जाम का पेड़

कहानी


आशीष श्रीवास्तव


दादीजी अपने बेटे-बहू और पोती के साथ नये मकान में रहने आयीं, तो देखा मोहल्ले में हरियाली का नामोनिशान नहीं। कहीं पर भी पेड़ नहीं, फलदार पेड़ तो मोहल्ले के आसपास भी नहीं दिख रहे थे। लोगों ने कुछ पौधे अवश्य गमलों में उगा रखे थे, लेकिन वे असली हैं या नकली, ये भ्रम था। दादीजी ने मन ही मन विचार किया कि वे अपने घर के बाहर अवश्य ही फलदार पेड़ लगायेंगी। ये सोचकर वे बारिश की प्रतीक्षा करने लगीं।


बारिश आई तो उन्होंने अपने घर के बाहर खाली भूमि पर कुछ बीज लाकर डाल दिये । समय पर खाद-पानी देने से बीज अंकुरित हो गए और पौधा हरे पत्तों के साथ लहलहाने लगा। समय के साथ पौधा बड़ा होता गया। चूंकि मोहल्ले में एक ही पेड़ था, इसलिए वह तेजी से बढ़ता गया। कुछ वर्षों बाद पेड़ में हरे-हरे फल दिखाई देने लगे। ये फल अमरूद के थे और बहुत मिठास लिये हुए थे। इस पेड़ की विशेषता थी कि पेड़ में सर्दियों के मौसम के बजाय ग्रीष्म ऋतु में अमरूद के फल लगते । पके हुए अमरूद के फल जब किसी कमरे में रख दिये जाते तो पूरा कमरा अमरूद की सुगंध से भर जाता। पेड़ घना होता गया तो पेड़ पर तरह-तरह के पक्षियों, गिलहरियों ने भी डेरा डाल लिया। सुबह-सुबह पक्षी पेड़ पर कलरव करतेदादीजी अपने बेटे-बहू के साथ रंग-बिरंगे पक्षियों की अठखेलियां देखा करतीं और खुश होतीं। दादीजी अपनी पोती को पक्षियों के बारे में बतातीं, कहती-तुम्हारे दादाजी को भी बागवानी का बहुत शौक रहा।


 समय बीतता गया। एकल मकान वाले मोहल्ले में दो मंजिला, तीन मंजिला मकान बनने लगे, कई किरायेदार भी बाहर से आकर इन मकानों में रहने लगे, जिससे मोहल्ले के कुछ घरों में सॅकरे पाइपों से मल-जल निकासी की समस्या उत्पन्न हो गई। जब समस्या बढ़ी तो मोहल्ले के कुछ लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि पेड़ की जड़ें भूमि में काफी फैल गई हैं जिससे मल-जल निकास में समस्या आ रही है। कुछ कहने लगे पेड़ के कारण पूरी सड़क पर सूखे पत्ते गिरते रहते हैं इससे हमारे मोहल्ले में सफाई नहीं दिखाई देती। ये सुनकर दादीजी को अच्छा नहीं लगा, उन्होंने एक बाग के माली से पता किया तो माली ने बताया कि अमरूद के पेड़ की जड़ें फैलती कम हैं और गहराई में अधिक उतरती हैं. इसलिए कोई समस्या नहीं। दादीजी निश्चिंत हो गईं।


अब अमरूद के पेड़ की कई शाखाएं-प्रशाखाएं निकल आई थीं। मोहल्ले में इकलौता फलदार पेड़ बहुत ही सुंदर लगता। दादीजी जब सुबह मंदिर दर्शन को निकलतीं तो देखती, कि यदि मोहल्ले में और भी फलदार पेड़ होते तो कितना अच्छा लगता, कितने ही लुप्त होते पक्षी इन पेड़ों पर बसेरा करते। इसी तरह गर्मियों का मौसम आ गया। भीषण गर्मी में जब कोई फेरी वाला यहां से निकलता तो कुछ देर अमरूद के पेड़ की छांव में विश्राम करता, आवारा श्वान भी घण्टों पेड़ के नीचे आराम करते । गर्मी की छुट्टियां लगते ही मोहल्ले में नाना-नानी के यहां कई बच्चे भी छुटिट्यां बिताने आए। बच्चों ने देखा कि मोहल्ले के एकमात्र पेड़ पर बहुत सारे हरेहरे अमरूद लगे हैं इसलिए वे पेड़ पर पत्थर मारकर तोड़ने लगे। दादीजी ने देखा तो वे खिड़की में से चिल्लायींजोर की आवाज सुनकर सभी बच्चे हंसते हुए दूर भाग खड़े हुए। दादीजी के चिल्लाने पर बच्चे तो भाग गए पर उनका मन अब भी अमरूद के लिए ललचा रहा था। उन्होंने योजना बनाकर अमरूद तोड़ने का निश्चय किया।


दोपहर में जब सूरज आग उगल रहा था दादीजी कूलर की हवा में घर के अंदर विश्राम कर रहीं थीं तब घर के बाहर रखे दादाजी के पुराने स्कूटर और घर के दरवाजे के सहारे कुछ बच्चे अमरूद के पेड़ पर चढ़ गए और अमरूद तोड़कर खाने लगे। बच्चों को रसीले अमरूद बहुत अच्छे लगे, कहने लगे। वाह, इतना मीठा लाल अमरूद तो उन्होंने पहले कभी नहीं खाया।


धीरे-धीरे अमरूद की प्रसंशा पूरे मोहल्ले के बच्चों में फैल गई और लड़के ही नहीं छोटी लड़कियां भी अमरूद के फलों को आते-जाते ललचाई नजरों से देखने लगीं। दादीजी ने सभी को अमरूद तोड़ने से मना कर रखा था। उन्होंने बताया कि अभी अमरूद के फल कच्चे हैं जब पक जाएंगे तो वे स्वयं बुलाकर सभी को अमरूद खाने को देंगी. पर बच्चे कहां मानने वाले थे। वे तो अवसर की ताक में रहतेऔर जब भी मौका मिलता अमरूद तोड़ने पेड़ पर चढ़ जाते। कई बार दादीजी उन्हें भगा चुकी थीं। जब कुछ शरारती बच्चे नहीं माने तो दादीजी ने एक डंडा रख लिया।


एक दिन दोपहर में जब तीन बच्चियां आकर दादाजी के पुराने स्कूटर पर खड़े होकर पेड़ की डालियां छूकर अमरूद तोड़ने का प्रयास कर रही थी, तभी अचानक स्कूटर पलट गया और एक बच्ची शांभवी नीचे गिरकर घायल हो गईशांभवी के चीखने की आवाज सुनकर दादीजी और उनके बेटे-बहू उठकर बाहर आए तो देखा मोहल्ले वाले एकत्रित हो गए हैं। बच्ची के घुटने से खून बह रहा था। सभी मोहल्लेवालों ने एक राय होकर दादीजी से पेड़ को कटवाने की बात कही। उन्होंने पेड़ के कारण होने वाली परेशानियां भी गिना दीं। बच्ची की हालत देखकर दादीजी का मन भी द्रवित हो गया। दादीजी ने बहुत अच्छे मन से पेड़ लगाया था और उन्हें लग रहा था कि उनकी देखा-देखी और लोग भी पेड़ लगायेंगे पर वे सभी पेड़ के विरोध में दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने पेड़ की ओर देखा और सोचने लगीं- ये क्या पढ़े-लिखे होकर भी लोग इस एक अकेले पेड़ के पीछे पड़ गये।


मोहल्ले वालों का मन रखने के लिए दादीजी ने पेड़ को छोटा रखने का निश्चय किया। उनका बेटा, अगले दिन सुबह ही समीप के मजदूर पीठे से लकड़हारे को ले आए। लकड़हारे ने पेड़ को देखा और अपनी पैनी कुल्हाड़ी से पेड़ के तने-टहनियों पर तीखे वार करना शुरू कर दिये। कुल्हाड़ी की आवाज सुनकर पेड़ में हलचल मच गई, पेड़ पर जितने भी तरह-तरह के छोटे-बड़े पक्षी थे वे यहां-वहां उड़ गएगिलहरी भी दूर छत पर उछल गई।


मोहल्ले वाले एकत्रित हो गए, जिन्होंने कभी बच्चों को पेड़ पर चढ़ने से नहीं रोका वे सब सलाहकार बन गए। कोई तारों को छूने वाले पेड़ के तने को छांटने की सलाह देने लगा तो कोई सड़क पर फैले कचरे को उठाकर ले जाने की बात कहने लगा। किसी ने कहा अब देखो कितना खुला-खुला लग रहा है। कोई बोला कितना उजाला हो गया। पड़ोसी ने पूछा लकड़हारे ने कितने लिये, दादीजी ने बताया कि ढाई सौ तो पड़ोसी ने कहा इतने में तो पांच किलो अमरूद बाजार से खरीदकर खा सकते थे। दादीजी ने सबके चेहरे की ओर देखा। मोहल्ले के लोगों के चेहरे खिले हुए थे. किसी को पेड के कटने का द:ख नहीं था।


 दादीजी ने सोचा वे बिना कारण ही इस पेड़ को देखकर खुश हो रही थीं, जबकि इस पेड़ को मोहल्ले में कोई नहीं चाहता। जिस पेड़ को बड़ा करने में कई वर्ष लगे वह पेड़ अब कुछ घंटे में कुछ पत्तों तक सिमटकर रह गया। पेड़ के नाम पर सिर्फ ढूंठ दिखाई दे रहे थे। शाम को पेड़ पर रहने वाले पक्षी आए अवश्य, पर कोई बिजली के खंभे पर जा बैठा तो कोई तारों पर झूलते हुए अपनी मुंडी-चोंच इधरउधर घुमाकर पेड़ की हालत देखते रहे। जैसे उन्होंने अतिक्रमण कर लिया हो औरआज उनसे पूछे बिना, हटा दिया गया हो। किसी भी पक्षी की कोई आवाज नहीं निकली जैसे अपने घर टूटने का शोक मना रहे हों, पक्षी कुछ देर इधर-उधर भटके, फिर चुपचाप पेड़ को देखने के बाद दूर कहीं उड़ गए। जिस पेड़ के फल तोते भी आकर खाया करते थे वे भी निराश लौट गए।


दादीजी पेड़ की हालत से अधिक, लोगों की पर्यावरण के प्रति बढ़ती उपेक्षा से चिंतित थीं। मोहल्ला बहुत ही सूना-सूना दिखाई देने लगा था, पर एक बार भी किसी ने पेड़ के कटने पर चिंता तो दूर, बात तक नहीं की थी। एक पत्रकार साथी को अवश्य ये कहते सुना गया कि अब पेड़ नगर निगम की अनुमति के बिना नहीं काटे जा सकते। अच्छा हुआ जो दादीजी ने पेड़ को जड़ से नहीं कटवाया।


दादीजी ने कहा जिस उद्देश्य से पेड़ लगाया था जब वही लोगों की समझ में नहीं आया तो अब पेड़ को जड़ से उखाड़ना ही ठीक रहेगा। दादीजी ने टूटे हुए तनों में लगे अधपके, कुछ कच्चे अमरूद के फल लिये और बच्चों में बांट दिये, वे दो फल लेकर उस घायल बच्ची शांभवी के घर भी गईं और बच्ची को देते हुए पूछा - अब दर्द कैसा है? बच्ची ने कहा दादीजी अब मैं अच्छी हूं।


अगले दिन जब दादीजी टहलने के लिए निकलीं तो वही घायल बच्ची शाम्भवी दादीजी के सामने आई। शाम्भवी ने पेड़ को देखा तो दु:खी हो गई। बोली, दादीजी पेड़ लगाना तो अच्छी बात है! आपने मेरी वजह से पेड़ कटवा दिया क्या? दादीजी को बच्ची का प्रश्न बहुत रोचक लगा, उन्होंने कहा नहीं बेटी तुम्हारी वजह से नहीं, मोहल्ले में कोई चाहता ही नहीं था कि यहां फलदार पेड़ हों। बच्ची बोली, नहीं दादीजी मुझे पता है पेड़ हमारे पर्यावरण के लिए कितने जरूरी हैं। पेड़ों से छाया, फल ही नहीं मिलते, हमें जीने के लिए ऑक्सीजन भी मिलती है। अब देखो एक भी चिड़िया नहीं दिखाई दे रही। दादीजी मुस्कुराई और आगे बढ़ने लगीं। तब बच्ची ने कहाः दादीजी! मैं लगाऊंगी पेड़! आप बताइए कैसे पेड़ लगाते हैं, पेड़ लगाने में कितना खर्च आता है। दादीजी ने कहा-अधिक नहीं बेटी, आपकी चाकलेट के जितने पैसों से पेड़ लगाया जा सकता है। पर इसके लिए बारिश तक रुकना होगा।


समय बीता। अंबर में काली घटाओं के साथ मानसून भी आ गया और झमाझम बारिश ने पूरे मोहल्ले को भिगो दिया। बच्ची को दादीजी की कही बात याद आ गई और वह बारिश थमते ही दादीजी के पास आकर बोली, दादीजी पेड़ लगाना है, आपने बताया था। दादीजी ने कहा बेटी तुम अकेले से नहीं होगा। तब बच्ची ने कहा, दादीजी मेरे साथ मेरी और भी सहेलियां, मित्र हैं हम सब मिलकर पेड़ लगायेंगेदादीजी मन ही मन प्रसन्न हुईं। दादीजी ने कहा सबको इकट्ठा करके सुबह घर आ जाना। तब तक दादीजी साप्ताहिक बाजार से कुछ बीज ले आयीं। इधर बच्ची ने अपने सब मित्रों को दादीजी के साथ मिलकर पेड लगाने और फिर मीठे-मीठेफल खाने की बात बताई, सभी बच्चे तैयार हो गए। कुछ बच्चे तो इतने उत्साहित हो गए कि वे अपनी गुल्लक से पैसे तक निकाल लाये। अगली सुबह मोहल्ले के सभी बच्चे दादीजी के घर एकत्रित हो गए। सबने कहा-दादीजी एक पेड़ के कारण मोहल्ला सूना हो गया है अब हम कई सारे पेड़ लगाकर मोहल्ले को हरा-भरा बनायेंगेपक्षी फिर पेड़ों पर लौट आएंगे और हम सब मस्ती से फल खायेंगे। ये कहते हुए बच्चों ने खुल्ले पैसे दादीजी के पास रख दिये।


 दादीजी ने बच्चों के सिर पर हाथ फेरा और कुछ बीज बच्चों को दिये। फिर मोहल्ले की खाली पड़ी जमीन पर वे तरह-तरह के बीज रोप दिये गए। बच्चों ने बहुत ही उत्सुकता से पेड़ों को बढ़ते देखा। उनकी देखभाल भी की और समय पर खादपानी भी दिया। देखते ही देखते पूरा मोहल्ला हरा-भरा हो गया। बच्चे भी बड़े हो गए।


जब वही बच्चे अगली कक्षाओं में पहुंचे और कुछ वर्षों बाद मोहल्ले में छुट्टियां बिताकर विद्यालय पहुंचे तो शिक्षक ने पूछा, गर्मियों की छुट्टियों में क्या किया? तो किसी बच्चे ने बताया वे पर्यटन स्थल घूमने गए, किसी ने बताया उन्होंने अच्छीअच्छी कहानियां पढ़ीं, किसी ने बताया वह ग्रीष्म शिविर में खेलने गये, परंतु दादीजी से मिलकर पेड़ लगाने वाले बच्चों ने बताया कि उन्होंने एक पूरे मोहल्ले को हरा-भरा बनायातो ये सुनकर शिक्षक आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने ऐसा मोहल्ला देखने की इच्छा जताई और विद्यालय के सभी बच्चों को प्रेरणा के लिए वह मोहल्ला दिखाने की इच्छा प्राचार्य के सामने व्यक्त की। विद्यालय के बच्चे और शिक्षक-शिक्षिकाओं ने मोहल्ले में आकर देखा तो दादीजी के अमरूद के पेड़ का किस्सा सुना और देखा कि मोहल्ले में न केवल अमरूद, बल्कि कहीं जामुन तो कहीं आम और मुनगे के पेड़ लगे हुए हैं उन पेड़ों से पक्षियों के कलरव की मधुर ध्वनि कानों में रस घोल रही है। ये देखकर और बच्चों ने भी अपने मोहल्ले को हरा-भरा बनाने का संकल्प लिया। स्वतंत्रता दिवस पर मोहल्ले की दादीजी को विद्यालय में विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित कर सम्मानित किया गया। बेटी शाम्भवी समेत सभी बच्चों को उनके विद्यालय में उत्कृष्ट कार्य एवं प्रेरणास्पद कार्य के लिए पुरस्कार दिये गए।