साहित्यिक पत्रकारिता-रवाली होता स्पेस

राधेलाल बिजघावने 


सूचना प्रौद्योगिकी में पत्रकारिता का अधिक महत्व है। पत्रकारिता में पहले कोई दकियानूसी विभाजन नहीं था। परन्तु अब पत्रकारिता, साहित्यिक पत्रकारिता तथा पीत पत्रकारिता जैसे शाब्दिक विभाजन कर दिया गया है।


स्वतंत्रता पूर्व पत्रकारिता में साहित्य को विशेष महत्व दिया जाता रहा हैसमाचार में संपादक तथा साहित्य सम्पादक के पद पर महत्वपूर्ण सम्पादक ही हआ करते थे परन्तु अब समाचार पत्रों से साहित्य को ही हटा दिया गया है इसलिए इन्हें साहित्य सम्पादक एवं सम्पादक के पद पर साहित्यकार की जरूरत नहीं। निपट पत्रकार ही समाचार पत्र के संपादक, सह संपादक अथवा उप सम्पादक बन जाते हैं जिनका साहित्य से दूर दूर का रिश्ता नहीं।


समाचार सम्पादक एवं पत्रकार का मुख्य उद्देश्य समाचार पत्र की विक्रय संख्या में आशातीत वृद्धि कर अधिकतम लाभ अर्जित करना होता है। इसके लिए वे सनसनीखेज खबरों को विशेष स्थान एवं महत्व देकर प्रकाशित करते हैं ताकि समाज में सनसनी फैल जाए। इससे उनके दिल दिमाग का बिल्ट अप एरिया अलग किस्म का हो जाता है। उन्हें समाज में वैचारिकता लाने, सामाजिक विकास, चरित्र निर्माण से कोई वास्ता नहीं होता। चटपटी सनसनीखेज खबरों में ही पाठक डूबकर रह 165 • प्रेरणा समकालीन लेखन के लिए जाते हैं। इसी को चर्चा के केन्द्र में रखते भी हैं।


जबकि साहित्यिक पत्रकार का दिमाग का बिल्ट अप वैचारिकता, सामाजिक चरित्र, विकास के लिए ही होता है और समाज तथा नई पीढ़ी को इसी सांचे-ढांचे में ढालता है जो श्रमसाध्य काम है।


पीत पत्रकारिता का मसला कोई मारल केरेक्टर नहीं होता। वह पैसे को महत्व देता है। पैसे विज्ञापन से भी मिलते हैं या फिर जिन महत्वपूर्ण लोगों, फैक्ट्रियों के मालिकों के काले कारनामों की खबरें बनाते हैं और उन्हें रोकने या प्रभावित करने की धमकी के साथ पैसा ऐंठते रहते हैं। ऐसी खबरों का असर जनमानस पर क्या और कैसा होता है इसकी इन्हें कतई परवाह ही नहीं होती। अब पीत पत्रकारिता का दबाव बढ़ता ही जा रहा है। इससे पत्रकार पैसे अर्जित करता है इसके साथ ही ख्याति भी। ऐसी स्थिति में पाठकों का चरित्र, वैचारिकता गौण हो गए। पैसा, कैरियर महत्वपूर्ण हो गए। बिना कैरियर के पैसे कहां मिलते हैं इसलिए पैसे के लिए कैरियर की घुड़दौड़ बढ़ गई। इस घुड़दौड़ में पुरुषों और महिलाओं की मैराथन दौड़ साथ-साथ चालू है जिसमें उनके आदर्श और चरित्र की अहमियत ही नहीं रही।


ग्लोबल समय में अखबार, पत्र पत्रिकाएं, रेडियो, टेलीविजन स्वतंत्र संचार माध्यम हैं जो विकसित, अविकसित हैं और विकासशील देशों के पक्ष तथा विपक्ष में सक्रिय भागीदारी निर्वहन कर रहे हैं। इनका चरित्र सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों ही तरह का है। भूमंडलीकरण में उपभोक्तावाद, बाजारवाद की आंधियां तेज चल रही हैं। विज्ञापनों में बाजारवाद एवं उपभोक्तावाद का जीवन बैठा है । विज्ञापनों स्त्री सौंदर्य को प्रमुखता मिल रही है जो सेक्स प्रस्तावों के लिए अच्छी अपील मानी जा सकती है। आधुनिक जीवन शैली में अंग प्रदर्शन की होड़ लगी है। विश्व सुंदरी प्रतियोगिता में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की रूचि बढ़ गई है, मॉडलिंग में भी। इसके माध्यम से मार्केटिंग के हर तरह के हर चरित्र के दरवाजे खुल गए। इसकी वजह से एक अलग दुनिया का निर्माण हो गया। सौन्दर्य प्रसाधनों के धमाकों ने चरित्र निर्माण का रास्ता ही बन्द कर दिया। संस्कृति, संस्कारों आदर्श चरित्र को तो हाशिये पर फेंक दिया गया है। अब मूल्यों की तलाश का प्रश्न स्वप्न की तरह हो गया।


यह सब इसलिए हो रहा है कि मानवीय समस्याओं और संवेदनाओं को समझने वाले साहित्यिक पत्रकारों को पत्रिकाओं तथा समाचार पत्रों से हटा दिया गया है। इसकी वजह से अनेक साहित्यिक पत्रिकाएं बंद हो गईं। ज्ञानोदय, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सरिका। छोटी पत्रिकाओं की साहित्यिक पत्रकारिता जरूर धमाकेदार और असरदार रही। परन्तु आर्थिक जरूरतों की पूर्ति के अभाव में कुछ अंक निकले और बंद हो गए। प्रतीक में अज्ञेय ने जो साहित्यिक पत्रकारिता कामापदण्ड स्थापित किया है, अविस्मरणीय है। पहल, पश्यंती, कल्पना की साहित्यिक पत्रकारिता भी बेमिसाल रही है जिन्होंने सामाजिक समझ और सोच को नया रूप दिया। भारतीय समाज संस्कृति को गौरवमंडित किया है। ऐसा नहीं कि साहित्यिक पत्रकारिता का पूरी तरह चेप्टर ही समाप्त हो गया। हंस, नयाज्ञानोदय, कथादेश, वागर्थ, पत्रिका के सम्पादन में राजेन्द्र यादव, रवीन्द्रकालिया, हरिनारायण, एकांत श्रीवास्तव ने जो साहित्य को गौरव मंडित किया है नि:संदेह हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास में हमेशा ही गौरव मंडित होता ही रहेगा। प्रेरणा का संपादन कर अरूण तिवारी ने साहित्यिक पत्रकारिता को नया मोड़ दिया है।


उपरोक्त मत्रिकाओं की साहित्यिक पत्रकारिता को नोटिस में लिया गया है।


साहित्यिक पत्रकारिता में अब एक और मोड़ आ गया है जहां राजनीति महत्वपूर्ण हो गई है वहीं राजनैतिक पत्रकारिता को ज्यादा महत्व मिल रहा है। राजनैतिक पत्रिकाओं में साहित्यकारों को संपादन के लिए रखा ही नहीं जा रहा है और यदि रखा भी जाता है तो उन पर प्रतिबंधात्मक निर्देश होते हैं कि पत्रिका का फार्मेट, मेटर, पत्रिका मालिक के आदेशानुसार ही होगा। ऐसी स्थिति में राजनैतिक खबरें, रिपोर्टिंग अधिक से अधिक सनसनीखेज, हत्या, बलात्कार की घटनाओं पर विस्तृत सनसनी खेज रिपोर्टिंग छापी जाने से पत्रिका चर्चा के केन्द्र में आ जाती है और इसकी सेल आर्डर बढ़ जाते हैं। इससे साहित्यिक पत्रकारिता की पूरी तरह उपेक्षा होने से सामाजिक चरित्र पर सीधा प्रभाव पड़ रहा है। आज के मनुष्य के लिए चरित्र, आदर्श गौण हो गया और पैसा मुख्य। इससे हर व्यक्ति अपने कैरियर को बनाने के लिए अपना जीवन खपा रहे हैं। इसके लिए आदर्श चरित्र उनके लिए अर्थहीन हो चुका है।


अब माहौल इस तरह का हो गया है कि समूचे मानवीय रिश्तों को समेट पाना कतई संभव नहीं हो पा रहा है। जबकि साहित्यिक पत्रकारिता के माध्यम से मानवीय जीवन को जीने की एक शैली, दिशा समाज को मिल जाना है। अब प्रश्न यह है कि साहित्यिक पत्रकारिता को गौण बना देने से सामाजिक सांस्कतिक चरित्र में कितनी गिरावट दर्ज हो जाएगी, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है


भूमंडलीकरण ने तो राष्ट्रों तथा राष्ट्रों की सामाजिक संस्थाओं तथा पारम्परिक सीमाएं ही मिटा दी हैं और ग्लोबल संस्कृति स्थापित कर दी है जो अलग-अलग विश्व देशों की संस्कृति का मिश्रण है। इस मिश्रण की वजह भारतीय समाज संस्कृति की पहचान ही समाप्त हो गयी। इससे देश की अपनी कोई संस्कृति की मौलिक पहचान ही नहीं रही। सामाजिक संरचना, विचार प्रणाली तथा कार्यशैली भी अब बदल गई। ये अब शंकास्पद हो गई है। इसलिए अब देश की नागरिक औरसांस्कृतिक पहचान भी मिट गई है। इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि अब नागरिकों में देशभक्ति, देश सेवा की भावनाएं भी समाप्त प्रायः हो गई क्योंकि देश की अहमियत को समझने की उनमें शक्ति, विवेक और ज्ञानात्मक संवेदन नहीं रहे।


भारतीय राजनेता यह नहीं समझ रहे हैं कि साहित्यिक पत्रकारिता के घटते स्पेस से देश की नागरिकता को, संस्कृति को कितनी हानि हो रही है। वे तो वोट की राजनीति और राजनीति के वोट खरीदने बेचने में लगे हैं। देश उनके लिए भी गौण हो गया है। पूंजी भ्रष्टाचार इनके लिए अहम विषय बन चुका है। इससे देश के नागरिकों में कुरूप विभेदीकरण उत्पन्न हो चुका है क्योंकि सकारात्मक सोच अब रह ही नहीं गया। मनुष्य अपने स्वार्थ के घमासान युद्ध में लिप्त हो चुका है। नकली बौद्धिकता सभी ने ओढ़ ली है। इसलिए भी कि साहित्यिक पत्रकारिता की अनुपस्थिति में हमारी संवेदनाएं भोंथरी हो गई। पारिवारिक रिश्तों को दरकिनार कर दिया गया है। बौद्धिकता के प्रचार प्रसार पर प्रतिबंध लग चुका है।


इसी वजह से घरों में नाजायज रिश्तों की वजह से निरंतर झगड़े होने लगे हैं। आज यूज एण्ड थ्रो की संस्कृति को प्रमुखता मिल रही है। वस्तु और ग्राहक, कमोडिटी और कन्जूमर का नया रिश्ता ही यूज एण्ड थ्रो के रूप में उभरकर सामने आया है। ग्लोबल मार्केट में स्त्री कमोडिटी बन गई। बहुराष्ट्रीय कंपनियां स्त्री को सेवा देने में प्राथमिकता देती हैं क्योंकि उनके लिए वह कमोडिटी है जिसे यूज कर थ्रो कर दिया जाता है।


रामवृक्ष बेनीपुरी की साहित्यिक पत्रकारिता के बारे में प्रख्यात आलोचक चिन्तक वेन्यामिल का कथन है-"मैं बेहद चर्चित लेखक की रचनाएं तब तक पढ़ता हूं जब उन्हें पढ़ना फैशन के बाहर हो जाता है।" वर्तमान पत्रकारिता प्रमुखतः ऐश्वर्य और ताकत के मद में डूबी है। रामवृक्ष बेनीपुरी की साहित्यिक पत्रकारिता क्रांतिकारी और समाजपरक थी।


रामवृक्ष बेनीपुरी, माखनलाल चतुर्वेदी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, गणेश शंकर विद्यार्थी सरीखी साहित्यिक पत्रकारिता वर्तमान फैशन से बाहर हो चुकी है। उनकी साहित्यिक पत्रकारिता सौहाद्रपूर्ण थी। उनकी पत्रकारिता की आवाज में दम और दबदबा था। उनकी साहित्यिक पत्रकारिता समाज के भीतर चलने वाली समस्याओं, अन्तर्द्वदों की आकांक्षाओं का साक्षी बनी हई थी। इनकी पत्रकारिता शुद्ध आजीविका और सत्ता हासिल करने का उपक्रम नहीं थी। उन्होंने सख सविधाओं को त्यागकर ही साहित्यिक पत्रकारिता का कार्य निष्पादित किया है। रामकृष्ण बेनीपुरी 69 वर्षों में 9 बार जेल के सीखचों में बंद रहे क्योंकि वे संवेदनशील लेखक और विश्वसनीय साहित्यिक पत्रकार थे। पत्रकारिता में उन्होंने कभी राजनीति को महत्व नहीं दिया। पत्रकारिता की पृष्ठभूमि संस्कार, आचार विचार सरोकार और जीवन दृष्टि अदृश्य रूप में निष्पक्ष कर्मठ कार्यकर्ता की होती है। इसमें भाषा शैली शिल्पकला विचारों को अधिकाधिक महत्व दिया जाता है। दृष्टिकोण ही साहित्यिक पत्रकारिता की रीढ़ की हड्डी है जो शोषितों, अपमानितों, अन्याय बर्दाश्त करते लोगों के साथ होती है जिसके लिए स्वाधीन विवेक तथा साहस की जरूरत होती है जिसमें संशय, हिचकिचाहट का कहीं कोई स्थान नहीं होता।


लेखक का साहित्यिक पत्रकारिता से जुड़ना संयोग नहीं था बल्कि वक्त की जरूरत थी। इनके समय में पत्रकारिता को समय की गहराई के साथ जाँचा परखा जाता था। नोवोस्की एजेसली की स्थापना के बाद पत्रकार नापोसनीस्की ने विशेष आग्रह कर पाठकों लेखक को सक्रिय संवाददाता बनाया। लेखक की साहित्यिक पत्रकारिता आत्मपरक थी। इनकी रिपोर्ट निजी अनुभवों से शुरु होती थी।


अमेरिका भी प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ जीव फरियाद से खौफ खाती थी। पेट्रोसाद, लुईस कैल्विकियो ओशन की जड़ता से खाली थी क्योंकि उनकी पत्रकारिता में साहस था, जड़ता थी।


नेहरू जी की साहित्यिक पत्रकारिता दिल और दुनिया के बीच जीवन संताप है जिसमें वे जिन्दगी की कला की सोच में जन्मते हैं । साहित्यिक पत्रकारिता मनुष्य के संग भाषा और संवेदनशीलता का एक नया रिश्ता गढ़ती है।


सामान्यतः पत्रकारिता समाज में जो बाहरी दृश्य होता है उसे ही दिखाती हैइस दृश्य में बहुत कुछ रियल होता है जिसे पत्रकारिता में छोड़ दिया जाता हैसाहित्यिक पत्रकारिता ऐसे दृश्य बिम्बों पर गहराई से विचार करती है। पाठकों लेखकों की रपटों में हत्या, अपराध का वृतांत नहीं होता। साहित्यिक पत्रकारिता की सच्ची रपट वजनी है भाषा में भीतर की अनुमति से उसकी दृष्टि जनक से जुड़ी होती है। पाब्लो नेरूदा तो चरित्र की न्यायिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ाते हुए उलझे अमानवीय लोगों के चरित्र की धज्जियां उड़ाते रहे हैं।


साहित्यिक पत्रकारिता देश के नागरिकों में आदर्श चरित्र, चेतना, चिन्तन का निर्माण करती है। देशभक्ति की शक्ति जागृत करती है। इसका कार्य हमेशा ही सृजनात्मक होता है। राजनीतिक पेंचों से अलग सांस्कृतिक चरित्र की पर्नसत्ता करती हैआज साहित्यिक पत्रकारिता का स्पेस लगातार खाली होता जा रहा है। लोगों की रुचि साहित्य में नहीं होने से साहित्यिक पत्रिकाओं का विक्रय आर्डर गिर गया हैसाहित्यिक पत्रिकाएं हानि का सौदा बन गई हैं इसलिए साहित्यिक पत्रकारिता को पुनर्जीवन देने की जरूरत है ताकि देश, समाज संस्कृति का नगर बोध आदर्शवान हो जाए।