खुद्दार - Kahani

डॉ. आशा पाण्डेय


हर-पीले, पके-अधपके आमों से लदे पेड़ों का बगीचा। बीच से निकली है सड़क। बगीचे को पार करती हुई मेरी कार एक घने आम के पेड़ के नीचे रुक जाती है। हम सभी कार से उतरते हैं।


नीचे पेड़ की जड़ के पास पके हुए सात आठ आम पड़े हैं। मैं कुछ बोल पाऊं उसके पहले ही बच्चे आम उठाकर खाना शुरू कर देते हैं। पेड़ की एक डाल आमों से लदी हुई काफी नीचे झुकी है। पति ने डाल को पकड़ कर हिला दिया। तीन-चार आम टपक पड़े। मैं मना करती हूं। मुझे डर है कि अभी पेड़ का मालिक आकर लड़ने न लगे। इन लोगों का क्या भरोसा। लड़ने लगेंगे तो ऐसा चिल्ला-चिल्ला कर लड़ेंगे कि अपनी तो बोलती ही बन्द हो जायेगी। इनका तो कुछ मान-अपमान होता नहीं, अपनी इज्जत का जरूर फालूदा बन जायेगा। किन्तु मेरी बातों का बच्चों पर असर नहीं पड़ता। बच्चे आम उठाकर गाड़ी में रख लेते हैं । शहरी सभ्यताओं को ढोढो कर थके मेरे बच्चे यहां आकर स्वतंत्र हो गये हैं। मैं चुप हो जाती हूं। मन में सोचती हूं, बच्चों को खुश हो लेने दो। ये बाग-बगीचे, ये गांव इन्हें कहां देखने को मिलते हैं। अगर पेड़ का मालिक आयेगा ही तो मैं इन आमों की कीमत चुका दूंगी। यह सोचते हुए मेरे मन में दर्प भाव उमड़ उठता है।


बगीचे से कुछ फलाँग की दूरी पर छ: सात घरों का एक छोटा-सा गांव है। वहां भी इक्के दुक्के आम, महुआ, नीम के पेड़ दिख रहे हैं। दो-तीन घरों का दरवाजा बाग की तरफ खुलता है। इनमें से एक घर के सामने नीम की छांव में खटिया बिछाये तीन चार व्यक्ति ताश खेल रहे हैं। समीप ही दूसरी खटिया पर एक अधेड़ किस्म का व्यक्ति लेटा है। जब हमारी कार बगीचे में रुकी तब-तब उन सभी की निगाह हमारी तरफ मुड़ गई। थोड़ी देर तक हमारी तरफ देखने के बाद उस अधेड़ व्यक्ति ने किसी को आवाज लगाई। घर के अन्दर से दो लड़कियां निकल कर पेड़ की तरफ आने लगीं। एक दस-बारह साल की है, दूसरी उससे कुछ छोटी, लगभग आठ-नौ साल की। दोनों फ्रॉक पहनी हैं किन्तु बटन दोनों के ही फ्रॉक से गायब है। पीठ को उघाड़ता हुआ उनका फ्रॉक कंधे से नीचे लटका जा रहा है। लड़कियां उसे कन्धे के ऊपर चढ़ा लेती हैं। फ्रॉक बार-बार लटक रहा है लड़कियां बार-बार उसे कंधे पर चढ़ा रही हैं। फ्रॉक को पकड़े-पकड़े ही छोटी लड़की पेड़ के इर्द-गिर्द नजरें गड़ाये कुछ खोजने लगी उन्हें आश्चर्य हो रहा है वे आपस में कुछ फुसफसा भी रही हैं। दरअसल लड़कियों ने पेड़ के नीचे जिन आमों को इकट्ठा किया था उन्हें तलाश रही हैं। मेरी बेटी आगे बढ़ कर उनसे पूछती है, 'यहां जो आम गिरे थे, उन्हें खोज रही हो क्या?'


'गिरे नहीं थे, हमने उन्हें वहां रखा था।' जवाब में अकड़ है।


'हां, जो भी हो। वो बड़े मीठे थे। उनमें से कुछ हमने खा लिये, कुछ गाड़ी में रख लिये हैं।' मेरी बेटी की आवाज में लापरवाही समाई है।


बड़ी लड़की के चेहरे पर कई भाव आये और गए। ऐसा तो नहीं हुआ होगा कि हमारी जबरदस्ती उसे खराब न लगी हो किन्तु न जाने क्यों वो चुप रह जाती है। मैं उसके चुप रह जाने का कारण खोजती हूं- हमारी अकड़? हमारा शहरीपन? हमारी चमक-दमक या उसकी उदारता?... पता नहीं


मैं लड़कियों के पास आती हूं।


'यह बगीचा तुम्हारा है?'


कच्चे आम की खटाई और पके आम का अमावट भी बिक जाता है।


'हम लोग खाते भी हैं। दोपहर में हमारे घर रोटी नहीं बनती आम ही खाकर रह लेते हैं।' अब तक चुप खड़ी छोटी लड़की ने मुंह खोला।


'शाम को रोटी बनती है?' मेरी जिज्ञासा बढ़ गई।


'हां, शाम को पना (आम रस) के साथ हम लोग रोटी खाते हैं। आज शाम को हमरे घर में दाल भी बनेगी और अगर सुनीता के घर से चावल मिल जायेगा तो भात भी बनेगा।' छोटी ने चहकते हुए बताया। बड़ी बहन ने छोटी को घूर कर देखा । छोटी सहम कर चुप खड़ी हो गई।


'तुम्हारे पास खेत भी है?'


'हां, है न । एक छोटा-सा खेत भी है।' बड़ी लड़की ने जवाब दिया।


'बस एक ही?'


'हां,... वही जो उस कुएं के पास दिख रहा है।' लड़की ने हाथ से इशारा किया। मेरी नजरें उसके हाथ का पीछा करती हुई कुएं के पास जाकर ठकर गई। लगभग आठ-नौ सौ स्क्वायर फिट का जमीन का एक छोटा टुकड़ा।


'इसमें क्या बोते हैं तुम्हारे बाबा?'


'सब कुछ। कभी गेहूं, कभी मूंग, कभी उड़द। सब्जियां भी लगाते हैं।'


'बाबा कह रहे थे इस बार सब्जियां बेचने से जो पैसे मिलेंगे उससे हम लोगों के लिए कपड़े और चप्पल भी लाएंगे।' छोटी लड़की फिर से बोल पड़ी। बड़ी ने छोटी के हाथ में चिकोटी काटी। मैं मुस्कुरा उठी। मेरे दोनों बच्चे उन लड़कियों के साथ खेलने में जुट गए हैंआम के पेड़ की बड़ी जड़ जमीन के ऊपर निकल कर गोल आकार बनाती हुई फिर से जमीन के नीचे धंसी हुई है। पति उस जड़ पर बैठ गए हैं, मैं वहीं समीप खड़ी हूं।


'कितना सुन्दर बाग है। यहां का हर पेड़ कुछ न कुछ आकार बना रहा हैडालियां कितने नीचे तक झुकी हैं। लगता है पकड़ कर झूलने लगूं। हमारे गांव में एक ऐसा ही पेड़ था। हम सब बच्चे पूरी दोपहर उसी के इर्द-गिर्द जमा रहते थे। यहां आकर मुझे मेरा गांव याद आ गया।' पति की आवाज कुछ गहरी और भीगी लग रही है।


'बाग तो सचमुच अच्छा है। मैं तो कुछ और ही सोच रही हूं।'


'क्या सोच रही हो?'


'यही कि अगर यहां जमीन मिल जाए, यहां... बाग से लगकर, तब एक छोटा सा बंगला बनवा लिया जाए और छुट्टियों में कभी-कभी यहां आया करें। शहर से अधिक-दूर भी तो नहीं है यह जगह।'


'जमीन मिल जाए कि क्या मतलब? अरे अगर हम चाहेंगे तो क्यों नहीं मिल जाएगी? पति की आवाज में दम्भ भरा आत्मविश्वास है।' पैसा हो तो क्या नहीं मिल सकता?'


'वो तो ठीक है, पर कोई बेचे तब न?'


'क्यों नहीं बेचेंगे?... दुगुना पैसा दे दूंगा। दौड़कर बेचेंगे, कोई खरीदने वाला तो मिले, गांव में कौन खरीदता है जमीन?... फिर इन्हें तो पैसा मिलेगा न।'


 'ऐसा हो सके तो वह जो कुएं के बगल वाली जमीन है उसे ही खरीद लिया जाएगा। लड़कियां कह रहीं थी कि यह जमीन इनकी है।... बहुत गरीब हैं बेचारे... रोज भोजन भी नहीं बनता इनके घर... ये जरूर बेंच देंगे। पैसे की इन्हें बहुत जरूरत होगी, बेचारे, इनका भी भला हो जाएगा।'


'वैसे यह बात मजाक की नहीं है। तुम्हारी योजना मुझे भा गई है। घर चलकर इस पर गंभीरता से विचार करूंगा। यहां यदि घर बनेगा तो गांव वालों को भी घर बनते तक रोजगार मिल जाएगा। यह एक तरह से इनकी सेवा होगी।' पति के जवाब से मैं गदगद हूं।


मेरे बच्चे अब भी उन लड़कियों के साथ खेल रहे है। इन खेतों तथा इस बाग के बीच एक सुंदर सा बंगला मेरी आंख में तैरने लगा है। शहर चलकर इस योजना पर विचार करना है। पति गाड़ी में बैठ चुके हैं। दोनों बच्चे भी अपनी-अपनी जगह ले चुके हैं। गाड़ी में बैठने से पूर्व मैंने उस बड़ी लड़की को पचास रुपए का नोट देते हुए कहा... मेरे बच्चों ने तुम्हारे आम लिये थे न इसलिए ये पैसे रख लो। नोट हाथ में पकड़ते हुए लड़की ने जवाब दिया।' पहले मैं बाबा से पूछ कर आती हूं आप यहीं रुकिएगा।'


मैंने कहा 'रख लो पूछने की क्या बात है।' किन्तु मेरी बात को अनसुना कर वो दोनों लड़कियां अपने घर की तरफ भागी।


आम पन्द्रह-बीस रूप से अधिक के नहीं रहे होंगे। मैं पचास रुपये दे रही हूं, गरीब हैं बेचारे, खुश हो जाएंगे। ऐसी अनेक बातें सोचते हुए मैं अपनी उदारता पर मन ही मन इठला रही हूं। तभी वो दोनों लड़कियां दौड़ते हुए मेरे पास पहुंची और पचास का नोट मेरी तरफ बढ़ाते हुए उन्होंने कहा-बाबा कह रहे हैं, हम पैसे नहीं लेंगे। अगर हम इन आमों को बेच रहे होते और तब आपने खरीदा होता तो हम जरूर पैसे लेते। आपने तो अपनी इच्छा से जबरदस्ती मेरे आमों को उठाया है, इसके पैसे हम नहीं लेंगे।


मेरी दानशीलता को धक्का लगता हैअति उत्साह में मैं यह नहीं सोच पाई थी कि चीजों को जबरदस्ती उठा लेना खरीदने की श्रेणी में नहीं लूटने की श्रेणी में आता है, और कोई खुद्दार व्यक्ति लूटी हुई वस्तु की कीमत पाकर खुश नहीं होता।


नोट हाथ में पकड़ मैं बुझे मन से गाड़ी में बैठ जाती हूं। पति के चेहरे पर मायूसी है। उन्होंने गाड़ी शुरू कर दी। बाग पीछे छूट रहा है और बाग के बगल में हमारे दर्प का बंगला बिना बने ही धराशाही हो गया है।