प्यार मरता नहीं है, सुधाजी -kahani

डॉ पूरन सिंह


तब इतनी गरीबी भी नहीं थी कि घर में मुझे काम करने के लिए जाना पड़ता लेकिन न जाने मुझे क्यों ऐसा लगा करता है कि मुझे भी घर में कुछ सहयोग करना चाहिए। हालांकि बड़े भैया हमेशा यही कहा करते, 'नरेश को काम नहीं करना चाहिए उसे तो जो वह पढ़ाई कर रहा है उसी में मन लगाये और बड़ा आदमी बने। अगर वह बड़ा आदमी बन गया तो समझो समाज में हमारा कितना नाम होगा।' और फिर अम्मा से जिद करने लगते, 'अम्मा समझाओ न तुम उसे, वह इन सब कामों को छोड़कर अपना पूरा मन पढ़ाई में लगाए। मैं कहता हूं तो हंस कर दिखा देता है।' अम्मा ने उन्हें आश्वस्त भी किया था,' कहूंगी मैं उससे।' और ठीक उसी दिन शाम को अम्मा ने मुझे अपने पास बैठाकर समझाया था, 'बेटा तुम्हारा बड़ा भइया कह रहा था तुम ये सब काम मत किया करो। अभी घर का खर्च चल रहा है। तुम अपनी पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दो। भइया कह रहा था कि तुम कभी कुछ काम करने लगते हो कभी कुछ... तुम पढ़ लिखकर बड़े आदमी बनो तो उसे ज्यादा खुशी होगी। तम तो जानते ही हो कितम बडे आदमी बनोगे। मझे ही नहीं तम्हारे पिता और भइयाभाभी सभी को कितनी खुशी होगी।' मां ने मुझे बहुत प्यार और अपनेपन से समझाया था


'अम्मा हम जानते हैं कि आप, पिताजी और भइया हमें बेहद प्यार करते हैं.. अम्मा हम पढ़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ रहे यह बात आप भी अच्छी तरह जानती हैं। मैं रात-रात भर पढ़ता हूं। आप यह भी जानती हैं कि जो भी एग्जाम मैं देता हूं 165 • प्रेरणा समकालीन लेखन के लिए उसे क्वालीफाई कर ही जाता हूं, लेकिन अम्मा मैं क्या कर मैं इंटरव्यू में मात खा जाता हूँ। कोई बात नहीं अम्मा किसी न किसी दिन तो भगवान मेरी सुनेंगे ही। मां मैने भगवान का ऐसा कुछ बिगाड़ा थोड़े ही है जो मेरी मेहनत रंग न लाये। भइया से कहना मैं उनका सिर कभी नीचा नहीं होने दूंगा। रही बात मेरे काम करने की तो मैं कोई बुरा काम थोड़े ही करता हूं। कभी सब्जी बेच ली तो कभी लोगों के घरों में पुताई कर ली। ये कोई बुरे काम थोड़े ही हैं । मेरा वश चले तो मैं तो मजदूरी भी कर लूं लेकिन अम्मा, पिताजी के जानने वाले हैं सभी लोग जो मुझे कोई अपने साथ ले ही नहीं जाता। अम्मा मैं तुम्हें एक बात बताऊं अभी एक जगह पुताई करने का काम है। अपने ही मुहल्ले के लड़के वहां काम कर रहे हैं। मुझसे कह रहे थे, भइया आप मेरे साथ चलो। आप बस बैठे रहना। आपका दिमाग बहुत तेज चलता है। आप मुझे समझा दिया करना। अम्मा उन्हें खुशी होती है। वे सब बहुत कम पढ़े लिखे हैं। मुझे अपने साथ देखकर खुश हो जाते हैं और अपने आप पर गर्व महसूस करते हैं और जहां तक मेरी पढ़ाई का सवाल है तो आप तो जानती ही हैं। मैंने रिजर्व बैंक का इग्जाम पास कर लिया है। भगवान चाहेगा तो इंटरव्यू भी मैं पास कर ही लूंगा फिर क्या पूरी रिजर्व बैंक मेरी अम्मा की।' मैंने मीठी-मीठी बातें बनाकर अम्मा को मना लिया था। अम्मा मान गई थी और अम्मा मान गई तो फिर पिताजी और भइया का मान जाना तो सहज ही था।


दरअसल हुआ यह था कि एम.ए. करने के पश्चात मैं घर पर ही था। पिताजी मेहनत मजदूरी का काम करते थे और भइया प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे। जैसा कि हर मां-बाप, भाई बहिन चाहते हैं कि उनका अपना बहुत बड़ा आदमी बने । मेरे अपने भी चाहते थे कि मैं भी बड़ा आदमी बनूं। मैं पढ़ता भी था मेहनत से लेकिन इंटरव्यू से मुझे डर लगता था। मैं एग्जाम पास करने के बाद इंटरव्यू में फेल हो जाता था। अब विभिन्न कंपटीटिव एग्जाम्स की तैयारी करने के साथ-साथ मैं और काम भी कर लेता था जिनमें लोगों के घरों में पुताई करना आदि काम शामिल थे। बच्चों को पढ़ाने का काम भी कर सकता था लेकिन मैं उनसे पैसे लेने के पक्ष में नहीं था। जिसका सीधा मतलब था बच्चे अच्छी तरह नहीं पढ़ते और उनके मां बाप भी मुझे मूर्ख या बेवकूफ ही समझते । छोटा सा कस्बा था जहां फैक्ट्रियां, बड़े बड़े कारखाने नहीं थे। स्कूल थे भी जो पांच सौ रुपये से ज्यादा नहीं देते जबकि यह सब काम करने से मझे एक ही दिन में पचास-साठ रुपये मिल जाते थे। दिखावा न तब मझे पसंद था न आज। इन पैसों से एक लाभ होता था कि मैं अपने भाई या पिताजी से परीक्षा देने के लिए फार्म या फीस आदि के लिए पैसे नहीं मांगता था कभी कहीं परीक्षा देने जाना है तो वही पैसे काम आते थे। कई बार मैं अपने कपड़े भी बनवालेता था घरवालों को लगता कि मैं पढ़ने लिखने के बजाय इन चक्करों में पड़ गया हूं इसलिए वे मुझे रोकते थे। वे गलत नहीं थे और मैं भी सही ही था।


उस छोटे से कस्बे में जैन बनियों के पास ही सारे कस्बे की धन दौलत थी। जैनियों बनियों की दुकानें बीच बाजार में थीं। कोई किसी से कतई कम नहीं था। दोनों ही शांत स्वभाव के लोग थे लेकिन दोनों में ही जाति की बीमारी ने अपना घर बना लिया था। जहां ब्राह्मण, ठाकुर और तथाकथित उच्च जातियां समाज के हाशिये पर फेंके गये लोगों से छुआछूत मानती थीं वहां जैन भी इनसे छुआछूत मानते थे। हो सकता है मनु की तरह दिगंबर महावीरजी ने भी ऐसा ही कुछ कहा हो । खैर उनकी लीला वही जानें। हम तो सिर्फ इतना जानते हैं कि हम बने ही अपमान सहने के लिए थे। हम ज्यादा विद्रोह करते तो भूखों रहने की नौबत आना संभव था। हां, इतना जरूर था कि जैन, ब्राह्मणों की तरह उतने धूर्त और मक्कार नहीं थे। जैन थोड़े से सहिष्णु और साफ्ट थे। सुशील जैन का बहुत बड़ा मार्केट था जिसमें बीसियों दुकानें थीं। कुछ उनकी अपनी थीं तो कुछ को उन्होंने किराये पर दे रखा था जितनी उनकी दुकानें थी उससे भी बड़ा उनका घर था। उनकी दो बेटियां और दो बेटे थे। दोनों बेटों की शादी उन्होंने कर दी थी। अब बड़ी बेटी की शादी थी। शादी लायक तो छोटी बेटी भी थी लेकिन बड़ी की पहले करनी थी। घर में पैसे का अंबार लगा था।


बड़ी बेटी की शादी में सुशील जी पैसे को पानी की तरह बहा देना चाहते थे और इसी क्रम में उनके घर की पुताई करने में मेरे मुहल्ले के लड़के और बड़े बुजुर्गों को महारत हासिल थी। मुकेशा दीपका, पपुआ, कालू, मरुधर और संतोषा से लेकर बड़े बूढ़ों में करुआ के पिताजी सूबेदार, रमकिसना, मुकेशा के चाचा दीना और परसादी प्रमुख थे। इन सब में पपुआ का नाम सबसे ऊपर था। पपुआ मेहनती तो था ही ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ भी था।


सुशील जैन के घर में पुताई का ठेका पपुआ ने ही लिया था। पपुआ मेरी बहुत इज्जत करता था। मुझे बहुत मान देता था। एक दिन चुपके से मेरे घर आया, 'भैया'


'हां शाम के धुंधलके में, मैंने कहा था।


'भइया लगभग छह महीने का काम है। जैन साहब के घर। जैन साहब की बड़ी लड़की की शादी है। मैं हिसाब किताब तो जानता हूं लेकिन आप साथ रहते तो मैं पूरा काम मैं अपने हाथ में ले लेता। आप करना कुछ नहीं आप सिर्फ साथ बने रहना और लेबर को हिसाब किताब करके पैसे देते रहना।' पूरी रणनीति पपुआ ने मुझे समझा दी थी


 'मैं हिसाब-किताब भी करूंगा और काम भी करवाऊंगा। ऐसे थोड़े ही न होता है। मैं तुम्हारा पूरा साथ दूंगा। लेकिन एक प्रॉब्लम है। पप्पू!' मैंने कहा तो पपुआ मेरेमुंह की ओर ताकने लगा था। मानो कुछ पूंछ रहा हो बताओ भइया क्या प्रॉब्लम हैमुझे काम के बीच-बीच में संडे के दिन एग्जाम देने या कभी-कभी परीक्षाएं देने और उनके परिणाम पता करने के लिए जाना पड़ा करेगा। तब तुम्हें मुझे छुट्टी देनी पड़ेगी। मैं बाद में आकर कंपेनसेट कर दिया करूंगा' मैने अपनी समस्या पपुआ को बता दी थी।


'कंपेनसेट' क्या होता है पपुआ नहीं जानता था लेकिन मुझे बीच-बीच में जाना होगा ये बात वह समझ गया था और खुशी-खुशी तैयार हो गया। और अगले ही दिन पपुआ ने अपनी फौज लेकर सुशील जैन साहब के घर की पुताई करने के लिए चढ़ाई कर दी थी। पांच सात मजदूरों के साथ हम सभी लोग सुशील जैन साहब के घर की सफाई करने लगे थे। पुताई का काम शुरू हो गया था घर थोड़े ही था वह तो महल था और उस महल के राजा सुशील जैन बहुत ही नेक दिल और ईमानदार होने के साथ-साथ सहृदय भी थे।


 सुबह शाम ही घर के पुरुष दिखाई देते थे पूरे दिन तो सुशील जैन साहब की पत्नी और उनकी दोनो बेटियां ही रहती थीं। बड़ी बेटी की शादी थी सो वह अपनी शादी के सपनों में खोई रहती। छोटी बेटी ही काम की देखरेख करती थी। छोटी बेटी का नाम सुधा जैन था। सुधा बेहद सुंदर थी। बीए के अंतिम वर्ष में थी सुधा जैन । जब वह काम देखने आती तो काम करने वाले लड़के कनखियों से उसे देखते और जब वह चली जाती तो बाद में अपने आपको खुशनसीब मानते। वह किसी से कुछ कहती भी नहीं थी। सभी से भैया भैया ही करती रहती। सभी के लिए चाय बनाती और स्वयं ही कपों में चाय करके देने भी आती हालांकि उसके घर में बहुत सी कामवालियां थीं।


काम चलता रहा और काम के दौरान ही मुझे दो-तीन बार कस्बे से बाहर जाना पड़ा सुधा ने एक दो बार पपुआ से पूछा भी था 'अरे पप्पूजी वो भैया नहीं आए काम पर आज।'


'वे कानपुर गये हैं।' पपुआ ने बताया था।


'क्यों।'


'भैया ने रिजर्व बैंक में कोई इंतिहान दिया था। वो पास हो गये हैं। उनकी वहीं नौकरी लगेगीइसी का पता करने गये थे। परसों आएंगे। बताओ कोई बात...।' पपुआ ने सुधा को बताया था।


 'बात कोई नहीं... अच्छा पप्पूजी एक बात बताओ तुम्हारे भइया लगता है कुछ पढ़े लिखे हैं शायद।' सुधा ने पपुआ से सारी बात जाननी चाही थी।


'हां, दीदी। मेरे भैया खूब पढ़े लिखे हैं। मेरे मोहल्ले में भइया से ज्यादा पढ़ालिखा और होशियार कोई नहीं है। खूब होशियार हैं हमारे नौकरी लगने वाली है। पपुआ ने गर्व से बताया था।


'तो ये काम क्यों करते हैं।' सुधा ने पुछा था।


'कुछ पैसे मिल जाते हैं। फिर मैंने ही उनसे जिद की थी। वैसे भैया में घमंड नहीं है। अपने पढ़ लिखे होने का गरब भी नहीं है। काम भी खुब करते हैं।.... बताओ, दीदी कोई शिकायत हो तो।' पपुआ ने आगे बताया था।


'नहीं, नहीं मुझे कोई शिकायत नहीं.... मुझे क्यों होगी शिकायत....अच्छा परसों आ तो जाएंगें। कहीं ऐसा तो नहीं काम छोड़कर चले जाएं। सुधा ने शंका जाहिर की थी।


नहीं दीदी मेरे भइया बात के बहुत पक्के हैं। आप देखना हां। पपुआ का विश्वास अडिग था।


मैं कानपुर से पता कर आया था। कॉइन नोट एग्जामिनर की लिस्ट तैयार कर ली गई थी। मेरा नाम छयत्तर नम्बर पर था और पचत्तर नम्बर तक के केंडीडेट्स को ज्वाइन कराने के लिए ज्वाइनिंग लेटर भेज दिए गए थे। मैं एक बार फिर निराश था। आंखों में आंसू भी आ गए होंगे लेकिन हथेलियां जब आंखों के नीचे की थी तो कोई आंसू टपका नहीं था। हथेलियां खुली की खुली ही रह गई थीं


जिंदगी से हारने की आदत पड़ गई थी लेकिन जंग जारी थी और वैसे भी हारना तो तब होता है जब युद्ध समाप्त हो जाए। युद्ध जारी था। दो परीक्षाओं के परिणाम आने वाले थे जिसमें एक का इटरव्यू नहीं था वहां केवल एग्जाम के आधार पर ही सिलेक्शन होना था


मैं काम पर पहुंच गया था। पपुआ खुश था, 'आ गए भइया अब ठीक रहेगा।' क्या ठीक रहना था मैं नही जानता। मैं तो सिर्फ इतना जानता था कि पपुआ मुझे देख कर खुश हो गया था और कोई मुझे देखकर खुश था इससे बड़ी खुशी मेरे लिए क्या हो सकती थी।


उस दिन सुशील जैन साहब के घर में पुताई करने वाले हम तीन लड़के ही थेकुछ लड़कों ने वैसे ही छुट्टी कर ली थी। पपुआ और दूसरा लड़का नीचे वाले कमरे में थे और मुझे पपुआ ने नीचे वाले कमरे में किवाड़ों पर पालिश करने का काम दे दिया था, 'भैया आप थके हारे होगें। ये हल्के वाला काम तुम करो।' बड़ा ध्यान रखता था पपुआ मेरा।


मैं रेगमाल से किवाड़ रगड़-रगड़ कर आकर खड़ा हो गया था, 'कहां गए थे।'


मैंने पीछे मुड़कर देखा। सुधा थी। अरे आप...आप यहां कहां आ गई। देखो तो मिट्टी उड़ रही है। आप गंदी हो जाएगी। हटो-हटो पीछे-पीछे हटो। मैंने उन्हें पीछे हटने के लिए कहा था।


नहीं हो जाऊंगी गंदी। चाय लाई हूं। पी लो। काम बाद में कर लेना। ना जाने कौन सा अधिकार था जो कमरे में गूंज रहा था।


'रख दो' अभी पीता हूं। कहकर मैं हाथ धोने चला गया था। हाथ धोकर लौटा तो वे वैसी ही खड़ी थीं। मैंने झट से उनके हाथ से चाय ले ली थी। इतने बड़े घर की लाडली बेटी और कहां मैं फटे हाल, मैं चाय पीने लगा। मजदूरों के साथ काम करता था सो शिष्टता भी भूल गया। उसने पूंछा भी नहीं था कि आप भी चाय ले लो। और वैसे भी मालिक और मजदूर का फर्क यथार्थ भी था।


पप्पू तो बता रहे थे आप बहुत पढ़े-लिखे हैं। बिना किसी लाग लपेट के उन्होंने पूछ लिया था।


 'पढ़ा-लिखा होता तो मजदूरी क्यों करता।' दर्द था, कराह थी या कसक कौन जाने अचनाक बोल पड़ा था मैं।


 'अच्छा आप बताओ...पढ़-लिखकर तो आदमी शिष्ट और विनम्र हो जाता है।' वे वोली थीं।


'जी बिल्कुल।'


'तो फिर आप क्यों नहीं हैं।'


'मुझसे क्या अपराध हो गया।' मैं डर गया था कि कही काम न छूट जाए।


आप अकेले-अकेले चाय सुड़क रहे हैं। ये भी जरूरी नहीं समझा कि सुधा जी चाय पी लीजिए। न जाने कितने अधिकार से वह बोली थी।


मुझसे गलती हो गई क्षमा कर दीजिए मेडम । मैं डर रहा था।


अच्छा अभी मैंने अपना नाम बताया है न । मैं मेडम नहीं हूं। मेरा नाम सुधा जैन है। तुम चाहो तो सुधा भी कह सकते हो। गुर्राहट लेकिन उस गुर्राहट में अनाप-शनाप अपनत्व भी था।


जी मैं अब भी हाथ बांधे खड़ा था।


और ये हाथ में क्या है।


कुछ नहीं मैंने अपने हाथ अलग-अलग करके दिखा दिए थेवे कुछ नहीं बोली थी। खिलखिलाकर हंस पड़ी थीं। उसके हंसने से लगा था चारों तरफ फूल बिखर गये हों। लगा था मानो मंदिर की घंटियां बजने लगी हों।


मैं नहीं हंसा था। मैंने फिर हाथ बांध लिए थे। वे हंसते-हंसते चलने लगी थीं कि अचानक मुड़ी थीं, एक बात रह गई।


'जी मैडम।'


उन्होंने मेरी तरफ आंखे निकालीं तो मैं सकपका गया था, जी..जी सुधाजी।


'ये छत्तीस बार जीजी लगाना जरूरी है। घुड़क थी जिसमें अब डर या भय नहीं था।


'आप कुछ पूछ रही थी मैं हाथ बांधे याचक सदृश्य खड़ा था।


'आप कितना पढ़े हैं।'


'एम.ए. अंग्रेजी से किया है।'


ये ही काम रह गया था।


'काम कोई छोटा बड़ा नहीं होता जहां तक मैं जानता हूं।


'और कहां तक जानते है आप'


'बस इतना ही।'


'इतना डरे-डरे क्यों रहते हैं।'


'क्योंकि मैं बहुत गरीब परिवार से हूं।'


'गरीब कोई होता ही नहीं।'


'आपने गरीबी देखी ही नहीं।'


अच्छा जबाब तो खूब लपर लपर देते हो। उनकी इस बात से मैं फिर डर गया था


अच्छा बताओ एम.ए. अंग्रेजी से कर लिया। कहीं किसी स्कूल में पढ़ाने लगते तो। एक रास्ता बताया था सुधा ने।


 'प्राइवेट स्कूल वाले शोषण करते हैं। दस्तखत पांच हजार पर करवाते हैं । देते हैं पांच सौ रुपये।' मुझे पता ही नहीं चला था कि मैं कब फॉर्मल हो गया था।


'पप्पूजी बता रहे थे। आप बहुत बड़ी-बड़ी नौकरियों के इग्जाम क्लीयर कर लेते हैं।' पूछा था सुधा ने।


'जी लेकिन मुकद्दर से क्लीयर नहीं होता।' मन में पीड़ा थी जो साक्षात हो उठी थी


'निराश मत हो ओ। भगवान सब ठीक करेगा। वह सभी की मदद करता है।' उन्होंने ऊपर की ओर आंखें उठायी थीं। मानो मेरे भगवान से कह रही हों कि हे भगवान इनकी सुन लो।


'भगवान गरीब की मदद नहीं करता।' मैं न जाने कब बोल गया था और मेरे इतना बोलते ही वे वहां से चली गई थीं।


इस बार न जाने क्यों मैं डरा नहीं था। भगवान में कितना विश्वास करता। मेरी सुनता ही नहीं था। नहीं तो पचहत्तर नंबर तक के लड़कों को ज्वाइंनिग लेटर इश्यू हो जाएं और छियत्तर नंबर वाला मैं मुंह देखता रहूं।


वे चली गई थीं। किचिन में कुछ खड़बड़-खड़बड़ हो रही थी। शायद बरतनों से लड़ रही थीं। कुछ देर बाद पपुआ और उसके साथ वाला लड़का मेरे पास आये थे। थोड़ी बहुत देर मेरे साथ काम किया था। देखते-देखते शाम हो गई थी। हम सभी अपने-अपने घर चले आये थे।


मैंने पपुआ को सारी बात बता दी थी। उसने भी बताया था कि भैया आपके कानपुर चले जाने पर सुधा ने आपके बारे में पूछा थाअगले दिन हम लोग फिर जाकर अपने-अपने काम पर लग गये थे। इस बार हम सभी एक ही जगह पर काम कर रहे थे।


सुधाजी सभी के लिए चाय से भरे कप एक ट्रे में संभाले प्रकट हुई थीं। चाय की ट्रे लाकर एक जगह रख दी थी। सभी लड़कों ने चाय के कप उठा लिये थे। मैं अपने काम में लगा हुआ था कि वे अपने हाथ से कप लेकर मेरे पास आयीं थी, 'चाय'।


'अरे आप, मैं अपने आप ले लेता, आप बिना वजह परेशान । मैं सकपका रहा था सभी लड़के गिद्ध की निगाहों से मुझे और सुधाजी को देख रहे थे।


'अब पी भी लो।' कहकर मेरे हाथ में चाय का कप देकर चली गईं थीं सुधाजी। उनके जाते ही मेरे पास आ गये थे। मैं उम्र में सबसे बड़ा था सो सभी मुझे भइया ही कहते थे। उनमें कुछ ऐसे भी थे जो मेरे भतीजे लगते थे। लेकिन वे भी मुझे भइया ही कहते थे। 'भइया'


 'हूं'


'पट गई।


'कौन'


'जैनिया की लौंडिया।'


'पागल हो तुम। ऐसे बोलते हैं। मालिक हैं वो हमारी।' मैंने उन्हें सभ्यता से बोलने को कहा था।


'अच्छा अब बात आयी समझ में।' कलुआ बोला था।


'क्या समझ में आयी तेरे'


'यही कि भइया भी।


'क्या भइया भी।'


'यही कि भैया भी उसे चाहते हैं।' अब दूसरे वाला बोला था जबकि ये सब मुझसे बहुत डरते थे लेकिन जाने क्या हो गया था सबको। 'चाहत और पेट दोनों अलग-अलग होते हैं दीपक। तू अभी नहीं जानता। गरीब को कोई अधिकार नहीं है प्यार करने का एक बात सुन ध्यान लगाकर अगर इस तरह की बात इस घर में किसी को पता चल गई तो सबके सब यहां से भगाये जाओगे और इतना ही नहीं कस्बे में कोई काम भी नहीं देगा। चारों तरफ ये ही बात फैल जायेगी कि ये लोग काम के बहाने रहीसों की लड़कियों को फुसलाने के लिए आते हैं। जानते हो अगर यही आदतें रखोगे तो कहीं काम भी नहीं मिलेगा। चाहता तो मैं भी हूं। लेकिन यही सब जिंदगी थोड़े ही होती है। जिंदगी तो...।' मैं कहां इसके आगे बोल पाया था। आंखों में कुछ किरकिराने लगा था सब मुझे घेरकर बैठ गये थे। 'सारी भइया गलती हो गई।' बेचारे सॉरी नहीं कह पाते थे लेकिन भैया को दुःख न पहुंचे इसलिए जो भी जानते थे बोल गये थे। मैंने भी सभी को प्यार किया था। और कोई बात नहीं' कहते हुए सभी काम पर लग गये थे।


और हमारा यही वार्तालाप न जाने कैसे सुधाजी ने सुन लिया था।


अगले ही दिन आयीं थीं वह । वही चाय लेकर सभी ने अपनी-अपनी चाय उठा ली थी। मैं भी चाय का अपना कप उठाने चला था कि वे स्वयं ही उठा लाई थी, 'मैं देती हूं आपको।'


'नहीं मै ले लूंगा।'


'क्यों , कांटे हैं मेरे हाथों में।'


'अरे नहीं-नहीं, लाइए आप दे दीजिए।'


'लाइए आप दे दीजिए हुं।' कहते हुए उन्होंने चाय का कप मुझे थमा दिया था। मैं चाय पीने लगा तो ध्यान आया, 'अरे सुधाजी आपकी चाय... आप नहीं पियेंगी।'


'सुधाजी.. सुधाजी चाय पी चुकी हैं। उन्होंने जी पर पूरी ताकत लगा दी थी। मैं समझ गया था उन्होंने जी पर इतनी ताकत क्यों लगाई थी।


'एक बात पूछनी थी।' वे बोली थी।


'किससे।'


'दीवारों से।


'भइया, आपसे पूछना चाहती हैं दीदी। ' पपुआ बोला था


'अच्छा पूछिए।'


'आपसे तो पप्पूजी समझदार हैं।' उन्होंने पपुआ की ओर देखकर कहा था और पपुआ को सीना छत्तीस इंच का हो गया था।


'तो पप्पूजी से पूछ लो।' मैं बोला था


'देख रहे हो।' उन्होंने पपुआ की ओर देखकर कहा था, 'इनके नखरे।'


'भइया बता दो न दीदी क्या पूछ रही हैं।' पपुआ बोला था।


'अच्छा बताओ दीदी क्या पूछ रही थीं। मैंने यूं ही मजाक में बोला था। मुझे लगा था शायद वह नाराज हो गई हैं। मेरे ऐसा कहने से खुश हो जाएंगी। बस गजब हो गया था। डिस्टेम्पर की तीन बाल्टियां भरी रखी थीं जिनसे कमरे की पुताई करनी थी सुधाजी ने एक-एक करके तीनों बाल्टियां मेरे ऊपर डाल दी थी। मैं सिर से पांव तक भीग गया था। लड़के खूब खुश थे। 'दीदी। मैं दीदी हूं तुम्हारी।' कहती हुई किचिन में चली गई थीं।


अब कुछ भी शेष नहीं रहा था। सब लड़के जान गये थे कि आखिर माजरा क्या है। जान मैं भी गया था लेकिन जानबूझकर मूर्ख बना हुआ था। घर में पता चला तो सभी ने सुधाजी को डांटा था, 'सीधा लड़का है। चार पैसे कमा लेता है। जिस दिन भगवान उसकी सुन लेगा। क्यों करेगा ये सब काम.... लड़की बिलकुल पागल हो गई है। बताओ उसके ऊपर पूरा डिस्टेंपर ही डाल दिया। ....वह तो बेचारा किसी का कुछ लेता भी नहीं। अपने काम में लगा रहता है। सुधाजी की मां ने उसे डांटा....। कहते हुए सुशील जैन साहब मेरे पास भी आए थे। 'बेटा वह ऐसी ही है जिद्दी।'


'कोई बात नहीं जैन साहब। मैं नहा लूंगा। सब ठीक हो जाएगा। आप... आप...चिंता...।' मैंने कहा था तो वे चले गये थे।


मैंने उस दिन काम नहीं किया था। वैसे ही लिपा पुता घर चला आया था। पूछा भी था अम्मा ने, 'अरे ये क्या हाल बना लाया।'


कुछ नहीं अम्मा बाल्टी ऊपर रखी थी। मैं चढ़ रहा था सो गिर गई मेरे ऊपर। अभी नहा लेता हूं। सब ठीक हो जाएगा।' कहते हुए मैं नहाने बैठ गया था। काफी रगड़ने के बाद भी रंग नहीं उतरा था। किसी का उतरा है जो मेरा उतरता।


अगले दिन हम सभी काम कर रहे थे। निश्चित समय पर चाय लेकर प्रकट हुई थीं सुधाजी। सभी ने अपनी-अपनी चाय उठा ली थी, मैं असमंजस में था। तभी उन्होंने ही चाय का कप उठाकर दिया और बोली थी, 'एक्सट्रीमली सॉरी।' कोई बात नहीं। कहकर मैं चाय पीने लगा तो मैंने देखा था कि वहां एक कप और रखा था जिसमें चाय थी। मैं समझ गया था। मैंने उठकर चाय का कप उन्हें बड़े सलीके से देते हुए कहा था, 'लीजिए आप भी पीजिए।' उन्होंने पलकें नीचे की थी। लगा था मोती को किसी ने सीप में बंद कर लिया हो।


सभी ने चाय पी थी और चाय पीने के पश्चात अपने-अपने काम पर लग गए थे लगभग छह महीने तक काम चलता रहा। घर के कोने-कोने में पुताई, वार्निश और न जाने क्या-क्या होता रहा था।


उन्हें मैंने उस दिन के बाद कभी दीदी नहीं कहा। मैं जब भी काम करता होता वे आकर मेरे पास वहीं बैठ जातीं। वे बातें करती रहतीं। मैं काम करता रहता। एकएक बात दस-दस बार पूछतीं। मैं भी उतना नहीं डरता था। मैं जान गया था सचसाथ के लड़के खूब मजा लेते थे, 'दीदी भैया खूब अच्छे हैं न।' वे हंस देतीं। बहुत नालायक थे सभी और प्यारे भी लेकिन वह कलुआ, वह तो सबसे बड़ा कुत्ता था, 'भैया गजब की सुंदर है। पट गई समझो।' फिर मेरे बहुत पास आकर कहता, भैया, भाभी कहना शुरू कर दें।' मैंने एक मारा था उसके कान के नीचे तो गुस्सा नहीं हुआ था. 'अच्छा भैया लगी तो भाभी ही ना।'


'हां।' न जाने कब बोल गया था मैं।


तभी एक दिन मैं अकेला काम कर रहा था कि वे पीछे से आयी थीं और मेरी आंखें बंद कर ली थी। मैं जान गया था। बताओ कौन'


'सुधा।'


'करेक्ट'


'एक बात पूछू आपसे।'


'पूछो।'


फिर वे मेरे बिल्कुल सामने आकर बोलीं थी, 'नरेन, आई लव यू।'


'सुधा तुम जानती भी हो कि तुम क्या कह रही हो। कहां आप प्रिंसेस और कहां मैं जमीन पर सही तरह से पैर भी नहीं है मेरे।.... सुधा कभी जमीन और आसमान नहीं मिलते.... तुम जानते हो ना।' मैंने बिल्कुल अपने सामने करते हुए उनकी आंखों में आंखें डालकर कहा था।


 'मैं दिला दूंगी जमीन और आसमान, नरेन।.... मैं सब ठीक कर दूंगी... सिर्फ तुम मान जाओ जिद पर अड़ गई थी सुधा।


'सुधा बचपना मत करो।' मैंने समझाया था


'अगर तुम मुझे न मिले तो मैं फांसी लगाकर मर जाऊंगी।' रहीस घर की बेटी जिद पर उतर आई थी।


'यही प्यार करती हो... जो प्यार करते हैं उनमें साहस भी होता है... तुम तो बिल्कुल कायर निकलीं और फिर ऐसी जिद क्यों करती हो जो पूरी न हो सके। मैं थोड़ा सा गुस्सा हुआ था।


'अच्छा गुस्सा हो रहे हो'


'नहीं गुस्सा नहीं हो रहा । तुम्हें समझा रहा हूं। मैं बहुत गरीब घर का बेटा हूं। सिर्फ इज्जत बची हुई है। तुम्हारे पास धन है। दौलत है। कस्बे में तुम्हारे पापा का नाम है। तुम्हारे एक इशारे पर मेरे जैसे सैकड़ों नरेन तुम्हारे पैरों में नाक रगड़ते घूमेंगे।' मैंने अपना और सुधा का यथार्थ उनके सामने रख दिया था।


'उनमें मेरा नरेन नहीं होगा।' और इतना कहकर वे मुझसे लिपट गई थीं। मैं डर रहा था। फिर अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आ गया हो, बोलीं थी, नरेन आओ तुम्हें एक चीज दिखाती हूं।


'दिखाओ।'


'यहां थोडे ही है।'


'कहां है।'


'मेरे साथ आओ।' और वे मुझे कमरे के भीतर कमरा और फिर कमरे के भीतर कमरा अर्थात पांच कमरों के भीतर दीवाल में लगी हुई तिजोरी के पास ले गई थीं। उन्होंने तीन-चार चाबियों में तिजोरी खोली थी न जाने कहां छिपाकर रखी थी उन्होंने चाबियां।


मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं थी। मैंने तो फिल्मों में भी इतनी गहने नहीं देखे थे। मुझे लगा था कि मुझे चक्कर आ जाएगा


मां एक अंगूठी बनवाने के लिए पिता से एक युग से कह रही थी। पिता असहाय से मां के सामने देखते रहते थे। कई बार मैंने देखा था मां पिता की आंखें अपनी हथेलियों से पोंछ लेती थीं


'सुनो।' वे बोली थीं। अचानक मेरी चेतना वापिस आई थी


'ये सारे गहने लेकर मैं तुम्हारे साथ भाग चलूंगी। पूरी जिंदगी भर तुम कुछ भी नहीं करना। भूखों नहीं मरेंगे हम।'


'और जैन साहब का क्या होगा।'


'वह सब तुम मुझ पर छोड़ो। मैं बच्ची नहीं हूं। बालिग हूं मैं । मैं जिधर बोलूलूंगी। वही होगा।' वह निडर बनी हुई थीं


'और अगर ऐसा न हो पाया तो।'


'तो कल मेरी लाश पर बहुत लोग शोक बनाने आएंगे। तुम भी आ जाना।' वह बोली थी। 'पागल हो तुम'


'पूरी तरह... तुम नहीं मिले तो मैं कुछ भी कर जाऊंगी। समझे नरेन बाबू।'


उसकी बातें सुनकर मुझे डर लगने लगा था


'अच्छा चलो, यहां से।' और मैं उन्हें बाहर की तरफ लाने लगा था। उन्होंने अलमारी बंद कर दी थी।


हम दोनों बाहर चले आए थे।


'अच्छा कल का पक्का रहा।' सुधाजी बोली थीं मैं वहीं मिलूंगी।'


'ठीक है।' कहकर मैं काम में लग गया था।


काम कहां कर पा रहा था मैं । जैसे-तैसे शाम हुई थी। मैं घर आया था।


रातभर सोचता रहा था। मेरे सधा को भगा ले जाने के बाद मेरे पिता. मेरे भाईमेरे परिवार का क्या होगा। मेरे पिता को पुलिस पकड़ ले जाएगी। मेरे भाई का मानसम्मान। और मैंने निर्णय ले लिया था। 'नहीं-नहीं मैं सुधा को भगाकर नहीं ले जाऊंगा।


अगले दिन मैं सुबह ही रोज से जल्दी काम पर पहुंच गया था। कहा भी था पपुआ ने, 'आज बडी जल्दी आ गये भैया।' मैंने हां में सिर हिला दिया था।


सुधा ने मुझे काम पर देखा तो उसके तन बदन में आग लग गई थी


'सुनो'


'जी, बोलो।'


जरा उधर चलो तुमसे कुछ बात करनी है।' सभी लड़कों के सामने मुझे खींचते हुए अकेले में ले गई थी।


'क्या समझते हो अपने को।


'कुछ भी नहीं।'


'आज तो तुम्हें वहां मिलना था।'


वैसा मैं नहीं कर पाऊंगा।


'क्यों।'


मेरे पास आपके क्यों का कोई जवाब नहीं है।'


'मेरे पास है।'


'क्या।'


'यही कि तुम बहुत ही घटिया और गिरे हुए हो। नीच हो तुम नीच ही रहोगे। तुमने मेरा दिल दुखाया है। भगवान कभी सुख न मिले।' इतना कहने के बाद उन्होंने दो थप्पड़ मेरे गाल पर जड़ दिए। फिर बोली थीं, 'क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा । अरे नीच, मैंने तो तुम्हारे कदमों में कितनी दौलत रख दी फिर भी तुम मेरे नहीं हुए।' फिर मुझे धक्का दिया था। मैं लड़खड़ाकर गिर पड़ा था।


 'सुधा जी....दौलत ही सबकुछ नहीं होती और रही बात तुम्हारे होने की... तो मैं तुम्हारा हमेशा रहूंगा। मैं ज्यादा कुछ तो नहीं जानता लेकिन हां इतना जरूर कहूंगा कि मैं धोखबाज नहीं हूं और प्यार की बात करती हो तो प्यार मरता नहीं है सुधाजी।


उन्होंने मुझे कितना सुना-कितना कितना नहीं मैं नहीं जानता। उनके अंतिम शब्द आज भी मुझे याद है, 'अगर थोड़ी भी शर्म हो तो कभी मेरे सामने मत आनानहीं तो मैं क्या कर जाऊंगी, मुझे भी पता नहीं।


मैं उनके पास से चला आया था, बाद में पपुआ ने पूछा भी था, भइया काम क्यों बंद कर दिया। काम बन गया क्या।'


'पप्पू मेरे भाई, काम बना नहीं है, काम बिगड़ गया है।' पपुआ कुछ नहीं समझ पाया था।


मैंने जमीन आसमान एक कर दिये थे। खूब मेहनत की। रात दिन में कोई फर्क नहीं था मेरे लिए। मेरे पिता, मेरी मां और भइया सभी खुश थे। खूब एग्जाम देता। लगभग एग्जाम में पास हो जाता था और एक दिन आया जब मेरा सेलेक्शन हो गया। पोस्टिंग हुई दिल्ली में। मन में आया कि एक दिन जाऊं सुधाजी के पासलेकिन न जाने किसने रोक दिया था।


ऐसा कोई दिन नहीं रहा जब उनकी याद न आई हो। मां-पिता और भाई ने मेरी नौकरी लगने पर खुब खुशियां बनाई थीं, 'मैं जानती थी मेरा बेटा अफसर ही बनेगा।' मां न जाने कैसे जानती थी। शायद मां के पास दो आखों के अलावा मां वाली एक आंख और होती है जो किसी के पास नहीं होती। उसी से देख लेती हैं अपने बच्चों का भविष्य । मोहल्ले में लोग अपने बच्चों को मेरा उदाहरण देते, 'देखो नरेन की तरह बनो, पढ़ता भी था और मेहनत मजदूरी भी करता था आज देखो कितना बड़ा अफसर बना है।'


'खैर उनकी बातें वे ही जाने।


मेरे अपनों ने जमीन आसमान एक कर दिये मेरी शादी करने के लिए, मैं नहीं माना। शादी नहीं की मैंने। एक बात बताना भूल गया आपको, जब सुधाजी मेरे प्यार में दीवानी थी तभी उन्होंने चोरी से एक पासपोर्ट साइज का फोटो दिया था मुझे। मैंने उसी को बड़ा करके अपने कमरे में लगा लिया।


भैया एक दिन आये थे मेरे पास दिल्ली। उन्होंने फोटो देखा तो कहने लगे 'नरेन, अगर यह लड़की अच्छी लगती है तो इसी से कर ले शादी... मैं कुछ नहीं कहूंगा।'


'भैया परियां जमीन पर थोड़े ही आती हैं । भइया परेशान हो गए थे, 'क्यों बेटा क्या भगवान के पास चली गई ये लड़की।'


'नहीं। भइया और बात करो न।' भइया ने आगे कुछ नहीं कहा था


समय पंख लगा कर उड़ा तो उड़ता ही गया। भइया ने नौकरी से वीआरएस ले ली। पोलिटिक्स में आ गये थे। मां-पिता मेरी शादी की बात लिये दूसरी दुनियां में चले गए। बहुत ढूंढ़ा मिले ही नहीं।


भइया की पोलिटिक्स आसमान छूने लगीभैया का प्रदेश की पोलिटिक्स में जलजला था। तभी एक दिन मैं उनके पास गया था।


घर में बहुत भीड़ थी क्यों कि मेरा घर कस्बे में था इसलिए वहां चेयरमेन होता है और चेयरमेन का चुनाव होना था। टिकट भैया की पार्टी से मिलनी थी। जिसे भैया की पार्टी से टिकट मिलती वहीं विजयी होता। भैया के साथ घर की बैठक में बैठे लोगों में से अधिकांश लोगों को मैं नहीं जानता था लेकिन एक आदमी को जो भैया के बहुत ज्यादा नजदीक बैठा था, उसे मैं जानने की कोशिश कर रहा था। भैया ने सभी लोगों से मेरा परिचय कराया था, 'मेरा छोटा है। दिल्ली में नौकरी करता हैबहुत ऊँचे पद पर है।'


मैंने सब को नमस्ते किया तो अनिकेत जैन मुझे याद करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन हिम्मत नहीं कर पा रहे थे कहने की। 'मैं शायद आपको जान रहा हूं।अनिकेत जैन बोले थे।


'तो बताओ।' मैं बोला था। वे हिचकिचा रहे थे। सोच रहे होंगे कि पुताई वाली बात यदि बता दी और अगर मेरे भइया नाराज हो गये तो उनका टिकट कट जाएगातभी मैंने कहा था, 'मैं बताता हूं अनिकेतजी, मैं वही हूं जब आपकी बड़ी बहिन की शादी थी तो आपके घर में रंग रोगन हुआ था और मैंने पुताई की थी। बहुत दिनों तक काम चला था।.... याद आया।'


अनिकेत जैन सन्न रह गये थे और खीसें निपोर रहे थे। फिर भइया के ओर मुंह करके बोले थे, 'सर कल मेरे घर में एक प्रोग्राम है। मेरी सबसे छोटी बहन सुधा के पिछली साल बेटा हुआ था। कल पूरे एक साल का हो जाएगा। हम सभी ने यहीं पर एक पार्टी रखी है। सर को भी ले आएंगे तो खुशी होगी। मेरा मान बढ़ जाएगा।'


'सर मान तो मेरा बढ़ेगा आप जैसे बड़े लोगों की पार्टी में आकर।' मैं न जाने कब बोल गया था और दूसरे कमरे में बैठ गया था। मस्तिष्क में सब कुछ गड्डमड्ड होने लगा था और मन बार-बार एक ही बात कह रहा था, 'सुधा, मैं धोखेबाज नहीं हूं। देखो मैंने तुम्हारी याद में पूरा जीवन और... तुम।'


 अगले दिन निश्चित समय पर, मैं भैया और उनकी पार्टी का लाव लश्कर अनिकेत जैन साहब के भांजे को आशीर्वाद देने पहुंच गये थे।


 वैभव, शान-ओ शौकत, रुतबा, जलजला देखते ही बन रहा था। चारों ओर चमक ही चमक थी। भैया और भैया के मित्र, चमचे और छुटभैए कुत्ते दुम हिला रहे थे और भैया के चारों ओर मंडरा रहे थे। भैया सीधे ही अनिकेतन जैन के भांजे को आशीर्वाद देने पहुंच गये थे। मैं नहीं गया था। दूर से ही देख रहा था लेकिन मैं जिस जगह से देख रहा था वहां से मुझे सुधाजी और उनका बेटा खूब अच्छी तरह दिखाई दे रहे थेआज भी वही सुंदरता । छू लो तो मैली हो जाए। मैं एक चित्त हो देखता रहा था। अनिकेत जैन भैया के तलवों के नीचे बिछे जा रहे थे। भैया ने बच्चे को अपनी गोद में लेकर हलके से पुचकारा था और फिर सुधाजी को दे दिया था।


भैया और अनिकेत जैन में कुछ बातें भी हुई थीं। शायद मेरे बारे में पूछ रहे थे क्योंकि भैया ने खोजी निगाहों से मुझे देखा था


सुधाजी के पास लौटकर भैया और उनके साथी खाना खाने लगे थे। मुझे भी खोज लिया गया था। मैं सभी के साथ खाना खा रहा था और भैया मुझे पढ़ रहे थेशायद मुझमें कुछ ढूंढ़ने की अथक कोशिश कर रहे थे।


हम सभी ने खाना खा लिया था। तभी अनिकेत जैन अपनी छोटी बहन और उनके पति को लेकर हमारे पास आये थे। खाने में थोडा सा विलंब हो गया था। विलंब क्या, खाना खा तो लिया था मैंने अभी हाथ धोने बाकी थे। मैंने हाथ धोकर जैसे ही रुमाल हाथ से निकालना चाहा था... कि... कि सुधाजी ने अपनी बेशकीमती साड़ी का पल्लू मेरी ओर बढ़ा दिया था। मैं सकपका रहा था। तभी तो अनिकेत जैन ने कहा था, 'अरे भाई' नरेनजी आज का मेजबान आपको इतना मान दे रहा है।... इससे बड़े गौरव की बात और क्या होगी।


मैंने देखा था बड़ी देर तक सुधाजी साड़ी का पल्लू मेरी ओर किए खड़ी रही थीं। उनके पति कभी मुझे तो कभी सुधाजी को देख रहे थे। अंत में हारकर मैंने उनकी साड़ी का पल्लू को अपने हाथों में लिया था। भइया पोलिटिशियन तो हैं ही साथ ही अब मुंहफट भी हो गए हैं, नरेन एक बात कहूं।'


 'जी, भइया।'


'परियां जमीन पर भी आती हैं। समझे तुम।' वहां खड़ा कोई व्यक्ति भइया की बात नहीं समझ पाया था।


मैं अब भी सुधाजी की बेशकीमती साड़ी से हाथ पोंछ रहा था और वे मुझे एक टक देखे चली जा रही थीं।