हे समय

कविता


बलराम गुमास्ता


मेरे प्रसन्न होते ही


सुखद


और


दु:खी होते


दुखद


विक्षिप्त होने पर


तार-तार


हो जाता है


समय


जीवन की अबूझ


कंदराओं


से गुजरते हुए


अजन्मी आवाजों से


करते हुए


संवाद


जब


आभासी शरीर में


करता हूँ


प्रवेश


तो


समय को


समझने में


देर नहीं लगती


कि उसके


लगातार को


कुतर-कुतर खाया है


जिसने


वह


जीवन है


जाहिर है


जहां-जहां


रचा गया जीवन


वहां-वहां


फिर-फिर रोपा गया


समय का बीज


धड़कने लगा


धरती पर बूटा-बूटा


पक्षियों की उड़ानों में


पैदा होने लगे


छोटे-छोटे


आकाश


पेड-पौधों ने


पसार कर अपनी बांहें


धरती को चकरी की तरह


गोल-गोल घुमाया


हे


दिए गए समय


तुम जीवन से हो


जीवन


तुमसे नहीं।


 


अपना आधार रवोजता हूं मैं


समय ने


इतनी तेजी से


किये


अपने हस्ताक्षर


कि


उसका मिलान


न हो सका


जीवन


बैंक में उपलब्ध


मेरे


हस्ताक्षर से


तब चेहरे से


मिलान करने की


बात हुई


काउंटर पर बैठी


सुंदर लड़की ने


मुस्कुराते हुए


कहा,


माफ करें सर


आपका चेहरा भी


अब


मेल


नहीं खा रहा


हमारे रिकॉर्ड से


पर ज्यादा


चिंता की बात नहीं


क्योंकि


वैसे भी


आपके खाते में


अब


बहुत ही कम


बचा है


आपका


जीवन बैलेंस


यह


ठीक है कि


आप


थोड़ा-थोड़ा


दिखते हैं


महात्मा गाँधी


की तरह


सोच-विचार


में भी लगते हैं


कुछ-कुछ


गाँधीवादी


पर भरोसे


के लिए इतना


पर्याप्त


नहीं


आप तो


जानते ही होंगे


कि आजकल


कितना


सन्दिग्ध


और


लगभग


देशद्रोही है


गाँधीवादी होना


अतिवादी राष्ट्रवादियों


के लिए तो अब


गाँधी


एक गाली है


सर


फिर


उसने मुझसे


मेरा आधार


माँगा


मैंने कहा


मैं इस देश का


नागरिक


क्या इतना


पर्याप्त नहीं


उसने कहा


आपकी


नागरिकता


शक के


दायरे में है


सर


अब उसका


अपना


कोई अर्थ नहीं


अपना


कोई अर्थ नहीं


आप तो


अपना आधार


दिखाइए


तेजी से


अंधकार में


खिसक रहे


समय


बढ़ते


आपसी अविश्वास


असहिष्णुता


साम्प्रदायिक उन्माद


के बीच


मैं


निरीह नागरिक


खोया हुआ


अपना


आधार खोजता हूँ।?


 


एक कवि कपूत


धरती की


बोटी-बोटी


अन्न के


दाने-दाने


का


हवस-भूख में


प्रज्ञ-भोज


खाता


बनाता


सुनहरी खाद


पृथ्वी के


पहाड़-स्तन


पर चलाता


गैंती


कविता-खनिज


खोदता


दुहता


माँ का दूध


वृक्ष-बाल


आरी से काटता


नदी-शिराओं


को रौंदता


नोंचता


रग-रग


 


अंग-सौंदर्य को


अपने


कुंठ-चाक


पर गढ़ता


हिरण्यगर्भा


तुम्हारा


अपराधी हूँ


मैं


मैंने


प्रयत्नों को सार


कहा


विफलताओं को


धर्म


अज्ञानता को


प्रार्थना


की तरह


गाया


दूर-दूर


तक नहीं था


समय-कपास


अतीत, वर्तमान और भविष्य


को जोड़ पाने


का पक्का


सूत


मैं, ठहरा


समय का


सनातन-दोषी


एक


कवि-कपूत


 


आज घर बेटी आई


दूर गिलहरी रुकी


आम की पतली टहनी झुकी


भीगी पलकें, भरे गले से


मां ने टेर लगाई


आज घर बेटी आई


किस निहारिका से टूटी कब


घुटने-घुटने चलकर


ग्रह-पिण्डों के


कितने देश-प्रदेश पार कर आई


हाथों में तो इसके देखो


अरे-अरे चमकीला पत्थर


जाने किस पहाड़ का मन


यह मुट्ठी में भर लाई


गुड्डा-गुड़िया, गत्ते-पुढे


दे-देकर के समझाया


हरी घास से गुद-गुद भी की


मगर लोट कर आधी धरती


मांगे, खेलन छुपन-छुपाई


पिन्नाटा यूं, भरे, प्रार्थना झरे


किसी गुबंद से जैसे टेर


भरम सब टूटा


कुछ-कुछ फूटा


रोने के भीतर, हंसी


छलक-कर घर आंगन भर छाई


जिसे लूटने खोल, ओस की बूंदों के दरवाजे


उड़-उड़ कर निकले हंस


खेत की मेड़ों को भागे


कुहरा छाया,


बाजी गगन, बधाई,


आज घर बेटी आई।