नई सुबह - Kahani

सुभाष रस्तोगी


फुलिया सड़क पर ही पैदा हुई थी। उसकी मां ने ही उसे सिर से जुएं निकालते हुए यह बताया था। तब वे रेलवे फाटक के पास वाले खाली मैदान में रहते थे और रात को बारिश आने पर प्लेटफार्म नंबर 4 पर आ जाते थे, लेकिन चैन वहां भी नहीं थी। सोते हुए रात को पुलिसिए उन्हें कब वहां से ठेल दें, पता थोड़े ही था। कभीकभी तो मुच्छड़ पुलिसिया उसकी मां को प्लेटफार्म नंबर 4 पर खड़ी पैसेंजर गाड़ी के किसी खाली डिब्बे में ले जाता था और मां रात को जब वापस घर लौटती थी तो एकदम थकी-टूटी होती थी। पूछने पर बताती थी-मरदुए ने तो आज पूरा जिस्म ही तोड़ दिया। एक दिन तो हद हो गई। मां का दायां गाल पूरा ही लहूलुहान था। पूछने पर वह फूट-फूट कर रो उठी थी। लेकिन उसके आंसू पोंछने वाला कौन था, बल्कि आस-पास की जो दूसरी औरतें थी, उनमें से कोई भी तो ऐसी न थी जो जब-तब किसी पुलिसिए के हत्थे न चढी हों और वे नसीब की मारी फरियाद करें भी किससे? उनके आदमी तो नशेड़ी-गंजेड़ी थे, जो दिन भर तो रेलवे स्टेशन के बाहर भीख मांगते थे और रात होते ही नशे में धुत्त हो अपने ठिकाने पर आ जाते थे। वे तो खुद ही अपनी घरवालियों को बोतल में बची-बचाई थोडी-सी शराब के बदले रात भर के लिए पुलिसियों को सौंप देते थे और कभी कभी इस खेल में उनके हाथ पउवा या अद्धा लग जाता तो उनकी पौ बारह ही होती थी।


प्लेटफार्म पर जाते थे तो पुलिसिए उन्हें बाहर ठेल देते थे और जब वे रेलवे फाटक के पास खाली मैदान में आते थे तो किसी मंत्री के आने के कारण वहां सफाई अभियान चल रहा था, इसलिए पुलिसिए उन्हें वहां से भी हांक देते। बारिश थी कि रूकने का नाम नहीं ले रही थी। आखिर उन सब ने फैसला किया कि जो हो सो होवे तब तक प्लेटफार्म नंबर 4 पर खड़ी पैसेंजर गाड़ी के डिब्बे में शरण लेंगे, जब तक बारिश रूक नहीं जाती। वे सभी उस गाड़ी के डिब्बे में जैसे-तैसे ठंस गए थे, रह गया था सिर्फ लुक्का कि तभी उस मुच्छड़ पुलिसिए ने तड़ाक से लाठी उसकी पीठ पर जड़ दी। वह वहीं रेलवे लाईन पर लोटमपोट हो गया। जैसे ही उठकर भागने लगा कि साथ वाली पटरी पर धड़धड़ाती हुई मालगाड़ी आ गई। किसी आदमी के पहियों के नीचे आकर कटने से मालगाड़ी रुकी। मालगाड़ी के पहियों के नीचे आकर जो कटा, वह भिखारी लुक्का था।इसी वजह से वह पुलिसियों के रात को हत्थे चढ़ने से भी अब तक बची हुई थी।


लुक्का का था ही कौन जो शोर मचाता। पैंसेजर गाड़ी के आखिरी डिब्बे में छिपे दूसरे भिखारियों को तो अपनी चिंता थी। उन्हें लुक्के से क्या लेना-देना था और यह कोई नई बात भी नहीं थी। पांच-सात रोज में कोई-न-कोई भिखारी पटरी पार करते या किसी पुलिसिए की नजरों से स्वयं को बचाने के चक्कर में किसी-नकिसी रेलगाड़ी के नीचे आकर कट मरता ही था। किसको परवाह थी।


 लेकिन फुलिया की माँ को जब पता चला कि लुक्का मालगाड़ी के नीचे आकर कट कर मर गया है, तो वह दहाड़ मार कर अवश्य रोई थी। फुलिया को यह भी याद है कि एक लंगड़े भिखारी ने उसकी मां को दुनियादारी समझाते हुए कहा था -लुक्का तो अब लौटकर आएगा नहीं। अब सब्र ही करना पड़ेगा। हां, वह चाहे तो उसके साथ बैठ सकती है।


फुलिया की मां को मरे अब कई बरस हो गए हैं और फुलिया पर जोवन भी ऐसा चढ़ा है कि जितना वह उसे छुपाकर रखने की कोशिश करती है, उतना ही उजागर होता है। वह मुंह अंधेरे ही म्युनिसपैलिटी के नल पर नहा लेती है लेकिन सुबह की सैर को निकले मुस्टंडों की तांक-झाँक से अपनी देह को फिर भी नहीं बचा पाती।


 एक दिन तो हद हो गई। एक तिलकधारी ने उस पर ममता उड़ेलते हुए कहा - फुलिया रानी, बाहर खुले में क्यों नहाती हो?


- तो कहां नहाऊं?


 - अरे-अरे क्यों अपने पर जुल्म करती है। मेरी घर वाली तो है नहीं। तू मेरे घर में गुसलखाने में नहा लिया कर। ही... ही.... ही बात इत्ती-सी है फुलिया रानी सिर्फ मुझे खुश कर दिया कर कभी-कभार।


फुलिया जैसे धधकती हुई ज्वाला बन गई थी। उसने तिलकधारी के मुंह पर थूकते हुए कहा था-मेरे बाप की उम्र का है... हरामी तुझे शर्म नहीं आती यह कहते हुए... मैं नीच जात की हूं... मेरे साथ गू खायेगा तो तेरा धर्म नहीं चला जाएगा।


सुबह की सैर को निकले लोग भी अब इकट्ठे होने शुरू हो गए थे। इससे पहले कि बात का बतंगड़ बने, तिलकधारी ने मौका देखकर चुपचाप खिसकने में ही अपनी खैरियत समझी।


फुलिया आजकल शहर की अनाजमंडी के इस बड़े मंदिर के बाहर बैठती है। किसी से कुछ मांगती नहीं। जो भी कोई उसके सामने रखे कटोरे में कुछ डाल देता है या उसके हाथ में कुछ रख देता है, उसी से फुलिया अपना भरण-पोषण करती है। उसकी जैसी किस्मत की मारी कई दूसरी औरतें भी वहां बैठती हैं जो हर आने-जाने वाले को लंबी उम्र की दुआ देती हैं और जब कोई मालदार आसामी कोई मन्नत पूरी होने पर फल, भोजन या कपड़े बांटने के लिए आता है तो सभी भिखारियों में अफरातफरी मच जाती है। लेकिन फुलिया अपनी ही जगह पर बैठी रहती। किसी ने वहीं आकर कुछ दे दिया तो ठीक, नहीं दिया तो भी ठीक। आज भी ऐसा ही हुआ शहर की एक संभ्रान्त महिला अपनी कोई मन्नत पूरी होने पर कपड़े, फल और भोजन बांटने आई, लेकिन फुलिया अपने स्थान से नहीं उठी तो उसे काफी अचरज हुआ। वह स्वयं फुलिया के पास पहुंची और एक सूती धोती, भोजन व फल उसे दिए।


क्या भीख मांगना अभी-अभी शुरू किया है। उस संभ्रान्त महिला ने पूछा


नहीं...मेरी मां भी भीख मांगती थी और मैं भी...


वह भी एक भिखारी ही था। इसी मंदिर के आखिरी कोने पर एक बोरी पर चुपचाप बैठा रहता था। फुलिया की तरह वह भी किसी से कुछ मांगता नहीं था। किसी ने कुछ दे दिया, सो दे दिया। रात को बोरी पर वहीं सो जाता था। मंदिर के बाहर फूल वाले की एक दुकान थी। फुलिया रात को वहीं उसी दुकान के नीचे लुढ़क जाती थी। फूल वाले ने ही उसे कहा था कि यह रात वहीं काट लिया करे।इसी वजह से वह पुलिसियों के रात को हत्थे चढ़ने से भी अब तक बची हुई थी।


फुलिया की नजर जब कभी इत्तिफाक से उस भिखारी पर पड़ती तो उस भिखारी की चोरी पकड़ी जाती थी क्योंकि वह उसे हमेशा अपनी ओर टकटकी लगाए देखता हुआ पाती थी। औरत ही है जो आदमी की नजर की खोट को एकदम पहचान लेती है। फुलिया जानती थी कि उस भिखारी की नजर में कोई खोट नहीं था।


तेरा नाम क्या है? उस भिखारी ने एक रात बोरी पर लुढ़कने से पहले उससे पूछा। 


भिखारियों का भी कोई नाम होता है।


फिर भी कोई तो नाम होगा?


फुलिया और तेरा क्या?


कलुबा। पहले कहां बैठती थी?


रेलवे फाटक के पास। वहां पुलिसिए तंग करने लगे तो यहां बैठने लगी और तu


मैं बांस बाजार में धर्मशाला के पास बैठता था। वहां जब दिन छिपते ही शराबियों, गंजेड़ियों का अड्डा जमने लगा तो यहां बैठने लगा। एक बात कहूं।


-कह।


-तू मुझे बहुत अच्छी लगती है।


-अच्छा तो तू भी मुझे बहुत अच्छा लगता है। तो क्या ...


-यही कि हम दोनों साथ-साथ रह सकते हैं।


-नहीं... साथ-साथ रहने से क्या होगा.. कल बच्चे होंगे तो वे भी भीख मांगेंगे।


-नहीं वे भीख नहीं मांगेंगे।


-कैसे?


-हम किसी मुहल्ले में झोंपड़ी बनाकर रहेंगे। मैं सुबह यह बोरी लेकर कबाड़ इकट्ठा करने के लिए शहर में निकल जाया करूंगा। बाद में यह कबाड़ किसी कबाड़ी को बेच दिया करूंगा। तू कोठियों में बर्तन मांजने और सफाई का काम शुरू कर देना फिर हमारे बच्चे भिखारी नहीं बनेंगे।


- यह इतना आसान नहीं है।


-यह इतना मुश्किल भी नहीं है। मेरे पास कुछ पैसे हैं। उनमें काम चल जाएगा।... यह ले लड्डू। सुबह एक सेठ दे गया था। मैंने तेरे लिए बचाकर रखा है।


फुलिया और कलुबे को शहर के आखिरी छोर पर तेजी से आबाद होती इस कालोनी में एक झोपड़ी बनाकर इकट्ठे रहते हुए अब छ: महीने होने को हैं। कलुबा बड़े सबेरे बोरी लेकर कबाड़ इकट्ठा करने शहर में निकल जाता और शाम को जबअपनी झोपड़ी में लौटता तो सौदा-सुलुफ के साथ। फुलिया को भी कुछ घरों में बर्तन मांजने और सफाई का काम मिल गया है।


कलुबा आज सुबह जब काम पर निकलने लगा तो फुलिया उसे चाय का गिलास थमाती हुई बोली-कल चौबारे वाली सेठानी पूछ रही थी कि पहले तुम कहां रहते थे


-फिर तूने क्या कहा।


-सिकलीघर मुहल्ले में।


-उसे शक तो नहीं हुआ, कहीं उसने तुझे मंदिर के बाहर भीख मांगते हुए देखा हो।


-हुआ तो होने दे.. लेकिन वह मेरे काम से खुश थी। कह रही थी कि फुलिया तू काम मेहनत से करती है। और यह भी कह रही थी कि पहले वाली बाई तो पक्की कामचोर थी। रोज ही छुट्टी करके बैठ जाती थी। कभी वह बीमार होती थी तो कभी उसका बच्चा।


-और...और क्या कहती थी।


-यही कि फुलिया तू छुट्टी मत करना क्योंकि छुट्टी करने वाली बाई मुझे पसंद नहीं है। और यह भी पूछ रही थी कि मैं नहा कर भी आती हूं न रोज।


-तो तूने क्या कहा


-क्या कहना था। जैसे मैं रोज नहाती नहीं हूं।


इस पर कलुबा और फुलिया दोनों जोर से हंस पड़े। सुबह का कुहासा अब छंटने लगा था और धूप पेड़ों की फुनगियों पर उतर आई थी।


-अच्छा अब मैं चलता हूं। आज देर हो गई।


-सुन कलुबा


-हां, बोल।


-कॉलोनी के परधान जी हैं न। पूछ रहे थे कि कल कि फुलिया तेरा आदमी रात को कॉलोनी में चौकीदारी का काम कर लेगा। अगर करना चाहे तो उसे कल सुबह मेरे पास भेज देना। अच्छा कलुबा परधान जी से मिलते हुए जाना ।


-आदमी तो ठीक है न परधान?


-अगर परधान भला आदमी न होता तो हम पर भरोसा करके कॉलोनी में हमें अपनी खाली पड़े प्लॉट में झोपड़ी बनाने की इजाजत देता? तू परधान से अभी मिल लेना। मुझे तो इसमें भलाई ही दिखाई देती है।


परधान जी कलुबा को अपनी कोठी के बाहर लान में टहलते हुए ही मिल गए।


-राम राम परधान जी।


-राम राम कलुबा


-साब जी, आपने मुझे बुलाया था


हां, भई कलुबा बात यह है कि कॉलोनी में इन दिनों चोरी-चकारी की वारदातें बहुत बढ़ गई हैं। तू हमारे भरोसे का आदमी है। बोल तू रात को चौकीदारी का काम करेगा।


-जी सॉब जी।


-भई बहुत मेहनत का काम है। ईमानदारी और जिम्मेदारी का काम है। समझ रहा है न मैं क्या कह रहा हूं। कलुबा।


-सॉब जी, अगर आप मुझे मौका देंगे तो पूरी मेहनत और ईमानदारी से काम करूंगा।


-तो ठीक है आज रात से ही तेरी ड्यूटी शुरू। कॉलोनी के सभी लोगों से मैंने बात कर ली है। हर घर से तुझे साठ रुपये महीना मिलेंगे। बोल मंजूर है।


-जी सॉब जी। आज रात से ही मैं चौकीदारी के लिए हाजिर हो जाऊंगा।


अंधे को क्या चाहिए दो आंखें। कुछ ऐसी ही हालत थी कलुबा की इस वक्त। उसे लग रहा था कि पता नहीं आज कौन सा छिपा खजाना उसके हाथ लग गया है। कलुबा खुशी से फूला नहीं समा रहा था। हालांकि उसे काम पर निकलने में देर हो रही थी और उमस अब धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी लेकिन वह यह बात फौरन फुलिया को बताना चाहता था। झोपड़ी में दाखिल होती ही कलुबा को समझ नहीं आया कि वह बात कहां से शुरू करें, इसलिए सीधे ही फुलिया से कहा-कमाल हो गया फुलिया। मुझे आज रात से ही कॉलोनी में चौकीदारी का काम मिल गया है। हर घर से साठ रुपये महीने के मिलेंगे... तीन हजार रुपए महीना तो हो ही जायेंगे और कबाड़ बेचने से जो कमाई होगी सो अलग...।


-हमारे तो भाग जाग गए कलुबा... अब हमारे बच्चे भिखारी नहीं बनेंगे। फुलिया की आंखों में पता नहीं कौन से फूल खिल रहे थे।


हां, फुलिया अब हमारे बच्चे भिखारी नहीं बनेंगे।


कलुबा पता नहीं आसमान में टकटकी लगाए क्या देख रहा था। खुशी के दो आंसू उसकी आंखों में छलछला आए।


रात की चौकीदारी करके जब अगली सुबह कलुबा अपनी झोंपड़ी में लौटा तो फुलिया उसे जागती हुई मिली। कलुबा को लगा जैसे आज की सुबह और सुबहों से एकदम अलग है। फुलिया को भी लगा कि जैसे एक नई सुबह उनके सामने खड़ी मुस्कुरा रही हो।