अनमोल अनुभवों के सच्चे किस्से

फिल्म


- कुछ कच्ची-पक्की कतरने - जीवन की


- कुछ कतरने कच्ची-पक्की यादों की


सविता बजाज


प्रिय पाठक मित्रों, हम किसी की भी प्रतीक्षा कर सकते हैं, लेकिन वक्त किसी की प्रतीक्षा नहीं करता और हम वक्त के साथ चल नहीं पाते, पीछे रह जाते हैं। औरत तो धरती का अनमोल खजाना है और औरत न तो सही समय पर अपनी रक्षा कर पाती है और न ही अपने खजाने की देखभाल। वैसे अजकल प्यार शब्द ने जीवन को उलझा कर रख दिया है। पहले ऐसा नहीं था शारीरिक आकर्षण, मीठा स्वभाव-लगाव को जिसे हम प्यार समझ बैठते हैं, सही मायने में प्यार कहीं है ही नही, मात्र अहसास हैइसीलिए शायर कहता है- प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो। स्वार्थ के तर्ज पररिश्तों की आहट में प्यार शब्द कडवा और अर्थहीन हो चुका है। पैसा, प्रापर्टी, नामशौहरत के रंगों में प्यार कड़वा और बदनुमा दाग न जाने क्यों बन कर रह जाता है।


पहले भी प्यार के नाम पर खूब तमाशे होते थे और औरतें मर्द के जाल में आसानी से फंस जाती थीं । आज की हवा कुछ तेजी से बह रही है। नकली और असली में कुछ फर्क नहीं रहा। रील लाइफ और रियल लाइफ में मिटा अन्तरजैसा। यदि नाम की चीज चिन्दी-चिन्दी हो गई। सब नंगा नाच कर रहे हैं। कोई बाजार, मोहल्ला, रंगमंच, फिल्म, माल, नहीं बचा जहां प्यार नाम की सरगोशियां जन्म न ले रही हों। स्कल और कालेज के बच्चे भी प्यार के नाम पर गर्लफ्रेंड, बायफ्रेंड का खेल खूब रच रहे हैं। मैं बम्बई की बात कर रही हूं। लाख पहरे लगाओ, लड़कियाँ ताले तोड़कर भाग जायेंगी।


औरतें पहले आजादी की बातें करती थीं, पुरूष संग कदम से कदम मिलाकर चलने की बातें करती थी। वैसे चारों दिशाओं में तो पुरूषों का राज है। घर पर औरत बैठ नहीं सकती क्योंकि मजबूरियां दायें-बायें मुंह फाड़े खड़ी हैं। बाहर निकल काम तो करना पड़ेगा। मजबूरियों का जन्म भी तो घर से ही शुरू होता है। बेंप या विलिन का वास भी हर घर में होता है। कभी चाचा, मामा ममेरा भाई कभी-कभी सौतेला बाप गन्दी अश्लील हरकतें या गन्दी नजर औरत को चैन नहीं लेने देती। उसे अंदाजा हो जाता है कि तूफान आने वाला है। लेकिन बेचारी औरत जवानी की दहलीज पर खड़ी होकर शायद यह नहीं जानती कि एक बार पैर घर से बाहर निकले तो बाहर के पुरुषों की दुनियां औरत को दिन में तारे दिखा देगें। पाठक मित्रों, न मैं सब पुरुषों को बुरा कहती हूं न औरतों की। मैं औरतों को जीवन की सच्चाइयों से रूबरू करवाना चाहती हूं क्योंकि समस्या का हल औरत में ही है। मैं ज्यादा कला क्षेत्र के बारे में बात करूंगी जिसकी मैं बचपन से दीवानी थी। मेरा मन सिर्फ कलाओं में रमता था जैसे नाच-गाना, अभिनय, लेखन वगैरह। परिवार में दूर-दूर तक कला से किसी का वास्ता नहीं। मुझे भांड मिरासी कह कर बुलाया जाता । आये दिन झोली में नाम, पैसा, अवॉर्ड सब आते गये और दिल्ली के मशहूर एन.एस.डी. में मेरा चयन भी हो गया बजीफे के साथ। मेरे सपनों का द्वार खुल चुका था, मेरी मेहनत खूब रंग ला रही थी और मैं दिल्ली में रंगमंच, रेडियो, दूरदर्शन की स्टार बन चुकी थी-मेरे कलाकार साथी पुरूष ही थे जिनका मैं बहुत आदर करती थी मेरा तो बस एक ही बचपन का साथी था जो मुझसे बिछड़ चुका था, आज बुढ़ापे में भी कभी-कभी उसकी बहुत याद आती है। बहुत ढूंढा, नहीं मिला। कला का क्षेत्र जलन और द्वेष से भरा पड़ा है लेकिन मैंने धैर्य से इस बीमारी का सामना औरतों में किया क्योंकि औरत ही औरत की दुश्मन होती है इस बीमारी का सामना आज तक कर रही हूं।


कला के क्षेत्र बालीबुड में एक दुखद बात यह है कि हर औरत हीरोइन बनने के सपने संजो कर यहां आती है। कोई टैकनीशियन, कैमरा वोमन, एडीटर, मेकअप बोमन या डायरेक्टर बनने की बात नहीं करती। बस उन्हें नंगे कपड़े, मेकअप, से सज संवरकर छोरों के साथ काम करना है क्यों कि आजकल अभिनय के नाम पर लीपा-पोती है। ढेर सारा पैसा, काम कम, उनकी नजर में अभिनय बहुत आसान है।


मैं बम्बई में भी देहली की तरह कला के हर क्षेत्र में छाई थी। आये दिन नयेनये रिश्तेदार पैदा हो रहे थे। किसी को बम्बई देखना था। किसी को बालीवुड में मेरी तरह काम करना था और किसी को केंसर का इलाज टाटा हस्पताल में करवाना था। मेरा ज्यादा समय और पैसा सोशल वर्क पर खर्च होने लगा। कई बार काम भी छोड़ना पड़ता। लिहाजा रिश्तेदारों को समझाया तो वह नाराज होने लगे। परिवार के मेरे अपने समय से पहले भगवान को प्यारे हो गये थे इसलिए दिल्ली जाना कम होता गया। मेरी उम्र बढ़ रही थी। परिवार में दूसरे घरों से आई औरतों ने घर की हर चीज पर कब्जा कर लिया था। सब प्रापर्टी बिक चुकी थी, मेरा अपना कहने को कुछ न बचा था। कभी फोन करती बम्बई बुलाती तो जवाब मिलता हमारे पास कहां समय है। हम तो तभी आएगें जब तुम मरोगी। तुम्हारी अर्थी इतनी धूमधाम से निकालेंगे कि पूरी फिल्म इंडस्ट्री देखती रह जाएगी। सुन कर बहुत दुःख होता। सोचती इस कड़वे बोल वाली औरत को ब्रेस्ट कैंसर था। बम्बई में जब टाटा अस्पताल में आती थी तो सेवा तो मैं ही करती थी, सब भूल गई क्या। मेरे प्रति मन में इतना जहर, समझ न सकी।


__पाठक मित्रों, मेरे जीवन में ऐसा दौर भी आया जब सोचा बीमार रहती हूं उम्र बढ़ रही है, हैंडीकेप हो चुकी हूं, दिल्ली में मां की ढेर सारी प्रापर्टी है, कोई तो मेरी देखभाल करेगा। लिहाजा बोरिया बिस्तर बांध दिल्ली पहुंच गई। लेकिन यह क्या। दिल्ली की धरती हवा, पानी अपनों का खून सब कुछ बदल चुका था।


समय बहुत आगे निकल चुका था और मैं बहुत पीछे छूट चुकी थी। जो सोचा उसका उल्टा हुआ यह जानकर मैं दुखी थी। बात-बात पर अपमान और ढिढोरेबाजी का सामना करना पड़ता। आपने एक्ट्रेस बनके बजाज खानदान की नाक कटवा दी यहां बुढ़ापे में कौन तुम्हारी सेवा करेगा, हमारे पास खुद के लिए समय नहीं। किसी तरह एक महिला रिश्तेदार के घर में पनाह ली तो वह भी खोटा-सिक्का निकली।


बोली- सविता जी, आप तो गजब की एक्ट्रेस हो थोडी एक्टिंग हमारे लिए भी कर दो हमारा यह घर बीस साल से किरायदार खाली नहीं कर रहे, किराया तक नहीं देते। तुम कपड़े फाड़कर पुलिस चौकी चली जाओ और कहो किराएदार ने रेप कियाहमारा मकान तो खाली हो जाएगा। मैं अवाक थी सोचकर औरतें कितनी मतलबी और शैतान होती हैं, लेकिन मैं ज्यादा सोच में डूबी थी कि कोई भी परिवार का पुरुष मेरे साथ क्यों नहीं खडा हआ। सब जोरू के गलाम बन गये थे। मेरा दिमाग घूम रहा था, सोचकर जाये तो जाये कहां।


कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया। परिवार की सबसे छोटी प्यारी बिटिया सविता जिस पर सब जान छिड़कते थे, प्रापर्टी की मालकिन कह कर बुलाते थे, आज उसका सब छिन चुका था अपना घर, होते, बेघर थी। दिमाग में एक विचार कौंधा, बम्बई तो मेरा घर है, जिसका पानी अमृत है। मुझे नाम, पैसा, इज्जत सब दिया, वह तो मुझे इस ढलती उम्र में भी अपनी गोद में पनाह देगी, कैसे मैंने बम्बई छोड़ दी, सोचकर पछतावा होने लगा। मैं तो सारी उम्र परिवार को प्यार करती रहीक्या मैं गलत थी? संवेदना क्या मात्र छलावा होती है जो समय के साथ हवा की भांति हवा में लीन हो जाती है। सोच सोच कर दिमाग घूम रहा था। आधी रात को हिम्मत कर बम्बई की राह पकड़ी और बम्बई पहुंचते ही धरती से लिपट जार-जार रोईबात समझ में आ चुकी थी कि क्यों लोग बम्बई में रहना पसन्द करते हैं क्योंकि यहां आजादी है, अमृत समान मीठा पानी है, हवा में खुलकर सांसें ले सकते हैं।


पाठक मित्रो, मैं बरसों से बम्बई में अकेले रहती हूं जब भी किसी का साथ चाहा, धोखा और फरेब मिला। पचासों की मदद की लेकिन मैने अपना कर्म किया, फल की आशा नहीं की। लोग कहते हैं अपनी जीवनी लिखो, क्या मेरे मीठे, खट्टे कड़वे अनुभव मौत से कम हैं। मैं हमेशा मर्दो की तरह आज भी अपने पैरों पर खड़ी हूं। औरत होकर कई मर्दो को भी काम दिलवाया, औरतों की भी काफी गिनती है। मुझे औरतों से बहुत डर लगता है। दिल्ली जाकर शूटिंग करने के नाम से शरीर कांप उठता है। मना कर देती हूं। मैं भयभीत होकर नहीं, जीना चाहती। बम्बई मेरी मां ने दोबारा मुझे गले लगा लिया, मैं यहां अकेले रहकर बहुत खुश हूं। भले मुझे लोग अकेली औरत का खिताब देते हैं, लेकिन मैं चिकना घड़ा बन चुकी हूं बल्कि लोगों के जुमलों पर हँसी आती है।


मेरी जीवनी पर कई गाने फिट बैठते है।


- मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया ।


- कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया।


- घबराके जो हम सर को टकरायें तो अच्छा हो।


इस सीने में सौ दुःख हैं मर जायें तो अच्छा हो


मैं तो हजारों दुःख सह कर भी जिंदा हूं। ढ़लती उम्र में भी अपना बोझ अपने कंघों पर लाद कर जीवन यापन करती हूं। कोई अपना नहीं फिर भी क्यों जिंदा हूं शायद मेरा भगवान दोस्त मुझे कभी न कभी जवाब दे-कौन जाने?