकि मेरी शैक्षिक व पाठ्यक्रम की भाषा हिन्दी थी परन्तु मेरा गुजारा उन्हीं दोस्तों में होता। मुझे अच्छी तरह याद है कि बी.ए. फाइनल की क्लासेज में हम हिन्दी के विद्यार्थी कुल जमा बारह-पन्द्रह ही थे, शेष सभी उर्दू या मराठी मीडियम के थे।


हालांकि अचलपुर भौगोलिक रूप से बहुत पिछड़ा शहर था, परन्तु इसकी एक खासियत बहुत ज़ोरदार थी कि वहां शायर बहुत अच्छे थे। अशिक्षा और गरीबी के बावजूद शायर उम्दा और पर्याप्त संख्या में थे। शहर में उर्दू कवि-गोष्ठियां नियमित रूप से होती रहती थीं जिन्हें 'नशिस्त' कहा जाता था। मेरे समवयस्क मुस्लिम मित्र अपने साथ मुझे भी वहां कविता सुनवाने ले जाते थे। मुझे वह सब सुनना बहुत अच्छा लगता। लगता कि मुझे भी कुछ ऐसा करना चाहिए। उस उम्र में मुझे इस बात का जरा भी इल्म न था कि मेरे भीतर भी कला के जीवाणु रेंग रहे हैं। उन गोष्ठियों यानी नशिस्तों में ज्यादातर गजलें पढ़ी जातीं। हर शायर गजल के शेर पेश करता। उनका अन्दाजे-बयां बड़ा ही हृदयग्राही होता। मैं बड़ा ही प्रभावित होता। घर आकर अकेले में गजल कहने की कोशिश करता। हालांकि सफलता मझे बिल्कल न मिलती लेकिन इतना तो मैं समझ ही गया कि गजल की वास्तविकता क्या है। उसकी वैज्ञानिकता क्या है और कैसे छा जाता है उसका जाद! एक बड़ी घटना जो इस अचलपर शहर में बिला नागा हर वर्ष होती थी. वह ईद के बाद तीसरे दिन होने वाला ऑल इंडिया मुशायरा था। यह मेरे लिए हर बार एक चमत्कारिक अनुभव होता थाशायरी की उन महान महफिलों ने मुझे बहुत आन्दोलित किया। और धीरे से गजल ने मेरे दिल में पक्का घर कर लिया।


ग़ज़ल में मेरी गहरी दिलचस्पी से इसके रहस्य मेरे सामने खुलने लगे, खुलते गए। मैंने देव नागरी में उपलब्ध उर्दू के अधिकतम शायरों का गहराई से अध्ययन किया। यह हिन्द पॉकेट बुक्स का जमाना था। हिन्दी के साथ-साथ ऊर्दू की लोकप्रियता को भुनाने के लिए यह प्रकाशन उर्दू प्रकाशन में भी अग्रणी था। इससे मुझे गजल के अध्ययन में काफी सुविधा हुई और प्रेरणा भी।


गजल की ओर गहरे झुकाव का एक और मनोवैज्ञानिक कारण था। पिता सिनेमा मैनेजर थे। प्रायः हर फिल्म हमारे परिवार को देखने मिलती थी। यह युग हिन्दी सिनेमा का स्वर्णयुग था। सामाजिक सरोकारों से जुड़ी सोद्देश्य फिल्में खूब आती थीं। फिल्मों का प्रमुख आकर्षण ढेर सारे गीत और उनमें बयां कर्णप्रिय संगीत होता था। उस समय के चमकदार और लोकप्रिय गीतकारों में अधिकतम गीतकार कुछ अपवादों को छोड़कर उर्दू-भाषी मुस्लिम ही थे। जैसे साहिर, शकील, मजरूह, हसरत, राजेन्द्र कृष्ण, राजा मेहदी अली खाँ, असद भोपाली, कैफी आजमी आदिआदि। उर्दू के लोकप्रिय नामधारी गीतकार थे जिनके बेशुमार गीतों से फिल्में सजी रहती थीं। यद्यपि समानान्तर रूप से हिन्दी-भाषी गीतकारों का भी जलवा था, जैसे शैलेन्द्र, भरत व्यास, इन्दीवर, प्रदीप आदि भी हिन्दी सिनेमा के आधार स्तंभ गीतकार थे परन्तु समूची फिल्म में उर्दू का वातावरण ही छाया रहता था। गीतों में भी और फिल्म के संवादों में भी। यद्यपि इन सभी फिल्मों को प्रमाण-पत्र 'हिन्दी भाषा' का ही दिया जाता था परन्तु वास्तविकता यही थी कि व्यवहार में उर्दू या हिन्दोस्तानी जबान ही छाई हुई थी। इस कारण भी मेरे लिखने-पढ़ने और बोलने पर उर्दू का ही अधिकार रहा। कहने का अर्थ यह कि उर्दू ने पूरी तरह मेरे सामान्य जीवन व व्यवहार को अपनी गिरफ्त में ले लिया। ग्रेजुएशन पूरा होने तक मैं ठीक-ठाक सी गजल कहने लगा था। शहर के गुणवंत और परिपक्व शायरों का आश्रय भी मुझे खूब मिला। उन्हें एक हिन्दी-भाषी या कहिए हिन्दू शख्स का उर्दू की तरफ खिंचना और गजलें कहना अच्छा लगता। वे मेरी बहुत मदद करते। अच्छा-बुरा सब ठीक करते। उनकी सोहबत और मुहब्बत से मुझे गजलें कहने के शऊर का बहुत लाभ मिला। उनमें कइयों के नाम और ऐहसान मुझे आज भी याद आते हैं।"


तो ये थी प्रदीप के उर्दू गजल की ओर खिंचाने की कहानी। हास्य व्यंग्य की ओर लौटने का श्रेय वे पवन दीवान और रामावतार चेतन को देते हैं। छत्तीसगढ़ और ग्वालियर के अपने अनुभवों को शेयर करते हुये वे कहते हैं:


 "छत्तीसगढ़ के एक अत्यन्त लोकप्रिय संत-पुरुष जो जन-कवि भी थे, पवन दीवान । वे सचमुच ही संत-पुरुष थे। छत्तीसगढ़ी और हिन्दी में गीत लिखते थे। पूरे छत्तीसगढ़ के काव्य-मंचों और सामाजिक जीवन में उनकी तूती बोलती थी। उनके अनन्य प्रेम और सान्निध्य का मुझे सौभाग्य मिला। बातचीत के मेरे विनोदी लहजे के वे बड़े प्रेमी थे। उन्होंने मेरे विश्वास के विरुद्ध मुझे यकीन दिलाया कि मेरे भीतर एकसफल हास्य-कवि की पूरी संभावना है। अस्ल में उन्हें अपने काव्य-मंच 'बिम्ब' के लिए एक हास्य-कवि की आवश्यकता थी। मुझमें वे यह संभावना तलाशते थे। मुझे यह असंभव तथा अव्यावहारिक जान पड़ता था। मैं अलर्निश गजल-ऐडिक्ट था, कुछ और सोच ही नहीं सकता था, परन्तु कहानी को बहुत संक्षिप्त कर देने के लिए मुझे कहना पड़ेगा कि मुझे समझा-समझा के, पीछे पड़-पड़ के उन्होंने मुझसे कुछ हास्य कविताएं लिखवा ही लीं। आश्चर्यजनक रूप से वे जनता में सफल रहीं, एक सफल हास्य-कवि के रूप में मेरी तत्कालीन छत्तीसगढ़ में खांटी पहचान बन गई और बैक-ग्राउंड में गजल-संसार भी फूलता-फलता रहा।


ग्वालियर पहुंचने के बाद सौभाग्य से मेरा सम्पर्क अनायास मुम्बई के श्री रामावतार 'चेतन' से हुआ। वे मुम्बई की एक जानी-मानी साहित्यिक शख्सियत थेउनका सालाना 'चकल्लस' हास्य-महोत्सव एक बहुत बड़ा प्लेटफार्म था जिसका पूरे देश में दबदबा था। इस 'चकल्लस' समारोह ने कई अनजान मगर सुयोग्य प्रतिभाओं को अवसर देकर बड़ा बनाया। मुझ पर भी चेतन जी की कृपा रही। उन्होंने लम्बे अरसे तक 'चकल्लस' में मेरा उपयोग किया। संक्षेप में कहूंगा कि आज हास्य-व्यंग्य में मैं जो कुछ हूँ, जितना भी हूं, उनकी सदाशयता से हूं।"


उनसे अक्सर मुलाकात अचानक किसी कवि सम्मेलन में, ट्रेन या हवाई जहाज में यात्रा करते हुये या वनमाली सृजन पीठ के किसी कार्यक्रम में हो जाती थी। एक बार वे और विनीता भाभी पूरा दिन निकाल कर घर आये थे और हम लोगों के साथ रहे। मेरा घर देखा, इंस्टीट्यूशन में साथ गये, बहुत देर तक स्टूडियो में बैठे और होलियां तथा कविता यात्रा सुनते रहे। इस बीच कई बार उन्होंने 'शानदार' कहा, कई बार उनकी आंखें भीगीं, कई बार उन्होंने भैया, आनंद चौबे, दादा और परिवार के अन्य सदस्यों को याद किया। मेरी कहानियों या उपन्यासों पर पूरी तरह मुतमईन होने के बाद वे लंबे फन किया करते थे, कुछ सलाहियत भी कुछ तुलना भी। मैं कह सकता हूँ कि मुझ पर उन्हें गहरा स्नेह और गर्व दोनों थे।


इस बार ग्वालियर से लौटे करीब दस दिन ही हुये थे कि उनके निधन की खबर आ गई। अभी तो मैं उनकी गजलों और रचना संसार से परिचित ही हो रहा था। उस पर उनसे बात करने का अवसर नहीं मिला। ग्वालियर में उनकी अंतिम यात्रा में हमारा पूरा परिवार और ग्वालियर का उनका परा वहद परिवार शामिल थाअशोक चक्रधर, संपत सरल, अरुण जेमिनी सहित हास्य व्यंग्य के सभी दिग्गजसबकी जुबान पर एक ही बात-चौबेजी हमारे दोस्त थे, और फिर उनका कोई किस्सा। एक अबूझ किस्म की निराशा। कुछ बहुत प्यारी चीज गुम जाने का दुखएक आशा-अभी कुछ दिन और रहते।


इस बार ग्वालियर से एक खालीपन और सेंस ऑफ लॉस के साथ लौटा। उसमें प्रदीप के साथ-साथ शैल भैया, दादा और परिवार के बुजुर्गों की याद भी शामिल थी। आंसू आना ही चाहते थे पर मैंने प्रदीप के ठहाकों की याद करते हुये उन्हें रोका। निश्चय किया कि उसकी स्मृति में हास्य व्यंग्य का एक राष्ट्रीय सम्मान शुरु करूंगा। देखिये, कब हो पाता है। फिलहाल तो मेरे साथ हैं उसके ठहाकों का उद्घोष और गजल की संवेदनशील, सलीकेदार रवायत।


प्रदीप चौबे की ग़ज़लें


अपने गुस्से पे फिदा रहता हूं


मैं जमाने से खफा रहता हूं


मुझसे मिलना है तो तन्हाई में मिल


मैं अकेले में खुदा रहता हूं


मुझे पढ़ना है तो आईने में पढ़


तेरे चेहरे पे लिखा रहता हूं


आप ही मुझसे नहीं हैं नाराज


मैं भी अपने से खफा रहता हूं


आईना टूट गया, ठीक हुआ


अपने चेहरे से बचा रहता हूं


 


इक कहानी और क्या


जिंदगानी और क्या


चाहता है पेड़ बस


धूप, पानी और क्या


प्रेम का मतलब तो प्रेम


इसके मानी और क्या


रंग, मस्ती, ख्वाब, फूल


नौजवानी और क्या


शोरगुल, गर्दो-गुबार


राजधानी और क्या


शाप भी, वरदान भी,


जिन्दगानी और क्या!


 


समुंदर की कहानी जानता हूं


बहुत प्यासा है पानी, जानता हूं


हमारे शहर में बादल हैं लेकिन


कहां बरसेगा पानी, जानता हूँ


मुहब्बत, प्यार, खुश्बू, दोस्ती, दिल


मैं सब लफ्जों के मानी जानता हं


वो चुप रहकर भी क्या-क्या कुछ कहेगा


मैं उसकी बेजुबानी जानता हूं


तेरे किस्सों में आखिर क्या मिलेगा


वही राजा या रानी, जानता हूं


बहुत चीखेगा, फिर रोने लगेगा


तेरी आदत पुरानी जानता हूं


मुझे नीलाम कर देगी किसी दिन


तुझे ऐ जिंदगानी! जानता हूं


4


कैसी सौंधी खुशबू है


लगता है मिट्टी, तू है


बचपन लौट के आया है


जानी-पहचानी बू है


अगर नहीं तो कहीं नहीं


वरना है तो हर सू है


सबको साधे रखता है


दिल बेचारा साधू है


क्या है साहब ये दुनिया


ज़िन्दा लाशों की क्यू है!


सब कुछ चलता रहता है


जाने जैसा जादू है


शब भर जागा करता है


इश्क भी गोया उल्लू है


फूलों वाले! जानता हूं


तेरे जहन में चाकू है


गूंज रही है तन्हाई


क्या मेरे घर में तू है


5


ढूंढ़ ता हूं मगर नहीं मिलता


मुझको मेरा खुदा कहीं मिलता


अब अगर है यही हमारा खुदा


तो यही ठीक था, नहीं मिलता


हम अगर आसमान में गिरते


तो यही आसमां, जमीं मिलता


तू अगर मुंतजिर हमारा था


तुझको छोड़ा जहाँ, वहीं मिलता


मैं ही खुद ढूँढने से बचता रहा


वरना मिलता वो, बिलयकीं मिलता


6.


हम कितने नादान रहे


अपने से अनजान रहे


मेरी कोशिश इतनी है


मुझमें इक इन्सान रहे


अपने मसीहा से कहना


कुछ मेरा भी ध्यान रहे


रामायण, गीता के संग


गजलों का दीवान रहे


एक जमाना था प्यारे!


सुख मेरे दरबान रहे


फिर वो जमाने भी आए


दुःख बरसों मेहमान रहे


7.


रंगो-बू, आबो-ताब, क्या-क्या थे


जल चमन में गुलाब क्या-क्या थे


नींद टूटी तो घुप अंधेरा था


ख्वाब में आफताब क्या-क्या थे


दोस्त-एह बाब, नाते-रिश्तेदार


जिन्दगी भर अजाब क्या-क्या थे


इक तकल्लुफ था, रह गए खामोश


वरना लब पर जवाब क्या-क्या थे


हुस्न था, इश्क था, जमाना था


जीस्त में इंकलाब क्या-क्या थे


खैर समझो भुला दिए हमने


वरना तुमसे हिसाब क्या-क्या थे


कहकशां, आसमान, सय्यारे


खाकसारों के ख्वाब क्या-क्या थे


8.


तुमको तो सुब्हो-शाम दिवाली है सेठ जी!


अपने लिए तो जिन्दगी, गाली है सेठ जी!


ये जो तुम्हारे जिस्म पे लाली है सेठ जी!


तुमने मेरे लहू से चुरा ली है सेठ जी!


तुमने चबा लिए तो चने शौक हो गए


हमने जो खा लिए तो जुगाली है सेठ जी!


आकर हमारे गाँव की सेहत तो देखिए


ये भी हमारे पेट-सा खाली है सेठ जी!


भेजा है तुमने जिसको तकाज़े के वास्ते


वो आदमी नहीं है, दुनाली है सेठ जी!


हरखू बुखार में है उसे मत जगाइये


उसने अभी-अभी तो दवा ली है सेठ जी!


कुछ ऊँच-नीच मुँह से निकल जाए तो छिमा


हमने जरा-सी आज लगा ली है सेठ जी!